अमरीका 4 जुलाई को अपना “बर्थडे” यानी ब्रिटिश हुकूमत से स्वाधीनता दिवस मनाता है। इसी दिन सन 1776 में अमरीका ने एक क्रांतिकारी युद्ध के बाद ब्रिटेन का अंकुश अपने ऊपर से हटा दिया था और अपने आप को आज़ाद घोषित किया था, लेकिन अश्वेत लोगों के लिए- और आदिवासी जातियों के लिए- इस आज़ादी का कोई ख़ास मायने नहीं था। आज़ादी के बाद जो संविधान अमरीका के नेताओं ने रचा उसमें एक आज़ाद नागरिक की परिभाषा एक जायदाद-वाले श्वेत पुरुष तक सीमित थी – अमरीका में श्वेत महिलाओं को 1929 में वोट डालने का हक़ मिला।
औपचारिक और वैधानिक रूप से अमरीका में उनके संविधान के 13वें संशोधन के तहत सन 1865 में दासता को ख़तम किया गया था लेकिन उससे अश्वेत वर्ग के ज़मीनी हालात पर कोई ख़ास असर नहीं पड़ा था।
फ्रेडेरिक डगलस एक अश्वेत दासता-उन्मूलनकारी थे (abolitionist) और एक आज़ाद अश्वेत भी थे। वे मैसाचुसेट्स राज्य के न्यू बेडफ़ोर्ड नगर में रहते थे। वे दासता में जन्मे ज़रूर थे पर करीब 20 साल की उम्र में, सन 1838 में, उन्होंने अपने मालिक के एस्टेट से पलायन किया था। न्यू बेडफ़ोर्ड में आज़ाद अश्वेतों का एक अच्छा ख़ासा बड़ा समुदाय था। डगलस वहां पहुँच कर उत्साह के साथ दासता-उन्मूलन के कार्य में लग गए। वे एक प्रतिभाशाली लेखक और वक्ता थे और शीघ्र ही वहां की एन्टी-स्लेवरी सोसाइटी के सदस्य और प्रतिनिधि बन गए। वे जगह-जगह जाते और दासता के हालात का वर्णन करते।
1852 में उन्होंने रॉचेस्टर शहर में अमरीका के स्वाधीनता दिवस पर एक वक्तव्य रखा जो बहुत प्रचलित हुआ। उसका पैनापन, उसकी तीव्रता आज तक लोगों को प्रेरित करती है। एक मंत्र की तरह आज भी उस स्पीच का अमरीका में कई जगहों पर पाठ होता है, खासकर जुलाई के महीने में।
उस भाषण का शीर्षक था ‘व्हाट टू द स्लेव इस फोर्थ ऑफ़ जुलाई?’ – ‘एक अश्वेत दास के लिए 4th जुलाई क्या मायने रखती है?’
उस वक्तव्य में उन्होंने देश के श्वेत श्रोताओं को सम्बोधित करते हुए कहा था- “यह जुलाई की चौथी तारीख तुम्हारी है, मेरी नहीं। आप हर्ष मना सकते हैं, मेरे लिए विलाप अनिवार्य है।”
डगलस ने हज़ारों दासों की बेड़ियों की बात रखी जो आज़ादी के बावजूद भी आज़ाद नहीं हो पाए थे (अलग-अलग राज्यों ने अपने-अपने अवरोधक कानून बना दिए थे), और उनकी यातनाओं का उल्लेख किया। उनके उत्पीड़न के यथार्थ में अमरीका को उन्होंने मिथ्यावादी और खोखला पाया। दासता अमरीका की बहुचर्चित और अद्वितीय मानी जाने वाली आज़ादी पर एक धब्बे समान थी।
उन्होंने उदहारण दिया श्वेत-अश्वेतों के बीच की भीषण असमानताओं का – अमरीका के वर्जिनिया राज्य में 72 ऐसे जुर्म थे जिनमें एक अश्वेत दोषी को मौत की सज़ा दी जा सकती थी पर एक श्वेत दोषी उनमें से केवल 2 ही जुर्मों के लिए मौत की सजा पा सकता था।
डगलस के उस वक्तव्य के एक और अत्यंत ही मार्मिक और शक्तिशाली अंश में उन्होंने सूचीबद्ध तरीके से इस बात का वर्णन किया कि अश्वेत समुदाय के लोग हर प्रकार का काम करते थे – खेती-बाड़ी, भवन-निर्माण, लोहे-पीतल की कारीगरी, मुंशीगिरी, व्यापार-व्यवसाय, डॉक्टरी, इत्यादि। फिर भी, हरेक हुनर, हरेक उद्यम, हरेक आजीविका की राह पर दुरुस्त रूप से क्रियाशील और स्थापित होने के बावजूद, इस मेहनतकश कौम को तिरस्कार और नफरत की नज़रों से देखा जाता था – उन्हें उनकी मनुष्यता बार-बार साबित करनी पड़ती थी।
डगलस द्वारा यह कटु आलोचना उनके अनुभव और गंभीर अवलोकन पर आधारित थी। अमरीकी आज़ादी- और उसके जश्न- से उनकी निराशा बहुत गहरी थी।
“इस देश का चरित्र मुझे शायद ही ऐसा स्याह दिखा हो जैसा कि 4 जुलाई को दीखता है,” उन्होंने अत्यंत मायूसी भरे और तिक्त स्वर में कहा था।
1972 में भारत में दलित पैंथर के राजा ढाले ने पुणे की साधना पत्रिका में एक लेख लिखा जिसका शीर्षक था, “काला स्वतंत्रता दिवस”। 1972 में भारत की स्वाधीनता की 25वीं वर्षगाँठ थी। ढाले ने अपने लेख में आज़ादी के सन्दर्भ में कई बुनियादी सवाल उठाये, डगलस की भाँति। उनके लेख का तर्क यह था कि दलितों के साथ उत्पीड़न सदियों से चल रहा है- तो उनके लिए इस आज़ादी का क्या मतलब? उनके लेख की पृष्ठभूमि में एक “एलाय पेरुमल रिपोर्ट” थी जिसमें दलितों पर देश भर में अत्याचार का विस्तृत ब्यौरा था। उस रिपोर्ट के उपरांत अम्बेडकरवादी युवक और दलित पैंथर बौखलाए हुए थे।
महाराष्ट्र में, जहां दलित पैंथर्स का जन्म हुआ था और जहां उनकी कई शाखाएं थीं, वहां दलितों पर अत्याचार जारी थे। पैंथर्स अलग-अलग जगह पहुँच कर कोई न कोई कार्यवाही करने की कोशिश करते जिससे पीड़ितों को कोई मदद पहुंचे। हाल ही में उन्हें एक गाँव में एक दलित-बौद्ध स्त्री के तथाकथित उच्च जातियों के सदस्यों द्वारा निर्वस्त्रीकरण की खबर मिली थी – और फिर यह मालूम पड़ा था की अंत तक उन अपराधियों पर केवल 50 रुपये का जुर्माना हुआ था। ढाले ने अपने लेख में यह बात उठायी कि तिरंगे के अपमान के लिए – वह तिरंगा जो एक कपड़ा मात्र है – 300 रुपये का जुर्माना है लेकिन एक बौद्ध औरत की लज्जा के वस्त्र के अपमान का दण्ड केवल 50 रुपये है – यह किस आज़ाद देश में नियम हो सकता है? ढाले का तीव्र आलोचनात्मक लेख एक सर्वव्यापी भावना की ही अभिव्यक्ति थी।
वर्त्तमान में भी हम देख रहे हैं कि डगलस और ढाले के प्रश्न कितने जीवंत और ज्वलंत हैं। अभी हाल ही में हमने देखा कि अमरीका में अश्वेत वर्ग के लोगों की किस प्रकार से दिन-दहाड़े, छोटी-छोटी बातों पर हत्याएं होती हैं। जॉर्ज फ्लॉयड की मिसाल हम सब के मानस-पटल पर अंकित है लेकिन पिछले दो-तीन महीने में ऐसे और कई केस सामने आये जिनमे निहत्थे, निर्दोष अश्वेतों की जानें गयीं आम जीवन-यापन की प्रक्रिया में।
भारत में दलितों पर अत्याचार की खबरें प्राय लगातार आती रहती हैं- जून में गुजरात के बरोडा शहर में एक दलित युवक की पिटाई, जून में ही उत्तर प्रदेश के अमरोहा ज़िले में एक दलित युवक की हत्या स्थानीय मंदिर में पूजा करने के लिए, इत्यादि!
संविधान में डॉ. अम्बेडकर द्वारा अल्पसंख्यकों के लिए कुछ संवैधानिक गारंटी रखने के बावजूद आज भी दलितों को और नागरिकों की तरह उनका सामान्य हक़ प्राप्य नहीं है। अमरीका में भी इतने साल की तथाकथित आज़ादी के बावजूद अश्वेत वर्ग को “राइट टू लाइफ” – जीवन के अधिकार – जैसे मौलिक हक़ का कोई आश्वासन नहीं है। अश्वेत माँएं हमेशा घबराई रहती हैं जब उनके वयस्क बच्चे घर से बाहर जाते हैं- पता नहीं कहाँ रोक लिए जायेंगे; किस संदेह का शिकार बनेंगे।
डॉ. अम्बेडकर ने डगलस और ढाले से मिलती-जुलती ही बात कही थी भारतीय स्वाधीनता से पहले, आने वाले स्वराज के बारे में, अपनी कृति “स्टेट्स एंड माइनॉरिटीज” में – “इस पृष्ठभूमि के सन्दर्भ में [यानी, उस समय के भेद-भाव को ध्यान रखते हुए], स्वराज का मतलब अछूतों के लिए क्या हो सकता है? इसका केवल एक ही मतलब हो सकता है, वह यह कि जबकि आज हिंदुओं के हाथ में केवल प्रशासन है, स्वराज आने से विधानसभा और सरकार भी हिंदुओं के हाथों में होगी। ऐसा होने से स्वाभाविक है कि अछूतों के कष्ट बढ़ेंगे।”
डगलस, डॉ. आंबेडकर और राजा ढाले का अनुमान और आकलन सटीक था – आज़ादी के बारे में, जहां अल्पसंख्यकों का सवाल था।
आजकल बहुत सारे लेखक दुनिया भर में अपने विचार प्रकाशित कर रहे हैं कि कोरोना महामारी के बाद की दुनिया कैसी होगी- और कई आदर्श उदाहरणों का चित्रण किया जा रहा है। कोई ऑर्गेनिक खेतीबाड़ी वाले ग्राम-स्वराज के स्वप्न दिखा रहा है, तो कोई नेकी-वाले पूँजीवाद के। शायद यह सभी लोग आज़ादी को एक सिद्ध और प्रमाणित सत्य मानते हैं, लेकिन जिनके लिए आज़ादी एक खोखला शब्द-मात्र है उनके लिए ऐसे सपनों का कोई मायने नहीं है। उन सब हाशिये के लोगों के लिए एक समानता-युक्त समाज की संरचना ही एक आज़ाद-परिवेश का लक्षण होगा।
उमंग कुमार दिल्ली स्थित लेखक हैं
प्रिय उमंगजी
फ्रेडरिक डगलस को याद करने और इसी बहाने उनके विचारों की प्रासंगिकता पर बात करने के लिए बधाई
सुभाष