राजनीति का आम सहजबोध यह है कि सत्ता की निरंकुशता लोकतंत्र का निषेध है। लोकतंत्र राजनीतिक सत्ता का गठन तो करता है, लेकिन उसे निरंकुश नहीं होने देता। यदि किसी लोकतांत्रिक व्यवस्था के अंतर्गत निरंकुश सत्ता का उद्भव होता है तो उसे लोकतंत्र की दुर्बलता, उसके विकार या उसमें किसी बाहरी अलोकतांत्रिक शक्ति के हस्तक्षेप के रूप में देखा जाता है। यदि लोकतंत्र का अर्थ यह है कि सत्ता के स्रोत लोक में स्थित हैं तो यह स्वयंसिद्ध है कि लोकतांत्रिक सत्ता निरंकुश नहीं हो सकती।
इसी तरह राजनीति का सहजबोध यह भी है कि सत्ता की निरंकुशता प्रतिरोध को जन्म देती है और प्रतिरोध की जड़ें लोक में स्थित होती हैं। निरंकुशता यदि लोकतंत्र का निषेध है तो यह भी स्वयंसिद्ध है कि लोक या जन ही प्रतिरोध के मूल आधार और उसके प्रमुख संसाधन हैं। यह दूसरी मान्यता पहली के साथ जुड़ी हुई है। यदि पहली मान्यता टिकती है तो दूसरी की सत्यता भी साबित होती है। यदि पहली संदेह के घेरे में आती है तो दूसरी के स्वयंसिद्ध होने पर भी प्रश्न खड़े होते हैं।
और, प्रश्न तो खड़े होते हैं। वास्तविकता की प्रकृति ही ऐसी होती है कि वह मान्यताओं की परवाह नहीं करती – बहुप्रचलित और स्वयंसिद्ध प्रतीत होने वाली मान्यताओं की भी नहीं। दूसरी तरफ़, मान्यताओं की – ख़ास तौर पर बहुप्रचलित मान्यताओं की – बनावट और उनकी ज़मीन ऐसी होती है कि वास्तविकताओं के उलट होने के बावजूद वे चलन में बनी रहती हैं। ऐसी स्थिति में पहले तो यह देखना होता है कि वास्तविकता क्या है और संबंधित मान्यताओं से उसकी संगति बैठती है या नहीं। फिर यह अलग से देखना होता है कि मान्यताएं जब ग़लत होती हैं, तब भी उनके चलते रहने के कारण कहां पर स्थित हैं। एक तरह से यह सहजबोध की जांच-पड़ताल का समय होता है। और कभी-कभी नये सहजबोध के निर्माण का समय भी होता है।
भारत की आज की हक़ीक़त यह तो है ही कि मौजूदा सरकार के अधीन राज्य और राजनीतिक सत्ता निरंकुश हो चले हैं। संवैधानिक, संस्थागत तथा लोकतांत्रिक नियमों, नियंत्रणों और परंपराओं को रौंदा जा रहा है और व्यवस्था तथा समाज, दोनों क्षेत्रों में मनमानी की जा रही है। कश्मीर से कन्याकुमारी तक, असम से गुजरात तक, संसद से और भीमा कोरेगांव से तीस हज़ारी तक और तिहाड़ तक नंगी निरंकुशता के उदाहरण सभी के सामने हैं। लेकिन क्या सभी को यह सब दिखायी दे रहा है?
भारत की आज की हक़ीक़त का अधिक परेशान करने वाला पहलू यह है कि मौजूदा सत्ता को ही नहीं, उसकी निरंकुशता को भी काफ़ी हद तक जन-समर्थन प्राप्त है। निरंकुशता और जन-समर्थन विरोधाभासी लग सकते हैं; लेकिन आभास से वास्तविकता का निषेध नहीं हो जाता। बेशक यह समर्थन झूठ बोलकर हासिल किया जाता है। झूठ के राजनीतिक इस्तेमाल की परिघटना से अनभिज्ञ तो शायद ही कोई हो। लेकिन इसके बावजूद, झूठ का राजनीतिक इस्तेमाल व्यापक है। हिटलर के प्रचार-प्रमुख गोयबेल्स के हवाले से यह सूक्त अकसर उद्धृत होता है कि सौ बार दुहराने से झूठ सच हो जाता है; लेकिन यह सरलीकरण है। हर झूठ को दुहराकर सच नहीं बनाया जा सकता। गोयबेल्स के सूक्त के लागू होने में लोक मानस की निर्मिति एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है। फ़ासीवादियों की प्रचार रणनीति काफ़ी सोच-समझकर ऐसे झूठ चुनती है जिन्हें दुहराकर सच बनाया जा सके।
इस तर्क-शृंखला पर ग़ौर कीजिए: ‘हिंदू ख़तरे में है – यह ख़तरा मुसलमान और पाकिस्तान से है – इस ख़तरे से निपटना केवल ‘हिंदू राष्ट्रवाद’ के लिए संभव है – अतः ‘हिंदू राष्ट्रवाद’ ही आज का असली और ज़रूरी राष्ट्रवाद है – राष्ट्रवाद ही आज की राजनीति का सर्वोच्च मूल्य और पवित्र सिद्धांत होना चाहिए – इस तर्क-शृंखला से असहमति राष्ट्रद्रोह है – राष्ट्रद्रोही का कोई नागरिक अधिकार या मानवाधिकार नहीं होता।’
इस तर्क-शृंखला की बनावट हिंदुत्ववादी नेताओं के दिमाग़ का स्वतंत्र उत्पाद नहीं है। इसका चुनाव सोच-समझकर किया गया है। राजनीतिक रणनीति के रूप में इसकी सफलता केवल नेतृत्व की कुशलता या चालबाज़ी की वजह से नहीं है। इसकी सफलता के पीछे लोकमानस की बनावट या कम से कम उस बनावट की कुछ तहों की प्रमुख भूमिका है। झूठ को सच बनाने की कीमियागरी में इतिहास, समाज, धर्म, जाति और पहचान के तत्त्व समूची राजनीतिक-रासायनिक क्रिया के अनिवार्य अंग बनते हैं।
मूल प्रसंग, बहरहाल, यह है कि मौजूदा सत्ता को लोकतांत्रिक वैधता हासिल है और इसकी निरंकुशता को जन-समर्थन प्राप्त है। इसे एक दूसरे प्रकार से भी देखा जा सकता है। जन-समर्थित यह निरंकुशता उन राजनीतिक शक्तियों या व्यक्तियों को अधिक आसानी से रौंद सकती है जिन्हें जन-समर्थन उपलब्ध नहीं है या जिनके जन-समर्थन में गिरावट आयी है। विपक्ष की पार्टियों को तब आसानी से प्रताड़ित किया जा सकता है जब उनका जनाधार सिकुड़ रहा हो। उन नेताओं को ज़्यादा आसानी से जेल में डाला जा सकता है जिनकी लोकप्रियता कम हो। और उन आंदोलनों को ज़्यादा बेरहमी से कुचला जा सकता है तथा उनके कार्यकर्ताओं के नागरिक व मानव अधिकारों की बेहिचक धज्जियां उड़ायी जा सकती हैं जो आतंकवादी, हिंसक, अतिपंथी या राष्ट्रद्रोही क़रार दिये जाने के कारण राजनीतिक, सामाजिक तथा वैचारिक अलगाव में डाल दिये गये हैं। निरंकुशता के जन-समर्थन का ही यह दूसरा पहलू है। जिसे जन-समर्थन हासिल नहीं है, उसके प्रति आसानी से निरंकुश हुआ जा सकता है।
निरंकुशता की लोक-स्वीकार्यता और उसके लोक-समर्थन का यह भारतीय उदाहरण अप्रत्याशित नहीं है, न ही इतिहास में पहली बार ऐसा हो रहा है। समूचा आधुनिक युग – जिसमें राजनीतिक सत्ता के लोकतांत्रिक गठन की परिपाटी चली है – ऐसे उदाहरणों से भरा पड़ा है। हिटलर का उदाहरण घिस चुका है, लेकिन उसकी प्रासंगिकता ख़त्म नहीं हुई है। हिटलर भी चुनकर ही सत्ता में आया था, भले ही उसे शुरू में ही पूर्ण बहुमत न मिला हो और सत्ता पर क़ाबिज़ होने के लिए उसे जर्मनी के तत्कालीन राष्ट्रपति की अनुकंपा या मूर्खता की आवश्यकता पड़ी हो। लेकिन जल्दी ही उसने अपने आप को एक अधिनायक के रूप में स्थापित कर लिया था। अधिक महत्त्वपूर्ण यह है कि उसके अधिनायकत्व को जर्मनी की जनता का व्यापक समर्थन हासिल होता गया और जन-समर्थन बढ़ने के साथ हिटलर की और नात्सी शासन की निरंकुशता भी बढ़ती चली गयी। मार्क्सवादी मनोविज्ञानी और सिद्धांतकार विल्हेल्म राइख़ ने कहीं पर कहा था कि हिटलर ने जर्मनी की जनता को ठगा नहीं, जर्मनी की जनता हिटलर के लिए तैयार थी। हिटलर की पूजा तत्कालीन जर्मनी के लिए अस्वाभाविक नहीं थी।
निरंकुशता को जन-समर्थन मिलता है तो उसका दुष्प्रभाव लोकतंत्र की वैधानिक और संस्थागत संरचना पर भी पड़ता है। लोकतंत्र में जन-समर्थन को एकमात्र या अंतिम कसौटी नहीं होना चाहिए। इतिहास और सभ्यता के लंबे दौर में जो नैतिक, राजनीतिक और मानवीय मूल्य स्थापित होते हैं, उनकी भी निर्णायक भूमिका बननी चाहिए। इसीलिए हर लोकतांत्रिक व्यवस्था को संविधान की आवश्यकता पड़ती है जिसमें ऐसे मूल्यों को दर्ज किया जाता है। संविधान की संरचना को संविधान से ही संरक्षण प्राप्त होता है। यही कारण है कि अधिक से अधिक लोकतांत्रिक होने का दावा करने वाले लोकतंत्र में भी हर मसले पर जनमत संग्रह नहीं कराया जाता। सार्वभौमिक या बुनियादी माने जाने वाले मूल्यों को संविधान अनुल्लंघ्य होने का दर्जा देता है ताकि चुनावी प्रतियोगिता आसानी से उन्हें क्षति न पहुंचा सके।
लेकिन इस प्रकार की क्षति का ख़तरा भी लोकतंत्र का अभिन्न अंग है। चुनावी प्रतियोगिता वांछनीय और अनुल्लंघनीय मूल्यों पर भी ख़तरे की स्थिति उत्पन्न करती है – ख़ासकर तब जब ऐसी प्रतियोगिता तीखी हो या व्यवस्था स्वयं संकट के दौर से गुज़र रही हो। दुनिया भर में दक्षिणपंथी पॉपुलिज़्म के उभार के पीछे व्यवस्था का संकट भी है और चुनावी प्रतियोगिता का तीखा होना भी। दक्षिणपंथी पॉपुलिज़्म फ़ासीवादी अधिनायकवाद की केंद्रीय रणनीति का हिस्सा है। ऐसे समय में लोकतंत्र के मूल्यों के साथ हिंसा लोकतांत्रिक प्रक्रिया के द्वारा ही की जाती है। अच्छे क़ानूनों को कमज़ोर किया जाता है और ख़राब क़ानून बनाये जाते हैं। वैधानिक और संस्थागत ढांचों को कमज़ोर किया जाता है और उन्हें अधिनायक की राजनीतिक परियोजना के अनुरूप तोड़ा-मरोड़ा जाता है। और इस सब कुछ को जन-समर्थन हासिल होता है। जैसा कि मार्टिन लूथर किंग जूनियर ने एक बार कहा था, हिटलर ने जो कुछ भी किया, वह ग़ैरक़ानूनी नहीं था। जन-समर्थन हासिल हो तो जनता के ही विरुद्ध क़ानून बनाये जा सकते हैं। और लोकतंत्र के आधुनिक युग में ऐसे उदाहरण अनेक हैं जब जनता ने अपने ही हितों के विरुद्ध वोट दिया है। अपने आराध्य अधिनायक की निरंकुशता को जनता समर्थन ही नहीं देती, उसके लिए अपना और दूसरों का ख़ून बहाने को भी तैयार रहती है।
सत्ता की निरंकुशता की लोकस्वीकार्यता या उसके लोक-समर्थित होने के उदाहरणों का अर्थ यह क़तई नहीं लगाया जाना चाहिए कि लोक हमेशा या केवल निरंकुशता का ही समर्थन करता है। इन उदाहरणों का तात्पर्य यह है कि इतिहास में ऐसे दौर या ऐसे मौके़ भी आते हैं जब सत्ता की निरंकुशता को लोक-समर्थन भी मिलता है। इस तथ्य को रेखांकित करने का अर्थ यह नहीं कि लोक द्वारा निरंकुशता के विरोध और प्रतिरोध के उदाहरण इतिहास में नहीं हैं। बल्कि सच तो यह है कि निरंकुश सत्ता के विरुद्ध जनविद्रोह हुए हैं, जन-क्रांतियां हुई हैं। यहां बहस यह नहीं है कि जनता फ़ासीवादी अधिनायकों का समर्थन करती है या प्रगतिशीलों और क्रांतिकारियों का समर्थन करती है। यहां इस तथ्य पर उंगली रखना है कि विशेष परिस्थितियों में ही सही, जनता निरंकुश अधिनायकों का भी समर्थन कर सकती है। समझना यह है कि निरंकुशता के लोक-समर्थन की परिस्थितियां कैसे उत्पन्न होती हैं। सोचना यह है कि ऐसी लोकसमर्थित और लोकतांत्रिक निरंकुशता का प्रतिरोध कैसे किया जा सकता है। और इस प्रतिरोध को और भी बड़ी ऐतिहासिक लड़ाई का हिस्सा कैसे बनाया जा सकता है।
यदि आप किसी भी जगह पर, किसी भी सभा में, किसी भी जन-समूह को संबोधित करते हुए यह कहें कि जनता के असल मुद्दे ग़रीबी, रोज़गार, शिक्षा, स्वास्थ्य, आर्थिक प्रगति और समृद्धि इत्यादि हैं, न कि मंदिर-मस्जिद, हिंदू-मुसलमान या भारत-पाकिस्तान, तो ऐसा नहीं है कि कोई आपको ग़लत कहेगा। ‘पोलिटिकली करेक्ट’ होना केवल राजनीतिज्ञों को ही नहीं आता, जनता को भी आता है। सही बात जानते-समझते हुए भी जब मौक़ा आयेगा तो काफ़ी हद तक वोट हिंदू-मुसलमान और भारत-पाकिस्तान के आधार पर ही पड़ेगा, पहचानों और सामाजिक-सांस्कृतिक विभाजनों के आधार पर ही पड़ेगा। कम से कम हाल के समय में भारत की चुनावी राजनीति इसी रास्ते चली है। इसके क्या कारण हैं?
गहन चुनावी प्रतियोगिता भारतीय राजनीति में बहुत हाल की परिघटना है। आज़ादी के बाद के पहले दो दशक कांग्रेस पार्टी के वर्चस्व के दशक थे। चुनाव होते थे लेकिन गहन चुनावी प्रतियोगिता नहीं थी। उसके बाद के दो दशक कांग्रेस के उतार-चढ़ाव के, लेकिन उत्तरोत्तर उसके वर्चस्व के घटते जाने के दशक थे। गहन चुनावी प्रतियोगिता ‘मंडल’ और ‘मंदिर’ आंदोलनों के समय से शुरू होती है। 1989 से 2019 तक के तीस साल को भारतीय लोकतंत्र का ऐसा चरण कहा जा सकता है जिसमें चुनावी प्रतियोगिता ने राजनीति का व्याकरण और उसकी मूल्य-व्यवस्था बदल डाली है। 2019 के चुनावों को इस चरण की परिणति के रूप में देखा जा सकता है।
इस चरण के पूरा होने का अर्थ है कि आगे कुछ नया होगा। वह नया क्या होगा, इसकी सटीक भविष्यवाणी कर पाना असंभव है। भविष्यवाणी तभी संभव होती है जब समाज, व्यवस्था, राजनीति और सक्रिय कर्ताशक्तियों का संयुक्त गतिशास्त्र लगभग सरल रेखा वाली गति प्रस्तावित करे। ऐसा विरले ही होता है। ज़रूरी यह है कि पिछले तीस सालों में जो हुआ है, उसे ठीक से समझा जाये। वर्तमान सत्ता की निरंकुशता के स्रोत इस दौर की राजनीतिक गतिकी में ही निहित हैं और उसके प्रतिरोध की संभावनाएं और संसाधन भी इसी गतिकी में छिपी हुई हैं।
वामपंथी और बूर्जुआ उदारवादी, दोनों ही खेमों का ज़ोर इस आभासी तार्किकता पर रहा है कि भौतिक-आर्थिक मसले और वर्गहित ही राजनीति का गतिशास्त्र निर्धारित करते हैं। दोनों अपने-अपने ढंग से इसी तर्क के आधार पर अपनी चुनावी रणनीतियां बनाते रहे हैं। वामपंथ पूंजी और बाज़ार की आलोचना करता है तो बूर्जुआ उदारवाद दोनों की हिमायत करते हुए एक ‘मानवीय शक्ल के पूंजीवाद’ की और ‘कल्याणकारी राज्य’ की बात करता रहा है। एक पूंजीवादी व्यवस्था की आलोचना करता है तो दूसरा उसकी हिमायत करते हुए उसमें सुधार की गुंजाइश भी देखता है। दोनों खेमे एक-दूसरे का विरोध करते हैं, लेकिन उनकी तर्कपद्धति में समानता भी है। दोनों भौतिक-आर्थिक हितों को अंतिम तौर पर निर्णायक और बुनियादी मानते हैं और सांस्कृतिक-पारंपरिक पहलुओं को गौण मानते हैं।
इतिहास के बहुत लंबे दौर – शताब्दियों और सहस्राब्दियों में मापे जाने वाले दौर – के स्तरों पर यह तर्क ठीक भी है। लंबे दौर में मानव इतिहास भौतिक प्रगति के तर्क से संचालित होता तो है; लेकिन इससे यह निष्कर्ष नहीं निकलता कि लंबी दूरी की यह यात्रा एक सीधी रेखा में की जाती है। इतिहास रोज़ की अपनी यात्रा एक ही दिशा में करे और यात्रा का हर क़दम भौतिक-आर्थिक प्रगति की दिशा में ही उठाये, यह ज़रूरी नहीं है। लंबे दौर का गतिशास्त्र इतिहास के लंबे दौर की यात्रा से निकलता है। लेकिन वह गतिशास्त्र रोज़ की गति का और उसकी दिशा का निर्धारण नहीं करता।
इस बात को कैसे समझा जाये कि इतिहास को गंतव्य तो पता है लेकिन वह उस तरफ़़़ की यात्रा सीधी रेखा में नहीं करता। किसी नशेड़ी की तरह लड़खड़ाता हुआ, इधर और उधर जाता हुआ, चलता है, हालांकि घर का पता मालूम है और अंततः घर पहुंचेगा भी। नशेड़ी को किस चीज़ का नशा है और यह नशा कब चढ़ता है और कब उतरता है?
इसे समझने का एक मोटा तरीक़ा यह है कि हाड़-मांस के समाज और उसके व्यवस्था-रूप ढांचे के फ़र्क़ को समझा जाये। व्यवस्था से तात्पर्य है, वह आर्थिक-वर्गीय ढांचा जो समाज के लंबे दौर की गतिकी का निर्धारण करता है। सामंतवाद, पूंजीवाद या समाजवाद व्यवस्थाओं के उदाहरण हैं। लेकिन व्यवस्था समाज का समग्र नहीं होती। ऐसा होता तो सारे पूंजीवादी देशों में एक ही प्रकार का समाज होता। हर व्यवस्था किसी पूर्व-प्रदत्त समाज की गोद में बैठती है। फिर वह समाज को अपने हिसाब से बदलती भी है। लेकिन समाज जैसी चीज़ को, जहां सैकड़ों और हज़ारों साल पुरानी परंपराएं और स्मृतियां जीवित रहती हैं और सामाजिक आचार-विचार को प्रभावित करती रहती हैं, कभी भी किसी शुद्ध व्यवस्था के अनुरूप इस तरह नहीं ढाला जा सकता कि व्यवस्था और समाज में कोई अंतर ही न रह जाये। ऐसा कभी और कहीं नहीं हुआ है कि समाज का समग्र और व्यवस्था की संरचना एक रूप हो जाये और एक-दूसरे के पर्यायवाची बन जायें।
व्यवस्था का तर्क इतिहास के लंबे दौर का गतिशास्त्र तय करता है, मगर व्यवस्था जिस बाक़ी समाज की गोद में बैठती है, वह भी इतिहास की गति को प्रभावित करता है। बाक़ी समाज का प्रभाव ही इतिहास को लड़खड़ाते हुए चलने को मजबूर करता है। यह बाक़ी समाज रोज़-रोज़ की राजनीति को प्रभावित और निर्धारित करता है। यह प्रभाव लंबे दौर में व्यवस्था के तर्क को निरस्त नहीं कर सकता। लेकिन व्यवस्था के पास भी कोई ऐसा तरीक़ा नहीं है कि वह समाज को हर रोज़ केवल अपने ही तर्क के मुताबिक़ चलने को मजबूर कर सके।
अब इस संदर्भ में, दशकों के स्तर पर राजनीति पर नज़र डाली जाये। मोटे तौर पर कहें तो बीसवीं सदी का उत्तरार्द्ध बूर्जुआ उदारवादी ख़ेमे के वर्चस्व के अधीन शुरू हुआ। सोवियत खेमा भी था और तीसरी दुनिया के अनेक देशों पर इस खेमे का प्रभाव भी था, लेकिन न तो यह खेमा टिक सका, न इसका प्रभाव। जब पूंजीवादी दुनिया द्वितीय विश्वयुद्ध की समाप्ति के बाद के पच्चीस सालों के तथाकथित ‘स्वर्णिम काल’ के अंत की तरफ़़़ पहुंची तो 1980 तक आते-आते पूंजीवाद फिर संकट में फंसने लगा। स्वाभाविक था कि इस संकट का ठीकरा बूर्जुआ उदारवाद के सिर फोड़ा गया। पूंजीवाद के संकट का स्थायी निदान किसी के पास नहीं है, लेकिन रोज़ की राजनीति का तकाज़ा है कि हर संकट के लिए किसी को ज़िम्मेदार ठहराया जाये। बूर्जुआ उदारवाद और कल्याणकारी राज्य को ज़िम्मेदार ठहराते हुए रेगन-थैचर वाले दक्षिणपंथी रूढ़िवादी दौर की शुरुआत हुई।
भारत में यह यात्रा कुछ हटकर चली, मगर चली उसी दिशा में। नेहरू काल में बूर्जुआ उदारवाद और कल्याणकारी राज्य के वर्चस्व के कारण हूबहू वही नहीं थे जो पश्चिम के उन्नत पूंजीवादी देशों में थे। यहां बूर्जुआ उदारवाद का और सोवियत खेमे का संयुक्त प्रभाव था। लेकिन संकट यहां भी खड़ा हुआ।
दक्षिणपंथी रूढ़िवादियों के उभार को पूंजीवादी व्यवस्था के संकट के प्रतिफलन के रूप में देखा जाता है। मगर इसमें व्यवस्था और बाक़ी समाज को गड्डमड्ड करने की या एक ही समझने की ग़लती की जाती है। बूर्जुआ उदारवादियों और दक्षिणपंथी रूढ़िवादियों के बीच का अंतर केवल आर्थिक नीति के क्षेत्र में ही नहीं है। उनके बीच प्रमुख मतभेद सामाजिक क्षेत्र में है और यही उनकी राजनीतिक रणनीतियों में अंतर का प्रमुख कारण है। जो लोग दक्षिणपंथ की आर्थिक-व्यवस्थागत विचारधारा मात्र पर ज़ोर देते हैं, वे उन्हें ‘नव उदारवादी’ कहते हैं। राज्य और बाज़ार में बाज़ार का पक्ष लेने को उदारवाद कहा जाये तो यह सही भी है। लेकिन यह परिभाषा दक्षिणपंथ की रणनीति और उसके हाल के उभार को समझने में मदद नहीं पहुंचाती; बल्कि भ्रम ही पैदा करती है।
दक्षिणपंथ के रूढ़िवाद के मुख्य अवयव व्यवस्था के तर्क में उतने नहीं हैं जितने कि बाक़ी समाज की बनावट में हैं। गहन चुनावी प्रतियोगिता जो व्यवस्था के संकट के समय में और भी तीखी हो जाती है, सामाजिक बनावट को और उसके अंदर स्थित ‘फ़ॉल्ट लाइंस’ को चुनावी समर का मैदान बना देती है। बाज़ारवाद के प्रति अंधश्रद्धा की तुलना में सामाजिक रूढ़िवादिता दक्षिणपंथ की अधिक प्रभावी रणनीति बनती है, जिसके सहारे वह बूर्जुआ उदारवाद के वर्चस्व को चुनौती देता है।
बाक़ी समाज की बनावट से यहां क्या तात्पर्य है, यह स्पष्ट कर देने की ज़रूरत है। व्यवस्था अपने शुद्ध रूप में केवल वर्ग-संरचना होती है। लेकिन समाज में अन्य सामाजिक संरचनाएं भी होती हैं, जैसे नस्ल, जाति, जेंडर, धर्म इत्यादि। वर्ग से इतर सामुदायिक और सांप्रदायिक पहचानें समाज के सांस्कृतिक-ऐतिहासिक भूगर्भ में अनेक ‘फ़ॉल्ट लाइंस’ का निर्माण करती हैं और समय-समय पर इनसे ‘सामाजिक भूकंप’ भी पैदा होते रहते हैं।
बूर्जुआ उदारवाद व्यवस्था के क्षेत्र में पूंजीवादी है, लेकिन समाज के क्षेत्र में आधुनिकता का हिमायती है। आधुनिकता से हमारा मतलब पारंपरिक समुदायों की तुलना में व्यक्ति-रूप नागरिक की वरीयता और धर्म तथा परंपरा की तुलना में तर्क और इंसानी बराबरी की वरीयता से है। सामाजिक आधुनिक को पूंजीवाद से गड्डमड्ड करना एक ग़लती है। वामपंथ भी सामाजिक आधुनिकता का हिमायती है, भले ही वह ‘पॉपुलिज़्म’ की गिरफ़्त में आकर इस बारे में भ्रांतियों का शिकार हो जाता हो और किसी न किसी प्रकार की सामुदायिकता को व्यक्ति-रूप नागरिक की तुलना में प्राथमिकता देने लगता हो। बाक़ी समाज के दायरे में वामपंथ की भी रूढ़िवाद से ही प्रमुख लड़ाई बनती है। और रूढ़िवादी वर्चस्व के समय में उसे उदारवादियों के साथ सहयोग व समझौते करने पड़ सकते हैं।
बहरहाल, हमारा मौजूदा प्रसंग यह है कि एक ही व्यवस्था के हिमायती होते हुए बूर्जुआ उदारवादियों और दक्षिणपंथी रूढ़िवादियों के बीच की लड़ाई हाल के दशकों की प्रमुख राजनीतिक लड़ाई रही है। भारत में स्थिति यह है कि व्यवस्था के निस्संदेह पूंजीवादी होने के बावजूद और उसके साथ-साथ बाक़ी समाज की सामुदायिक-सांप्रदायिक ‘फ़ॉल्ट लाइंस’ गहरी हैं और एक-दूसरे से टकराव की स्थिति में हैं। ऐसे में उन्हें यदि चुनावी राजनीतिक मुद्दा बनाया जाये तो आर्थिक-व्यवस्थागत मसलों का महत्त्व तात्कालिक तौर पर लगभग समाप्त हो जाता है। और यदि परिस्थिति ऐसी बने कि पूंजी के संकट के कारण पूंजीवाद को एक कठोर और निरंकुश राज्य तथा शासन की आवश्यकता हो जो खुलेआम ‘क्रोनी कैपिटलिज़्म’ को बढ़ावा दे सके और राज्य तथा जनता के ख़ज़ाने पूंजीपतियों के लिए खोल सके तो एक कारगर रणनीति यह बनती है कि बहुसंख्यक समुदाय को सांप्रदायिक पहचान के आधार पर संगठित किया जाये और उनका अंधा समर्थन हासिल किया जाये। भारतीय समाज में आधुनिकता की ज़मीन कमज़ोर है। ऐसे में यदि राजनीतिक लड़ाई को व्यवस्था के प्रश्न से हटाकर बाक़ी समाज के मैदान में उतार दिया जाये तो बूर्जुआ उदारवादियों और वामपंथियों, दोनों के लिए ही बेपनाह मुश्किलें खड़ी हो जाती हैं।
कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि बूर्जुआ उदारवाद व्यवस्था के मैदान में हारता है और आर्थिक कारणों से हारता है, जबकि दक्षिणपंथी रूढ़िवादी बाक़ी समाज के मैदान में जीतता है और सामाजिक कारणों से जीतता है। केवल व्यवस्था के आर्थिक मैदान में लड़ना होता तो न तो एक की हार इतनी व्यापक होती, न दूसरे की जीत। संकटग्रस्त पूंजी को जब निरंकुश राज्य की आवश्यकता होती है तो बूर्जुआ उदारवाद का रास्ता काम नहीं आता। दक्षिणपंथी रूढ़िवाद ही इस काम को अंजाम देने में सक्षम और मुफ़ीद है। इस तरह यह कहा जा सकता है कि सत्ता की निरंकुशता की ज़रूरत भले ही संकटग्रस्त पूंजीवाद को हो, इसके स्रोत बाक़ी समाज की संरचना में ही छिपे हुए हैं।
यदि बूर्जुआ उदारवाद व्यवस्थागत कारणों से हारता है और दक्षिणपंथी रूढ़िवाद सामाजिक कारणों से जीतता है तो अभी के वामपंथ के लिए यह कहा जा सकता है कि वह दोनों ही कारणों से हारता है। व्यवस्था के मैदान में इसके हारने का कारण यह है कि पूंजीवाद के सफल और प्रभावी विकल्प का ख़ाक़ा यह नहीं प्रस्तुत कर सका है। इसके पास अभी तक सिर्फ़ एक ही मॉडल है – बीसवीं सदी में पिछड़े देशों में और आपात्कालीन परिस्थितियों में खड़े किये गये समाजवाद का मॉडल। यह मॉडल स्वयं टूट चुका है और आज के पूंजीवाद को चुनौती दे सकने में असमर्थ है। वामपंथ को समाजवाद का एक ऐसा मॉडल प्रस्तावित करना है जो पूंजीवाद से अधिक उत्पादक और सृजनशील हो, बूर्जुआ लोकतंत्र से अधिक लोकतांत्रिक हो, और व्यक्ति-रूप नागरिक को पूंजीवाद राज्य और तंत्र की तुलना में अधिक आज़ादी देता हो।
दूसरी तरफ़, सामाजिक-सांस्कृतिक मैदान में वामपंथ इसलिए हारता है कि वह दिग्भ्रमित रहा है और अपना सामाजिक-रणनीतिक नारा बनाने से कतराता रहा है। उसे लगता है कि ऐसे समाज में, जहां पारंपरिक-पुरातन सामाजिक संरचनाएं प्रबल हैं, आधुनिकता का नारा उसे जनता से और भी अलग-थलग कर देगा। लेकिन इससे और भी नुक़सानदेह स्थिति पैदा होती है। वामपंथ दो चबूतरों के बीच गिर पड़ता है। आधुनिकता की वकालत वह आधे मन से करता है और लोक-संस्कृति तथा लोक-परंपरा के हिमायती होने का दावा करके वह सामाजिक रूढ़िवादियों से जीत नहीं सकता। जनता रूढ़िवादियों को ही लोक परंपरा और संस्कृति के अधिक सच्चे प्रतिनिधि के रूप में देखती है।
आधुनिकता की ज़मीन भारतीय समाज में अभी कच्ची ज़रूर है, लेकिन यह नहीं कहा जा सकता कि उसे लोक-स्वीकार्यता हासिल नहीं है। रूढ़िवादियों के लिए चुनावी जीत आसान नहीं रही है। उन्हें तरह-तरह की वैचारिक कसरत करनी पड़ती है, तरह-तरह के स्वांग रचने पड़ते हैं। उनके अधिनायक को ‘हिंदू हृदय सम्राट’ होने के साथ-साथ ‘विकास पुरुष’ होने के दावे भी करने पड़ते हैं। ‘सबका साथ, सबका विश्वास’ इत्यादि के नारे भी लगाने पड़ते हैं। उनके लिए संविधान के साथ बड़ी छेड़छाड़ इसीलिए कठिन है कि भारतीय समाज में संविधान में दर्ज नागरिक बराबरी और मानव अधिकारों के आधुनिक मूल्यों की स्वीकार्यता बढ़ी है। हिंदुत्व के राजनीतिक वर्चस्व के बावजूद संविधान को बदल देना और, उदाहरण के लिए कहें तो, मनुस्मृति को संविधान में स्थापित कर देना असंभव है। रूढ़िवाद को सबसे बड़ा ख़तरा तार्किकता और व्यक्ति की इंसानी बराबरी की संकल्पनाओं से है। इसीलिए वे वास्तविक बुद्धिजीवियों से घबराते हैं; जे.एन.यू. जैसे संस्थानों को तबाह कर देना चाहते हैं; दाभोलकर, पानसरे, कलबुर्गी और गौरी लंकेश जैसों की हत्याएं करवाते हैं। नेहरू का भूत उन्हें इसीलिए सताता रहता है।
भारतीय समाज के मैदान में रूढ़िवाद और आधुनिकता के बीच की लड़ाई अभी बराबर की लड़ाई तो नहीं है, लेकिन यह एकदम एकतरफ़़़ा और असंभव भी नहीं है। अधिक महत्त्वपूर्ण यह है कि समय सामाजिक आधुनिकता के पक्ष में है और इसी ज़मीन पर खड़े होकर दक्षिणपंथी रूढ़िवाद को परास्त किया जा सकता है। इस बात के इतना सरल और स्पष्ट होने के बावजूद बूर्जुआ उदारवादी पार्टियों से लेकर वामपंथ तक में इस बारे में भ्रम की स्थिति बनी रहती है। आप आधे रूढ़िवादी होकर रूढ़िवाद से निर्णायक लड़ाई नहीं लड़ सकते। उसे सामाजिक ‘फ़ॉल्ट लाइंस’ का फ़ायदा उठाने से नहीं रोक सकते।
दक्षिणपंथी रूढ़िवाद की जीत सत्ता की निरंकुशता का प्रधान कारण है। इस निरंकुशता की ज़रूरत भले ही संकटग्रस्त व्यवस्था को हो, इसके स्रोत समाज की पारंपरिक-ऐतिहासिक संरचनाओं में हैं। जहां निरंकुशता के स्रोत हैं, वहीं पर उसके प्रतिरोध के संसाधन भी हैं। इसी भारतीय समाज की संरचना में आधुनिक मूल्यों के लिए भी पर्याप्त जगह बनी है। निरंकुशता के विरुद्ध राजनीतिक लड़ाई आधुनिकता के सहारे ही लड़ी जा सकती है। सामाजिक और वैचारिक आधुनिकता ही निरंकुशता के प्रतिरोध का प्रमुख संसाधन है। यह स्पष्टता सभी आधुनिकवादियों को होनी चाहिए – बूर्जुआ उदारवादियों को भी और वामपंथियों को भी। यह भी स्पष्टता होनी चाहिए कि आधुनिकता की ज़मीन उतनी कमज़ोर नहीं है जितनी आम तौर पर राजनीतिक हलक़ों में मानी जाती है। लोक और जन यदि दक्षिणपंथी-रूढ़िवादी वर्चस्व के विरुद्ध प्रतिरोध की शक्ति हैं तो इसीलिए वे आधुनिक मूल्यों को उत्तरोत्तर स्वीकार करते जा रहे हैं।
रवि सिन्हा, लेखक और वामपंथी आंदोलन से विगत चार दशकों से अधिक वक़्त से जुड़े कार्यकर्त्ता, न्यू सोशलिस्ट इनिशिएटिव से संबद्ध, प्रशिक्षण से भौतिकीविद। डॉ. सिन्हा ने MIT, केम्ब्रिज से अपनी पीएचडी पूरी की (1982) और एक भौतिकीविद के तौर पर यूनिवर्सिटी ऑफ़ मेरीलैंड, फिजिकल रिसर्च लेबोरेट्री और गुजरात यूनिवर्सिटी, अहमदाबाद में काम किया। अस्सी के दशक के मध्य में आपने फैकल्टी पोज़िशन से इस्तीफा देकर पूरा वक़्त संगठन निर्माण तथा सैद्धांतिकी के विकास में लगाने का निर्णय लिया। ‘Globalisation of Capital’ के लेखक रवि सिन्हा संधान नामक वैचारिक पत्रिका के संस्थापकों में प्रमुख रहे हैं. पिछले कुछ वक़्त से आप उर्दू शाइरी में भी महारत हासिल किये हैं – जिनकी कुछ ग़ज़लें http://ravighazal.blogspot.com/ पर देखी जा सकती हैं।
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