हिरोशिमा के पचहत्तर साल: भारत में किसका अगस्त है?


दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र जब तारीखों के नये मायने तलाशने में जुटा हो, देश के वज़ीरे आ्ज़म ने 5 अगस्त को 15 अगस्त के बराबर करार दिया हो और अपने-अपने हिसाब से इस तारीख को 6 दिसंबर, 1992 से लेकर पिछले साल के 5 अगस्त से जोड़कर समझने-टटोलने की कोशिशें जारी हों, ऐसे में इस साल 6 अगस्त को कैसे समझा जाए? हिरोशिमा और नागासाकी पर परमाणु हमले के पचहत्तर साल होने पर आज पूरी दुनिया थोड़ा थम कर सोचने की कोशिश कर रही है. जापान के उन अभिशप्त शहरों में दुनिया की सबसे बड़ी त्रासदी देख चुकी इंसानी पीढ़ी के बचे-खुचे लोग, जिन्हें ‘हिबाकुशा’ कहा जाता है, इस मौके पर हमें आगाह करने की समवेत कोशिश कर रहे हैं, लेकिन आज भारत के प्रधानमंत्री ने इस पर पहले जैसी रस्म-अदायगी के तौर पर भी कुछ नहीं कहा है जबकि उनके ट्विटर पर मंदिर की भव्यता और ऐतिहासिकता पर एक दर्जन से अधिक टीपें शाया हुई हैं.  

भारत ने जब एक नये आज़ाद मुल्क के तौर पर अपनी यात्रा शुरू की थी तब दुनिया में उपनिवेशवाद, अन्याय, युद्ध और ख़ास तौर पर परमाणु हथियारों से मुक्ति की आकांक्षा इस देश के अंतर्राष्ट्रीय एजेंडे में सबसे ऊपर नज़र आती थी. तब नेहरू ने आइन्स्टीन के नेतृत्व में हुई उन वैज्ञानिकों की शांतिवादी पहल को समर्थन दिया था जो इन बमों को बनाने वाले मैनहट्टन प्रोजेक्ट से जुड़े थे और हिरोशिमा के विध्वंस ने जिनके ज़मीर को झकझोर दिया था. परमाणु हथियारों की अमानवीयता देखकर उपजा नैतिक शॉक अंतर्राष्ट्रीय राजनीति के उस समूचे ताने-बाने के केंद्र में था जो जिसने दूसरे विश्व युद्ध के बाद से दुनिया को कायम रखा है– संयुक्त राष्ट्र संघ का सबसे पहला प्रस्ताव ही अणुबमों के खिलाफ़ जारी हुआ था. भारत अपने शुरुआती दशकों में इस नैतिक मुहिम का अगुवा था.

इस साल न सिर्फ हिरोशिमा-नागासाकी के हिबाकुशा बुज़ुर्ग हमसे सवाल कर रहे हैं, बल्कि दुनिया भर के वैज्ञानिकों ने भी परमाणु खतरे का अलार्म ज़ोर से दबाया है. ‘बुलेटिन ऑफ एटॉमिक साइंटिस्ट्स’ द्वारा 1947 में स्थापित ‘क़यामत की घड़ी’ (Doomsday Clock) इस साल मध्यरात्रि के सबसे करीब है– इसके हिसाब से महाप्रलय से हम सिर्फ 100 सेकंड की दूरी पर हैं. इस घड़ी की सुइयों को विशेषज्ञों की एक अंतर्राष्ट्रीय टीम हर साल दुनिया में मौजूद परमाणु खतरे का आकलन करने के बाद ऐडजस्ट करती है और इसके माध्यम से सन्देश देती है. वैज्ञानिक और नैतिक दोनों तरह की सलाहियत रखने वाला यह समूह शीतयुद्ध के उफान के दौर में भी इतना आशंकित नहीं था और इसके ठोस कारण उन्होंने बतलाए हैं:

पहले जॉर्ज बुश और अब डोनाल्ड ट्रंप के एकतरफा रुख के कारण अमेरिका, रूस और अन्य परमाणु शक्ति-संपन्न देशों के बीच ज़्यादातर ऐसे समझौते रद्द हो चुके हैं या रिन्यू नहीं किये जा रहे हैं जिनकी वजह से हथियारों की होड़ पर नियंत्रण रहता था और ये देश अपनी सामरिक तैनाती की जानकारी एक-दूसरे से साझा करते थे जिससे परमाणु जखीरों के गलतफहमी में इस्तेमाल होने की संभावना कम होती थी. पिछले कुछ साल में दुनिया के हर परमाणु अस्त्रागार में खर्चीले और खतरनाक अपग्रेड हुए हैं, परमाणु हथियारों का आकार छोटा कर इन्हें युद्धभूमि के साधारण असलहों (battlefield nukes) के रूप में अपनाने के पागलपन ने जोर पकड़ा है, नये किस्म की घातक मिसाइलों का परीक्षण हुआ है और चौतरफा जारी डिजिटल हमलों ने इन हथियारों के अनधिकृत उपयोग को आसान बना दिया है. पिछले कुछ सालों से लगातार इस Doomsday Statement में भारत को भी लेकर चिंता ज़ाहिर की जा रही है. यह मोदी काल में दक्षिणपंथी गोलबंदी के लिए ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ जैसी गैर-जिम्मेदारी और प्रधानमंत्री के ‘परमाणु बम हमने दीवाली के लिए नहीं बनाये’ जैसे ताली-बजाऊ भाषणों का नतीजा है. 1998 के पोखरण परीक्षणों के बाद से जारी ‘नो फर्स्ट यूज़’ की नीति को बदलना भाजपा के हालिया चुनावी घोषणापत्र का हिस्सा रहा है.

अमेरिकी सैन्य अधिष्ठान और मीडिया अपने एजेंडे के तहत भले ही दिन-रात उत्तर कोरिया और ईरान को सबसे बड़ा परमाणु खतरा बतायें, परमाणु हथियारों का सबसे अधिक जोखिम दक्षिण एशिया में है जहां दुनिया की सबसे ज़्यादा और सबसे सघन आबादी इन विध्वंसक बमों के साये तले जी रही है. परमाणु अस्त्रों से लैस दो ऐसे पड़ोसी मुल्क सिर्फ भारत और पाकिस्तान हैं जिनके बीच दशकों से कभी गरम तो कभी नरम युद्ध जारी है. जहां हिरोशिमा में सबसे हालिया आकलनों के अनुसार कुल दो लाख के आस-पास मौतें हुई थीं, वहीं एक दीर्घकालिक शोध के मुताबिक़ दक्षिण एशिया में अगर परमाणु युद्ध हुआ तो बीस लाख से अधिक जानें जा सकती हैं और धमाकों व रेडियेशन से पैदा मौसमी बदलाव के कारण लम्बे समय तक भयावह अकाल कायम रहेगा.

नोम चॉम्स्की जैसे विद्वानों ने भी परमाणु बमों और जलवायु परिवर्तन को एक साथ जोड़कर देखने पर जोर दिया है. आज के परमाणु हथियार हिरोशिमा में इस्तेमाल होने वाले बमों की तुलना में सैकड़ों गुना अधिक घातक हैं और किसी भी चाहे-अनचाहे विस्फोट से वायुमंडल में ऐसे प्रभावों की कड़ी ट्रिगर हो सकती है जिस पर हमारा कोई नियंत्रण न रहेगा. हिरोशिमा के विस्फोट से एक महीना पहले अमेरिका ने न्यू मेक्सिको के रेगिस्तान में ‘ट्रिनिटी’ कोड-नाम से जो परमाणु परीक्षण किये थे, उन्हें अब जलवायु वैज्ञानिक और भूगर्भशास्त्री ‘ऐन्थ्रोपोसीन’ युग की शुरुआत मानते हैं. मनुष्य ने युरेनियम का नाभिक तोड़कर प्लूटोनियम नाम का एक नया तत्व ईजाद किया जो प्रकृति में नहीं पाया जाता और इससे निकला रेडियेशन जो लाखों साल तक घातक बना रहेगा, उसको धरती के खगोलीय समय के पैमाने पर इंसानी हस्ताक्षर माना जा रहा है.

इन सामरिक और पर्यावरणीय खतरों के साथ-साथ आज उन व्यापक प्रभावों की चर्चा भी हो रही है जो हिरोशिमा से शुरू हुए परमाणु युग ने समाज, संस्कृति और राजनीति में पैदा किये. मैनहट्टन प्रोजेक्ट इंसानी इतिहास का सबसे बड़ा सामूहिक वैज्ञानिक उपक्रम था और इसके साथ ही विज्ञान व अनुसंधान को राष्ट्रीयता के सींखचों में कैद करने का सिलसिला आरम्भ हुआ. ज्ञान को राष्ट्र-राज्य की सेवा में जोत देने का एक फल यह हुआ कि मानवीय इतिहास में निरंतर चले आ रहे ज्ञान के अबाध प्रवाह पर कंटीली बाड़ उग आयी. वैज्ञानिकों की यह घेरेबंदी जल्दी ही साहित्य और कला की हदबंदियों तक भी पहुँची. दूसरी तरफ परमाणु और अन्य सैन्य तकनीकों की अतिशय गोपनीयता के कारण सरकारी विशेषज्ञों के ऐसे दायरे विकसित हुए जिन्होंने राजनीति से जुड़े हर निर्णय पर एकाधिकार कर लिया और इस तरह लोकतंत्र परमाणु युग में जनता के चौराहे से निकलकर सत्तातंत्र के नए पुरोहितों के दायरे में सिमट गया.

अमेरिका के सन्दर्भ में मिलिटरी-इंडस्ट्रियल कॉम्प्लेक्स के हाथों लोकतांत्रिक व्यवस्था के गिरवी हो जाने पर ऐसे दर्जनों शोध और विमर्श हुए हैं लेकिन भारत में पोखरण के बाद उग आये उन दर्जन-भर थिंक टैंकों पर घोर चुप्पी है जो अब राष्ट्रीय सुरक्षा का एजेंडा और राष्ट्रहित की परिभाषा तय करते हैं. भारत के लगभग सभी न्यूजरूमों और अखबारों ने अब अंतर्राष्ट्रीय राजनीति और रक्षा से जुड़े मामलों के लिए अपने रिसर्चर और रिपोर्टर रखना बंद कर दिये हैं और इन मुद्दों पर ओपीनियन-मेकिंग इन कोट-टाई धारी जंगखोरों के हवाले कर दिया है जो अमेरिका और इजरायल की मिलि‍टरी कंपनियों या रूढ़िवादी थैलीशाहों के पैसे से चलने वाले विशेषज्ञ समूहों के कारिंदे हैं. लम्बी मूछों वाले रिटायर्ड लेकिन हमेशा तमतमाये चेहरों की चमक भी इन्हीं संस्थानों की चिकनाई से आती है.

पोखरण धमाकों के बाद शुरू इस सिलसिले ने परमाणु डील के दौरान निर्णायक शक्ल इख्तियार की, जब एक तरफ राजनीतिक फैसलों की बहसें एक्सपर्टों की जान-बूझ कर उलझाऊ बनायी गयी भाषा में सिमटती चली गईं और दूसरी तरफ परमाणु मुद्दे पर ही वाम दलों के कांग्रेस से नाता तोड़ने के बाद राजनीति तेजी से दक्षिण की तरफ लुढ़क गयी. देश की राजधानी में आरएसएस द्वारा संचालित विवेकानंद फॉउंडेशन और रिलायंस के पैसे से चलने वाले ऑब्ज़र्वर रिसर्च फॉउंडेशन, जिनकी आवाज़ आज रक्षानीति से लेकर तकनीक और आर्थिक मुद्दों पर मंत्रालयों के अपने रिसर्च विंग से ज़्यादा सुनी जाती हैं, भी इसी चौकड़ी का देसी संस्करण हैं. रणनीतियों और योजनाओं पर विचार विमर्श को एक संकुचित दायरे में कैद करना परमाणु युग के केंद्र में रहा है, जो अब हर क्षेत्र में लोकतंत्र का दायरा निर्धारित करने का मॉडल बन चुका है.

भले ही भारत में परमाणु हथियारों को इस तर्क से जायज़ ठहराया जाता रहे कि इनसे देश की सुरक्षा की गारंटी होती है, लेकिन असल में पोखरण के बाद से देश असुरक्षा के अंतहीन भंवर में छलांग लगा चुका है और पिछले बीस साल में अधिकतर दुनिया में सबसे ज़्यादा हथियार खरीदने वाले देशों की लिस्ट में हिन्दुस्तान का नाम सबसे ऊपर रहा है. मोदी राज में तो रक्षा के क्षेत्र को सौ प्रतिशत विदेशी पूंजी के लिए खोल दिया गया है, लेकिन मनमोहन सिंह की सरकार में भी पारंपरिक हथियारों और सैन्य तैयारी पर खर्चे हर साल बढ़ाये ही जाते थे. भारत जैसे देश के लिए परमाणु पनडुब्बियाँ बनाना कायदे की सोच रखने वाले सामरिक विशेषज्ञों को भी वैसे ही असंगत लगता है जैसे शीतयुद्ध के शीर्ष पर अमेरिका और रूस का पूरी दुनिया को सैंकड़ों बार ख़त्म करने की तैयारी का पागलपन. लेकिन परमाणु होड़ का अपना गतिशास्त्र होता है, और जो बात स्वस्थ इंसान को भयावह सनक दिखे वह इन हथियारों के विशेषज्ञ पंडों को अजीब नहीं लगती.

दिक्कत ये है कि भारत में परमाणु और सैन्य सेक्टरों को सवालों से ऊपर मानने वाले लोगों का दायरा संघ-भाजपा से कहीं बड़ा है. राष्ट्रीय सुरक्षा, सैन्य खर्च और सेना को असीमित कानूनी छूट देने पर आम सहमति है जो लिबरल समूहों में भी पसरी हुई है. लेकिन भारतीय राष्ट्र-राज्य की इस अबाध बढ़ती मस्‍कुलरिटी से ही अंधराष्ट्रवाद और बहुसंख्यकवाद की वैचारिकी को पिछले बीस साल में अप्रश्नेय आधार मिला है. इस अर्थ में, अयोध्या के तार सिर्फ काशी-मथुरा से नहीं पोखरण से भी जुड़े हैं. अयोध्या नगरी किसी ज़माने में बौद्ध तीर्थ हुआ करती थी जहां कोई युद्ध वर्जित था. अब अयोध्या हिरोशिमा की बरसी पर हिन्दुस्तान की चुप्पी का बायस है.


लेखक DiaNuke.org  के सम्पादक हैं


About कुमार सुन्‍दरम

View all posts by कुमार सुन्‍दरम →

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *