पत्रकारिता की मिशनरी परंपरा और पतन: एक दिवंगत संपादक की अंतर्दृष्टि


देशबंधु अख़बार के प्रधान संपादक ललित सुरजन का निधन पत्रकारिता के इस पतनकाल में पत्रकारीय मूल्‍यों के संरक्षक का जाना है। भारतीय पत्रकारिता की मिशनरी परंपरा के वे आखिरी संपादकों में थे। इसी साल जनवरी में तद्भव के पत्रकारिता विशेषांक की तैयारी के दौरान उसके अतिथि संपादक अटल तिवारी ने ललित सुरजन से पत्रकारिता की परंपरा और उसके पतन पर एक लेख भेजने की बात की थी। सुरजन जी कैंसर से बीमार थे और उनका इलाज चल रहा था। उस दौरान उन्‍होंने लेख भेजा। प्रमुख लेख की लंबाई के लिहाज से यह काफी छोटा था, तो अटल जी ने उनसे इसे विस्‍तार देने का आग्रह किया। बीमारी और इलाज के बीच यह उनकी ही विनम्रता और सदाशयता थी कि उन्‍होंने लेख को बढ़ाकर दोबारा भेजा और उनका लेख तद्भव में प्रकाशित हुआ। तक तक लॉकडाउन लग चुका था। तद्भव का यह अंक लॉकडाउन के दौरान बाहर आया। जनपथ के पाठकों के हित यह लेख तद्भव से हम साभार संपादक की अनुमति से प्रकाशित कर रहे हैं।  

संपादक

भारतीय पत्रकारिता के लगभग ढाई सौ वर्षों के इतिहास में यदि कोई मिशनरी परंपरा थी तो वह अटूट और अविच्छिन्न न होकर किसी हद तक बिखरी हुई थी। उसके पुरोधाओं के लिए पत्रकारिता अपने आप में साध्य न होकर एक निश्चित उद्देश्य की पूर्ति के लिए एक फौरी साधन मात्र थी। निस्संदेह भारत के पहले समाचार पत्र ‘द बंगाल गजट’ ने वाइसराय वारेन हैस्टिंग्ज़ के भ्रष्टाचार आदि कारनामों को उजागर किया, जिसके चलते संस्थापक संपादक जेम्स आगस्टस हिकी को पहले कारावास और फिर भारत से निष्कासन का दंड भोगना पड़ा, लेकिन हिकी के इस अनुकरणीय उदाहरण से कोई परंपरा स्थापित नहीं हुई। मोतीलाल घोष ने वर्नाक्युलर प्रेस एक्ट को धता बताते हुए आनंद बाजार पत्रिका का बांग्ला के बजाय अंग्रेजी में प्रकाशन प्रारंभ कर दिया, लेकिन ऐसा कल्पनाशील कदम उठाने वाले वे अकेले ही थे। तिलक, लाजपत राय, गांधी, नेहरू, आज़ाद प्रभृति महानायकों ने स्वाधीनता के वृहत्तर लक्ष्य को सामने रखकर अखबार प्रकाशित किए, लेकिन उनकी बात निराली थी। ये तमाम दृष्टांत प्रेरणादायक हैं। इतिहास लेखन की दृष्टि से महत्वपूर्ण भी हैं, किंतु इन्हें नियम न मानकर अपवाद मानना ही उचित होगा। बी.जी. हार्निमन, सैय्यद अब्दुल्ला, बरेलवी, गणेश शंकर विद्यार्थी, एस. सदानंद जैसे कृती पत्रकार आदर्श के रूप में हमारे सामने आते हैं, लेकिन ये मिशनरी पत्रकारिता की कोई ठोस परंपरा स्थापित कर गए हों, यह निश्चित रूप से कहना मुश्किल है।

दरअसल, मिशनरी परंपरा की बात करते हुए हम इस सच्चाई को अनदेखा कर देते हैं कि पत्रकारिता अन्तत: एक व्यवसाय है। किसी अन्य व्यवसाय की भांति इसमें भी पूंजी और श्रम के अलावा अनेक स्तरों पर तालमेल तथा समझौता करने की आवश्यकता होती है। पत्र संचालकों के अलावा पत्रकारों को भी बहुत प्रकार के दबाव झेलने होते हैं, जिसमें राजनेता, विज्ञापनदाता, प्रशासक, बाहुबली इत्यादि के अलावा कई बार पाठक भी अपने निजी अथवा सामाजिक आग्रहों के चलते प्रत्यक्ष या परोक्ष भूमिका निभाते हैं। आजादी के ठीक बाद के दौर में यह सच्चाई पूरी स्पष्टता के साथ प्रकट नहीं हो पाई थी जिसके दो-तीन कारण थे। एक तो स्वाधीनता प्राप्ति का मिशन हासिल कर लेने के बाद देश के नवनिर्माण का मिशन प्रारंभ हो गया था, यानी पत्रकारिता के सामने तब भी एक वृहत्तर लक्ष्य मौजूद था। दूसरे, जवाहरलाल नेहरू जैसे उदात्त, लोकतांत्रिक नेता हमारे प्रधानमंत्री थे जो पत्रकारिता की लोककल्याणकारी भूमिका को प्रोत्साहित करने के पक्षधर थे। तीसरे, तब पत्रकारों की वह पीढ़ी भी थी जिसने या तो आज़ादी की लड़ाई में सीधे भागीदारी की थी या जो गांधी-नेहरू के आदर्शों से अनुप्राणित हो एक सार्थक भूमिका निभाने के लिए प्रतिश्रुत थी। चौथे, तब अखबार ही पत्रकारिता का एकमात्र माध्यम था और बिना भारी-भरकम पूंजी निवेश के अखबार निकालना संभव था। यह वह समय था जब बाबूराव विष्णु पराड़कर व बनारसी दास चतुर्वेदी जैसे पत्रकार प्रेस पर पूंजी के हावी होने की आशंका प्रकट कर रहे थे, फिर भी पत्रकारिता के मूल्यों व पूंजीगत हितों के बीच एक संतुलन स्थापित करने की भावना किसी सीमा तक कायम थी। दूसरे शब्दों में पत्रकारिता जनाकांक्षाओं व पाठकों के प्रति काफी कुछ सजग व उत्तरदायी थी, पूरी तरह तटस्थ या उदासीन नहीं। उत्तर-नेहरू युग में इस ओर दुर्लक्ष्य होना प्रारंभ हुआ, जिसका रूप 1990-91 के पश्चात निरन्तर विकराल होते चला गया।

ऐसा नहीं कि नेहरू युग में सब अच्छा ही अच्छा था। यही दौर तो था जब पूंजीपतियों द्वारा संचालित अखबारों ने जिसे तब जूट प्रेस कहा जाता था, प्रथम प्रेस आयोग की सिफारिशों को सर्वोच्च न्यायालय तक जाकर चुनौती दी थी और अपने पक्ष में फैसला करवाने में सफलता पाई थी। प्रकारांतर से पूंजीवादी प्रेस ने स्वतंत्र पत्रकारिता की राह में रोड़े अटका दिए थे। इसी समय में अखबार मालिकों तथा पत्रकारों की राजनैतिक महत्वाकांक्षाएं भी जागृत होने लगी थीं। यदि प्रेस के संचालक राजनीति में घुसपैठ कर अपने अन्यान्य व्यावसायिक हितों का संरक्षण अथवा संवर्धन करने का इरादा रखते थे तो संपादकों की इच्छा वह रुतबा और सुख-सुविधाएं हासिल करने की थी जो रूखी-सूखी पत्रकारिता से संभव नहीं था। मुझे एक ऐसे संचालक-संपादक का ध्यान आता है जिन्होंने अपने पत्र में भिन्न-भिन्न दलों से संबंध रखने वाले चार-पांच पत्रकार नियुक्त कर रखे थे, जो उन्हें राज्यसभा में भेजने के लिए अपनी पार्टी में उनका नाम चला सकें यानी लॉबींग कर सकें। प्रेस स्वाधीनता के लिए ख्यातिनाम एक पत्र संचालक छठे-छमासे संपादकों को निकालने के लिए प्रसिद्धि हासिल कर चुके थे। अनेक राजनेताओं ने नेहरू युग में ही खुद के अखबार स्थापित कर लिए थे। अखबार की प्रिंट लाइन में प्रधान संपादक के रूप में अपना नाम छपा देखकर उन्हें अतिरिक्त गर्व का अनुभव होता होगा! यह सब होने के बावजूद अधिकतर अखबारों के संपादक व पत्रकार तथ्यों के साथ छेड़छाड़ करने से परहेज करते थे। भले ही संपादकीय आलेख में संचालन की नीति का अनुमोदन होता हो।

अनेक मीडिया अध्येता पत्रकारिता के स्तर में आई गिरावट के लिए इंदिरा गांधी और आपातकाल के दौरान सेंसरशिप व पत्रकारों पर हुए दमनचक्र को दोषी मानते हैं। वे लालकृष्ण आडवाणी का कथन उद्धृत करते हैं कि प्रेस को घुटने टेकने को कहा गया था लेकिन वह रेंगने लगा। यह धारणा प्रथम दृष्टि में सही प्रतीत होती है, लेकिन यह विश्लेषण मेरी राय में अधूरा है। आपातकाल लागू होने के पहले पत्रकारिता का परिदृश्य कैसा था, कौन से कारक उसे प्रभावित कर रहे थे तथा जनता पार्टी का शासन आ जाने के बाद पत्रकारिता ने किस प्रभाव में क्या दिशा पकड़ी, इसका अध्ययन अभी होना बाकी है। मुझे दो मुख्य कारण समझ में आते हैं जिन्होंने 1975 के आसपास, शायद कुछ पहले से, पत्रकारिता को प्रभावित करना प्रारंभ किया। एक तो मुद्रण तकनीकी में हो रहे विकास के चलते अखबारों की पूंजीगत लागत व आवश्यकता निरंतर बढऩे लगी थी, जिसने छोटे और मझोले अखबारों पर प्रतिकूल प्रभाव डाला। दूसरे, इसी दरम्यान नवपूंजीवादी ताकतें मजबूत होने लगी थीं। बहुराष्ट्रीय कंपनियों का दबदबा कायम होने लगा था और वे विभिन्न देशों की आंतरिक राजनीति में अधिक खुलकर हस्तक्षेप करने लगी थीं। अमेरिका का सैन्य-औद्यौगिक गठजोड़ बांग्लादेश निर्माण के समय से इंदिरा गांधी से क्षुब्ध था और भारत में उनका साथ देने पूंजीवादी शक्तियां भी आगे आ गई थीं। करेले पर नीम चढ़ने की कहावत यहां चरितार्थ हुई। कल तक जिसे हम जूट प्रेस के नाम से जानते थे, वह अब कारपोरेट मीडिया में कायाकल्प होने की ओर बढ़ने लगा था।

यदि किसी को उम्मीद थी कि आपातकाल समाप्त होने के बाद प्रेस नए सिरे से प्राप्त स्वतंत्रता और सम्मान का उपयोग बेहतर ढंग से करेगा तो यह आशा निष्फल सिद्ध हुई। 1977 के बाद प्रेस के कम से कम एक हिस्से में स्वतंत्रता का स्थान अराजकता ने ले लिया। पहले की पत्रकारिता यदि किन्हीं सिद्धांतों एवं आदर्शों से प्रेरित थी तो नए माहौल में उन्हें तिलांजलि देने का क्रम शुरू हो गया। 1982 में एशियाई खेलों के आयोजन के साथ-साथ दूरदर्शन की मार्फत टीवी एक नए और आकर्षक माध्यम के रूप में सामने आया, जिसने आम जनता के अलावा अखबारों की रीति-नीति, कलेवर, साज-सज्जा इन सबको भी प्रभावित किया। समाचार पत्रों में गंभीर वैचारिक सामग्री के लिए स्थान सिकुड़ने लगा, उसकी जगह हल्की मनोरंजक सामग्री ने ले ली। इसी बीच नई तकनीकी के आगमन ने अखबारों की साज-सज्जा को भी अधिक चमकीला बनाने की प्रेरणा दी। कुल मिलाकर बाह्य कलेवर महत्वपूर्ण और आंतरिक तत्व गौण हो गया। दूरदर्शन पर शुरू में जो सामाजिक संदेश वाले धारावाहिक आते थे, वे भी एक दिन फीके पड़ गए। सामुदायिक एवं संस्थागत स्तर पर एफएम रेडियो स्टेशन स्थापित करने की नीति लोकशिक्षण के लिए बनाई गई, लेकिन वास्तव में उनका उपयोग व्यापारिक हित संवर्धन के लिए ही किया गया। इस तरह पारंपरिक मीडिया के तीनों अंग अखबार, रेडियो व टीवी पूंजी हितों की सेवा में समर्पित कर दिए गए। इस पृष्ठभूमि को देखते हुए मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचने के लिए विवश होता हूं कि भारत में पत्रकारिता का कोई स्वर्ण युग नहीं था। हम तो नेहरू युग के लोकतांत्रिक परिवेश में पत्रकारिता व्यवसाय को मिले सम्मान को भी सुरक्षित नहीं रख सके। इस दौरान श्रेष्ठ पत्रकारिता के जो भी उदाहरण सामने आए हैं वे कम नहीं हैं, तथापि उन्हें अपवाद मानना ही सच्चाई को स्वीकार करना होगा।

इधर पिछले लगभग चालीस सालों के दौरान देश के राजनीतिक परिदृश्य में हुए एक बड़े परिवर्तन ने भी पत्रकारिता को प्रभावित किया है। इस बदलाव का पूरी तरह संज्ञान अभी तक राजनीति के अध्येताओं ने शायद नहीं लिया है या लिया है तो मैं उससे परिचित नहीं हूं। इन चार दशकों में राजनीति लगातार व्यक्ति-केंद्रित होती चली गई है। केंद्र या राज्यों की सत्ता पर जो काबिज रहे हैं या जो थोड़ा बहुत भी राजनीतिक वजूद रखते हैं, उनमें अधिकतर चाटुकारिता प्रिय आत्ममुग्ध प्राणी हैं, जिन्हें नीति, सिद्धांत, आदर्शों से कोई लेना-देना नहीं है। ये नेता मीडिया से भी अपनी प्रशंसा के अलावा और कुछ नहीं सुनना चाहते।  उनके इस मनोविकार को उनकी जी-हज़ूरी में लगे नौकरशाह निस्संकोच प्रोत्साहित करने में कोई कसर बाकी नहीं रखते। जो पत्रकार या संचालक इनके कार्यों की नीतिगत समीक्षा भी करते हैं तो इनको बर्दाश्त नहीं होता। यह प्रवृत्ति धीरे-धीरे बढ़ती जा रही है। फलस्वरूप जो पत्र या चैनल हवा का रुख देखकर चलते हैं, वे फायदे में रहते हैं और जो पत्रकारिता के मूल्यों पर चलना चाहते हैं, उन्हें प्रताड़ित होना पड़ता है। निजी तौर पर पत्रकार की नौकरी जा सकती है। उसका अकारण तबादला किया जा सकता है या उस पर फ़र्ज़ी केस दायर हो सकते हैं; जबकि इसी प्रक्रिया में अख़बार के विज्ञापनों में कटौती करने के अलावा उन्हें परेशान करने की अन्य तदबीरें की जाती हैं। एक बड़े राजनेता ने तीस साल पहले हमारे एक समाचार से क्षुब्ध होकर रायपुर से चार सौ किमी दूर दंतेवाड़ा की अदालत में अपने किसी कार्यकर्ता के द्वारा मुझ पर मानहानि का मुकदमा दायर करवा दिया था, जो कानूनन गलत था और पहली पेशी में ही ख़त्म हो गया, लेकिन मुझे उतनी दूर यात्रा तो करनी ही पड़ी। जब हम आपातकाल की बात करते हैं तब मुझे ऐसे अनेक प्रकरण अनायास याद आ जाते हैं। ऐसी स्थिति में पत्रकारिता से हम किस मिशनरी परंपरा को कायम रखने की उम्मीद रखें? 

जब हम पत्रकारिता की वर्तमान स्थिति पर अफसोस जताते हैं तब मुझे ध्यान आता है कि इंदिरा गांधी के पहले कार्यकाल में एक सुनहरा मौका स्वतंत्र पत्रकारिता के विकास के लिए मिला था, जिसे गंवा दिया गया। तब नंदिनी सत्पथी केन्द्रीय सूचना एवं प्रसारण मंत्री थीं और यह सुझाव शायद उनके ही माध्यम से आया था कि अखबारों के स्वामित्व का विकेन्द्रीकरण (डिवाल्यूशन ऑफ ओनरशिप) किया जाए। इसके अंतर्गत समाचार पत्रों पर पूंजी का नियंत्रण समाप्त हो जाता या घट जाता और कलमजीवी पत्रकारों को संस्थान के संचालन में भागीदारी मिल जाती। लेकिन पत्रकारों के अपने संगठनों ने भी इस प्रस्ताव में कोई खास रुचि नहीं दिखाई। पूंजीपति मालिकों द्वारा इसे स्वीकार करने का तो खैर सवाल ही नहीं था। यह एक विडंबनापूर्ण स्थिति थी कि एक ओर पत्रकार वेतन आयोग आदि मंचों से बेहतर सुविधाएं मांग रहे थे, लेकिन दूसरी ओर अपनी कलम का मालिकाना हक अपने पास सुरक्षित रखने की ओर उनका ध्यान नहीं था। इसका परिणाम यही हुआ कि पत्रकारिता में पूंजी का वर्चस्व बढ़ते चला गया और कलम की ताकत व इज्ज़त उसी अनुपात में घटते गई। एल.पी.जी. (उदारीकरण, निजीकरण, वैश्वीकरण) के आगाज़ के साथ तो मीडिया संस्थानों में पत्रकारों की हैसियत दोयम दर्जे की कर दी गई। पत्रकारों के अधिकारों के लिए लड़ने वाले संगठन छिन्न-भिन्न हो गए। उन पर न्यस्त स्वार्थों का कब्जा हो गया। एक के बाद एक नए संगठन बनने लगे, लेकिन उनका प्रयोजन पत्रकारिता के मूल्यों की रक्षा करने के बजाय अपना वर्चस्व कायम करने तक सीमित रहा। इस माहौल में यह तय करना भी मुश्किल हो गया है कि कौन पत्रकार है और कौन नहीं। 

एक समय अखबार संचालकों के दो संगठन थे- इंडियन न्यूज़पेपर्स सोसाइटी (पुराना नाम- इंडियन एंड ईस्टर्न न्यूज़पेपर्स सोसाइटी) या आईएनएस और इंडियन लैंग्वेजेज न्यूज़पेपर्स एसोसिएशन या इलना।  भारतीय भाषाई पत्रों के हितों की रक्षा के लिए बनाया गया यह दूसरा संगठन कुछ वर्ष पूर्व इसी वर्चस्व की लड़ाई में टूट कर समाप्त हो गया। पत्रकारों के हित में भी एक के बाद एक संगठन बने, लेकिन अब किसी का कुछ पता नहीं चलता। अखिल भारतीय समाचारपत्र संपादक सम्मेलन के वार्षिक अधिवेशन में कभी प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू तक शिरकत करते थे, केंद्रीय सूचना प्रसारण मंत्री तो सामान्यतः आते ही थे, लेकिन व्यक्तिगत- राजनीतिक महत्वाकांक्षा के कारण यह शानदार संगठन बिखर गया। भारतीय श्रमजीवी पत्रकार महासंघ और उससे निकलकर बने अन्य संगठनों की भी आज दमदार उपस्थिति नज़र नहीं आती। लेकिन इन सबसे बढ़कर चिंता का विषय यह है कि पत्रकारों के प्रशिक्षण की आज कोई समुचित व्यवस्था नहीं है, बावजूद इसके कि मीडिया घरानों के अलावा सरकारी और निजी क्षेत्र में अनेक प्रतिष्ठान इस नाम पर खुल गए हैं। 1963 में स्थापित प्रेस इंस्टिट्यूट ऑफ़ इंडिया ने लम्बे समय तक पत्रकारिता के मूल्यों और तकनीक- दोनों आयामों के प्रशिक्षण में सार्थक तथा मूल्यवान भूमिका निभाई।  चंचल सरकार से लेकर अजीत भट्टाचार्य जैसे प्रतिष्ठित पत्रकारों ने इस संस्था की बागडोर संभाली, लेकिन स्वयं पत्र मालिकों की अपनी अरुचि और उदासीनता के कारण यह शानदार संगठन बिखर गया। 

पहले अख़बारों में नए पत्रकारों को ‘इन हाउस’ प्रशिक्षण दिया जाता था। वे अपने वरिष्ठों के मार्गदर्शन में काम सीखते थे। इस तरह हर अखबार अपनी रीति-नीति के अनुसार परंपरा का विकास करता था। वह बात अब पूरी तरह खत्म हो चुकी है। जहां स्वयं संपादक ‘रिस्पांस मैनेजर’ या ‘स्टेट हैड’ जैसे किसी अभिनव पदधारी के मातहत काम करने को विवश हो, वहां नई पौध को प्रशिक्षण देने में किसकी रुचि होगी और हो भी तो उसका क्या लाभ होगा? हमारे सामने ऐसे ताज़ा उदाहरण हैं जहां कारपोरेट अखबार के संपादक को समूह की किसी अन्य कंपनी में ‘लायजन ऑफिसर’ बनाकर भेज दिया गया। युवा पत्रकार ऐसे उदाहरण से कौन सी प्रेरणा ग्रहण करते हैं, इसे समझना कठिन नहीं है। कुछ साल पहले एक आदिवासी बहुल ज़िले में हमने ग्रामीण पत्रकारिता प्रशिक्षण कार्यक्रम आयोजित किया तो उसमें बहुत कम लोग आए। कारण पूछने पर पता चला कि जब मालिक और संपादक ठेकेदारी करते हों तो संवाददाता से ही गंभीर पत्रकारिता की अपेक्षा कैसे की जाए!

इस बीच अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिहाज़ से सोशल मीडिया ने इतनी गुंजाइश अवश्य पैदा की है कि आप अपना मनोगत उस पर सार्वजनिक रूप से व्यक्त कर सकें, लेकिन प्रश्न उठता है कि क्या उसे पत्रकारिता माना जा सकता है? यह माध्यम हर व्यक्ति के लिए खुला हुआ है और उसका इस्तेमाल करने के लिए संपादकीय प्रशिक्षण, संपादकीय नियंत्रण और संपादकीय विवेक की आवश्यकता नहीं है। इनके अभाव में ट्विटर, फेसबुक, वाट्सएप, इंटरनेट आदि का जो भयंकर दुरुपयोग हो रहा है, उससे हम अवगत हैं। हालांकि डिजिटल मीडिया का एक स्वागत योग्य पक्ष भी इस हाल-हाल में प्रकट हुआ है। देश के कुछेक जाने-माने पत्रकारों ने ऑनलाइन अखबार या चैनल प्रारंभ किए हैं, जिन्होंने पारंपरिक पत्रकारिता के नियमों एवं नैतिकता का पालन करते हुए एक नया पाठक वर्ग या दर्शक वर्ग बनाने में सफलता हासिल की है। द वायर, द प्रिंट, स्क्रॉल जैसे नाम यहां ध्यान आते हैं। समाचार पत्रों एवं टीवी चैनलों के ऑनलाइन संस्करण भी स्थापित हो गए हैं, जो उनकी पहुंच का दायरा बढ़ाने में सहायक हुए हैं। डिजिटल मीडिया पर आज दुनिया के हर देश और हर भाषा के अखबार उपलब्ध हैं। शर्त इतनी है कि आप उस भाषा से परिचित हों। लेकिन आनुपातिक दृष्टि से देखें तो सोशल मीडिया पर व्याप्त उच्छृंखलता के सामने ये कहीं नहीं टिकते।

मेरा एक लेख ‘वागर्थ’ पत्रिका में कुछ वर्ष पूर्व प्रकाशित हुआ था। इसमें मैंने सुझाव दिया था कि पत्रकारों को अमूल या इंडियन कॉफी वर्कर्स को ऑपरेटिव सोसायटी की तर्ज पर अपना सहकारी संगठन खड़ा करना चाहिए। अगर हमारी दिलचस्पी स्वतंत्र, लोक हितैषी, स्वस्थ पत्रकारिता में है तो वह तभी संभव है जब पत्रकार स्वयं अपने मालिक बनें। आज मैं उसी सुझाव को दोहरा रहा हूं। इसके लिए हमें हिम्मत जुटानी होगी, खतरे मोल लेने होंगे, अपने बीच में एकजुटता लानी होगी। अन्यथा जो चल रहा है वह चलता रहेगा और हम पत्रकारिता के पतन पर अरण्य रोदन करते रहेंगे।


यह लेख इस साल प्रकाशित तद्भव पत्रिका के पत्रकारिता विशेषांक में प्रकाशित है


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