अभी चल रहे किसान आंदोलन ने फिर से दिल्ली के साथ पूरे देश को आईना दिखाने की कोशिश की है। उनकी मांगों में प्रमुखता से इन तीनों नए कानूनों को वापस लेने की मांग है, जिसके बारे में पूरी सरकार और स्वयं मोदी जी सफाई देते रहते हैं– जैसे सारा ज्ञान ये लोग स्वयं समाये बैठे हों। इतने संगठित विरोध पर झुकना तो छोड़िए, सरकार समझने को भी तैयार नहीं है। पहले मौके पर ये सब मिलकर विदेशी साजिश, टुकड़े-टुकड़े गैंग और खालिस्तान-पाकिस्तान पता नहीं क्या-क्या कहने लगते है। कहीं कोई सिर पैर नहीं होता– बस इनके पैसे से प्रोपगैंडा चलता रहता है।
दिल्ली में शुक्रवार को दिन के 12 बजे से एक प्रदर्शन आयोजित किया गया था उन आम नागरिकों द्वारा जो किसानों के साथ इस मुद्दे पर अपना समर्थन रखते हैं। जंतर मंतर, वो 200 मीटर की रोड जिसे लोकतंत्र का गहना कहा जाता है, उसे दोनों साइड से भारी बंदोबस्त कर बंद कर दिया गया। एक तरफ पहले से ही वॉटर कैनन खड़ी थी तो दूसरी तरफ करीब 1000 पुलिस और सीआरपीएफ़ के लोग घूम रहे थे। कई लोगों के पास लाठी है तो कुछ के पास आँसू गैस दागने की बंदूकें। ऐसा लग रहा था जैसे हम किसी बार्डर पर पहुँच गए हों। आसपास किसी को फटकने की इजाज़त नहीं, साथ चलने-फिरने की भी नहीं। मीडिया के लोग या फॉटोग्राफर पहले फिर भी वहां लड़कर-भिड़कर घुस जाते थे, पर अब वो भी नामुमकिन सा है।
कल के प्रदर्शन के बारे में जब मैंने एक पुलिसवाले से पूछा कि ऐसा क्यों है कि यहां पर इतनी पुलिस है, तो उन्होंने कहा- “तुम्हें पता नहीं दिल्ली में किसान आंदोलन चल रहा है? वो यहां भी पहुँच सकते हैं। इसलिए इतनी फोर्स है यहां पर। चलो अब भागो यहां से!“
कुछ और पुलिसवाले वहां खड़े थे जो तू-तड़ाक कर रहे थे। मैंने भी मौका पाकर उन्हें थोड़ा बहुत सुना दिया, फिर चुपचाप खिसक लिया।
“किसान तो दिल्ली के बार्डर पर खड़े हैं। आप लोग यहां कौन सी पहरेदारी कर रहे हैं? ऐसा हाल है तभी तो आम लोग भी पुलिस से डरते रहते हैं।”
बाद में मैंने सुना कि कुछ-एक को उन्होंने डंडे लगा भी दिए। सही तो किया– वही ऑर्डर मिले हैं उनको। बहरहाल, छोटा सा प्रदर्शन पालिका केंद्र के बस स्टॉप के पास हो पाया। आधे घंटे कुछ लोग आए और थोड़े देर में लौट गए। आसपास खड़े और गुज़र रहे किसी ने भी जानने की कोशिश नहीं कि आखिर माजरा क्या है। सबको टीवी देख कर ही पता चल जाता है कि असल मुद्दा क्या है और टीवी चैनल पर क्या भ्रम दिखता है उसका तो कोई जवाब ही नहीं!
अंग्रेजों से हो रही लड़ाई में लोग साथ आए थे क्योंकि पूरा तंत्र ही अत्याचार पर आधारित था। आज के दौर में भी सरकारें बिना बातचीत के कानून बनाने और पास करने लगती हैं, जिसका विरोध तक भी उन्हें बर्दाश्त नहीं है। ऐसे में एक बड़ा सवाल हमेशा ज़ेहन में उभरता है कि आम जनता के लिए ही आंदोलन कर रहे लोगों को आम जनता का समर्थन कब मिलेगा?
मैं समझता हूं क्यों ज़्यादातर लोग किसी ‘आंदोलन’ से दूर रहना चाहते हैं, चाहे वे प्रदर्शन कर रहे लोगों की मांगों से कितना भी इत्तेफाक रखते हों। मीडिया और सोशल मीडिया में इन पर हर तरह की छीछालेदर होती रहती है, खासकर आजकल जब आंदोलनों को बदनाम करना ही फुल टाइम जॉब हो गया है।
इसके बावजूद लंबे समय से आंगनबाड़ी में काम कर रही महिलाएं, 20-25 साल से एड-हॉक और बिना किसी व्यवस्था पर चल रही नौकरी करते लोग, यातायात व्यवस्था में काम रहे लोग, दैनिक मजदूरी कर पेट पाल रहे लोग, महिला किसान और श्रमिकों के अधिकार मांगते लोग, पेंशन की मांग कर रहे सरकारी मुलाज़िम, विस्थापन झेल रहे लोग, जंगल की भूमि का ज़बरदस्ती अधिग्रहण करने के प्रयासों के खिलाफ आए लोग – हर तरह के बैनर और राजनैतिक कार्यक्रम का हिस्सा रहे हैं। उनके साथ कई अन्य लोग भी साथ आए हैं, चाहे वो प्रत्यक्ष हो या अप्रत्यक्ष।
जो माहौल आज है, शायद ही पहले कभी ऐसा होता होगा। खुलेआम मारपीट करना, फर्जी केस लगाना, जहां मुश्किल से धारा 144 तोड़ने का अपराध दर्ज होता वहां हत्या करने की साजिश का या देशद्रोह के केस लगाना– हर तरीके से आंदोलन को तोड़ने की कोशिश करना महज़ इत्तेफाक तो नहीं हो सकता।
देश भर में उमड़ रहे इस उन्माद को फिर हम कैसे समझें? हर दिन इतने सारे लोगों के अधिकारों का हनन कभी भी क्या समाधान की ओर नहीं जाएगा? क्या आंदोलनों को समर्थन देना हर नागरिक का स्वाभाविक कर्तव्य नहीं है? ऐसा लगता है मिडिल क्लास ने अपने और आंदोलनों के बीच एक बार्डर बना रखा है- यह जानते हुए भी कि ये आंदोलन जनता के अधिकारों और देश के संवैधानिक मूल्यों को बचाने के लिए देश के मजदूरों और किसानों द्वारा चलाये जा रहे हैं– वो अपने ही द्वारा बनाए हुए बार्डर को लांघना नहीं चाहता।
सौरभ सिन्हा दिल्ली स्थित सामाजिक कार्यकर्ता हैं