हाथियों की लड़ाई : सलीम हिंदुस्तान का शहंशाह कैसे बना


प्रायः इतिहास को लोगों तक पहुंचाना एक जटिल काम हो सकता है क्योंकि आम लोग इतिहास में मौजूद पेचीदगियों को समझ पाने के अभ्यस्त नहीं होते और इतिहासकार भी ज़्यादातर बातों को क्लिष्ट बना कर पेश करते हैं। ऐसे में अभिव्यक्ति के दूसरे प्रचलित माध्यमों का सहारा लेना आवश्यक हो जाता है। इन माध्यमों के दो सबसे ज़्यादा पसंद किए जाने वाले माध्यम हैं कथा और पटकथा(फ़िल्मों की)। जहाँ एक पाठकों के मन में इतिहास के किसी दौर की एक तस्वीर खींच कर उन्हें उस दौर के इतिहास से परिचित कराता है वहीं दूसरा उन्हीं तस्वीरों को दूधिया पर्दे पर उतार कर कल्पना का कोई स्थान नहीं छोड़ता है। हाल ही में आई एक फ़िल्म “छावा” के बाद लोगों के जज़्बात लबरेज़ थे। उन्हें एक ऐसी बाइनरी परोसी गई थी जिसे समझने के लिए दिमाग़ को वर्जिश कराने की आवश्यकता नहीं थी बल्कि भावनाओं से अपील द्वारा ही काम बन जा रहा था। मगर इतिहास ये नहीं है, मध्यकालीन भारत ख़ासकर मुग़ल काल एक बहुत ही पेचीदा दौर था जिसमें कई प्रक्रियाएं और घटनाएं एक साथ घटित हो रहीं थीं लिहाज़ा कोई भी साधारणीकरण उस दौर के साथ नाइंसाफ़ी होगी। इतिहास की पेचीदगियों को एक तारतम्य के साथ प्रभावी कथ्य में बाँध कर इस कहानी “हाथियों की लड़ाई” में प्रस्तुत किया गया है। क्योंकि यह एक ऐतिहासिक कहानी है इसलिए इसमें ऐतिहासिक किताबों के हवाले से सभी तथ्यों को प्रस्तुत किया गया है और कल्पना का इस्तेमाल केवल इसकी साहित्यिकता और रोमांच बनाए रखने के लिए किया गया है। यह कहानी एक रोचकता- पूर्ण ढंग से ऐतिहासिक परतों के प्रति समझ पैदा करती है। यह दर्शाती है कि संघर्ष केवल मुग़ल बनाम अन्य नहीं था बल्कि मुग़लिया खानदान में भी एक संघर्ष चल रहा था। राजनीतिक संघर्षों के बीच पारिवारिक राजनीति और परिवार में अंदरखाने होने वाले संघर्षों को दर्शाती यह कहानी आज के वक्त में मुग़लों पर नए सिरे से शुरू हुई बहस में बेहद फायदेमंद साबित होगी।

भावुक शर्मा

सितम्बर  की उस उमस भरी सुबह जब सूरज आसमान में चढ़ना शुरू हुआ तो अपनी उम्र के तिरसठ बसंत देख चुके एक बूढ़े के माथे पर फ़िक्र की परछाइयां गहराने लगीं. सूरज की रौशनी की हर किरन ने उसके चेहरे की हर झुर्री को और नुमायाँ कर दिया और ज़िंदगी में शायद पहली  बार उसने महसूस किया कि कुछ ऐसा भी है जो उसके इख़्तियार से बाहर है और जिसको उसे क़िस्मत के सहारे छोड़ना होगा.

बूढ़े की निगाह उसके हाथों की झुर्रियों पर ठहर गयी. यह हाथ मामूली हाथ नहीं थे . इन हाथों की एक जुंबिश ने जाने कितनों के मुक़द्दर बनाये और बिगाड़े थे और इन हाथों में आने के बाद तलवार एक ऐसा क़लम बन जाया करती थी जो वक़्त का गिरेबान पकड़ कर उससे वह कहानी लिखवा लिया करती थी जो कहानी यह शख्स सुनना  चाहता था. इन हाथों ने जब जब अंकुस उठाया तो जाने कितने बिगड़े हुए हाथियों को सधा डाला.

उसकी अभी कमसिनी ही थी जब पहली बार उसने एक मस्त हाथी को क़ाबू कर लिया था. जाने कितने ही हाथी थे जो अपने महावतों को अपने पैरों तले कुचल चुके थे मगर इस शख्स के आगे उनकी एक न चली. अभी शहर में वह आँखें बाक़ी थीं जिन्होंने उसे मस्त हाथी हवाई के सर पर बैठकर एक दूसरे निहायत ताक़त वर हाथी रनभागा से भिड़ते हुए देखा था. उस वक़्त देखने वालों की आँखे मारे खौफ़ के बंद हो गयी थीं जब रनभागा के पीछे वह अपने हाथी पर सवार होकर जमुना  नदी पर बने नावों के पुल पर चढ़ गया था. उस पुल के लिये उन दोनों हाथियों का बोझ संभालना मुश्किल हो गया. कई नावे उलट गयीं. तख़्त के वफ़ादार नदी में कूद गये कि किसी अनहोनी को टाला जा सके मगर उसने रनभागा को नावों का बना वह पुल पार कराकर ही दम लिया.

शायद उसे उस वक़्त लगा हो कि पागल और मस्त हाथियों को क़ाबू करने से मुश्किल कोई काम नहीं हो सकता, उन किलों को जीतना भी नहीं जिन्हें उसने जाने कितनी बार जीता. बड़े से बड़े और मज़बूत से मज़बूत किले ने उसके हौसले से हारकर अपने मज़बूत दरवाज़ों को उसके लिये खोल दिया . जाने कितनी बार मैदान – ए जंग में  गरजती तोपों की आग उसकी तरफ़ बढ़ी मगर उसकी आँखों से निकलती चिंगारियों से टकराकर बिखर गयी. अगर उसने उस वक़्त यह ख्याल किया कि इन सब कारनामों से मुश्किल कोई काम नहीं हो सकता तो वह अपनी जगह ठीक ही था. जलालुद्दीन मुहम्मद अकबर को यह बहुत बाद में मालूम हुआ कि बिगड़े हुए शाहज़ादे मस्त और पागल हाथियों से ज़्यादा ख़तरनाक होते हैं क्यूंकि एक पागल हाथी सिर्फ़ अपने सवार या दूसरे चंद इंसानों को कुचलता है मगर  बिगड़े हुए शाहज़ादे अगर बेक़ाबू हो जाएँ तो हुकूमतें उनके क़दमों के नीचे कुचल जाती हैं.


1561-Akbar riding the elephant Hawa’I pursuing another elephant across a collapsing bridge of boats (left): Victoria and Albert Museum, Public domain, via Wikimedia Commons

मगर यह तो काफ़ी बाद की बात है. इस रोज़ से पहले भी एक बार उसने ख़ुद को क़िस्मत के आगे सितम्बर की उस उमस भरी सुबह के जितना ही मजबूर पाया था. अपनी हुकूमत की राह में हर ख़तरे को मिटा देने वाला बादशाह सबसे बड़े ख़तरे को मिटाने का इख़्तियार नहीं रखता था क्यूंकि इस जंग के लिये तलवार और हौसला नहीं बल्कि क़िस्मत की ज़रूरत थी. उसे ख़बर थी कि किसी तख़्त का वारिस ना होना उस तख़्त के पायों के नीचे से ज़मीन को खींच लिया करता है. यह ख्याल अक्सर उसके माथे पर एक नयी शिकन बनकर उभर आया करता था और हर मैदान- ए जंग को जीत चुका यह शहंशाह तक़दीर के सामने इस मोर्चे पर अभी तक कामयाब नहीं हो सका था.

पीर, फ़क़ीर, हकीम कोई ऐसा ना था जिसके पास यह बादशाह न गया हो लेकिन औलाद की नेमत से महरूम रहा. एक रोज़ उसे ख़बर दी गयी कि एक बड़ा पहुंचा हुआ  दरवेश है जिसका क़याम सीकरी की पहाड़ियों पर है. सीकरी आगरा के नज़्दीक ही था और शहंशाह ने वहां रोज़ाना हाज़िरी देना शुरू कर दिया. चिश्तिया सिलसिले के उस दरवेश का नाम शेख़ सलीम चिश्ती था. एक रोज़ जब दरवेश के ऊपर हाल आया हुआ था तो बादशाह ने निहायत अदब के साथ सवाल किया कि उसकी तक़दीर में कितने बेटे हैं. दरवेश ख़ामोश हो गया. कुछ देर बंद रखने के बाद आँखों को खोल कर आसमान पर इस अंदाज़ में गढ़ा दिया जैसे कुछ पढ़ने की कोशिश कर रहा हो. फिर कहा कि “ ख़ुदा ने तेरी क़िस्मत में तीन बेटे लिखे हैं” . शहंशाह की आवाज़ में उसके तोपख़ाने की मशहूर तोपों का जोश आ गया और बोला “कि अगर ऐसा हुआ तो मैंने अपना पहला बेटा आपके सुपुर्द किया. आप ही उसके निगराँ होंगे” . फ़क़ीर ने  माथे पर एक हल्की सी शिकन के साथ कहा “कि अगर और मगर दुनिया के दरबारों की शर्तें होती हैं आसमानी दरबार की नहीं”. बादशाह को फ़ौरन अपनी ग़लती का अहसास हुआ. मुआफ़ी तलब की. दरवेश  मुस्कुराया और बोला कि “फ़क़ीर किसी का अहसान नहीं रखते .अगर तूने अपना पहला बेटा  हमारे सुपुर्द किया तो हमने उसे अपना नाम अता किया”.

अब पता नहीं  इसे इत्तेफ़ाक़ कहें या चमत्कार कि शहंशाह की रानी और आमेर के राजा बिहारी मल कछवाहा की सबसे बड़ी बेटी जिसका असली नाम आज तक किसी को सही नहीं मालूम मगर जो शाही हरम में आने के बाद मरियम उज़ ज़मानी बेगम कहलायी और जिसे अकबर सात बरस पहले बियाह कर लाया था , उसके बदन से ज़ाफ़रान की खुश्बू फूटने लगी  और कुछ रोज़ बाद उसके गालों ने कश्मीरी केसर की रंगत इख़्तियार करनी शुरू कर दी. जिस्म की गोलाइयों में कुछ नये घेरे उभरे तो ख़बर को ख़ुफ़िया रखने की हर कोशिश के बावुजूद  तमाम हिंदुस्तान उम्मीद से हो गया. वक़्त  ने कुछ वक़्त के लिये अपने क़दमों की रफ़्तार महारानी के क़दमों की रफ़्तार से मिलाने के लिये हल्की कर ली और भारी मगर नपे तुले क़दमों से एहतियात के साथ शहंशाह के हुक्म पर मरियम उज़ ज़मानी बेगम को शेख़ सलीम चिश्ती की दरगाह तक ले गया क्यूंकि शहंशाह की ख्वाहिश थी कि उसका पहला बेटा उसी दरवेश के  मुबारक साये में इस दुनिया में क़दम रखे जिसकी दुआ की बरकत से वह हासिल होने वाला था.

 शेख़ का छोटा सा घर शाही हरम के कारख़ाने का आदी नहीं था और कुछ ही रोज़ में वह ख्वाजा सराओं, दाइयों, और नौकरानियों से छलकने लगा. दरवाज़े पर हर वक़्त मुस्तइद हथियार बंद सिपाहियों का पहरा था और घर के ज़नान ख़ाने में मौजूद महारानी से मिलने जब शहंशाह अकबर आते तो घर के लोगों को बड़ी दुश्वारी होती मगर शहंशाह से कुछ कहने की हिम्मत किसी की नहीं हुई.

सब को शेख़ की दुआ पर इतना भरोसा था कि किसी को कभी ख्याल ही नहीं आया कि शाहज़ादे के बजाय शहज़ादी भी हो सकती है इसलिये महारानी ने हमेशा शहंशाह को यही बताया कि वह शाहज़ादे के क़दमों की आहट रोज़ महसूस करती है. एक बार जुमे के रोज़ जब शहंशाह महारानी की खैरियत लेने तशरीफ़ लाये तो महारानी को बड़ा फिक्रमंद पाया. सबब मालूम करने पर जवाब मिला कि पता नहीं क्यूँ बच्चे ने अपने पैर चलाना बंद कर दिया है. शहंशाह के चहरे पर फ़िक्र के साये लहराने लगे. कुछ देर सोचा तो याद आया कि सबसे तेज़ चलने वाले पाओं चीते के होते हैं.मस्त और बिगडैल हाथियों को साधने के अलावा  चीतों का शिकार शहंशाह का एक और शौक़ था जो बदन को चुस्त रखने के साथ- साथ अपने दरबारियों और रियाया पर शाही रोब को बरक़रार रखने के भी काम आता था. कोई बादशाह जितनी बड़ी हुकूमत का मालिक होता उतना ही उसे बहादुरी का मुज़ाहिरा दरकार होता था वरना छोटी – छोटी कमज़ोरियों की तलाश में रहने वाले अमीरों और दरबारियों की आँखें ताज- ए हुकूमत के ख़्वाब देखना शुरू कर देती थीं.

महारानी की बात सुनकर शहंशाह के चहरे पर फ़िक्र का साया आया और गुज़र गया. कुछ ऐसे जैसे हवा के तेज़ झोंके से किसी मशाल की लौ एक लम्हे को थरथरा कर दोबारा संभाला ले लेती है. शहंशाह ने दुआ की “परवरदिगार शाहज़ादे के पैरों को दोबारा हरकत अता फ़रमा, मैं क़सम खाता हूँ कि सारी ज़िंदगी जुमे के रोज़ चीतों का शिकार नहीं करूँगा”. कहते हैं कुछ देर बाद ही महारानी ने बच्चे के पैरों की हरकत को महसूस करना शुरू कर दिया.

आख़िर ख़ुदा- ख़ुदा करके ३० अगस्त , १५६९ का वह दिन आया जब  बरसात के मौसम में  बच्चे ने इस दुनिया में क़दम रखा. शहंशाह की माँ हमीदा बानो बेगम ने अपने पोते को १९० केरट का याकूत तोहफ़े में दिया जिसे अकबर ने अपनी पगड़ी में पहना और बाद में यह नग मुग़ल हुकूमत की निशानी बन गया . सारा आगरा रौशनी में नहा उठा. सोने-चांदी का इतना बिखेर हुआ कि बीनने वालों के हाथ थक गये.  शायरों ने इस मुबारक मौक़े पर क़सीदे कहे और इनाम पाये. सबसे मशहूर क़सीदा ख्वाजा हसन हरावी का हुआ जिसके हर शेर के पहले मिसरे से अकबर की तख़्त नशीनी और दूसरे मिसरे से शाहज़ादे की पैदाइश के साल की तारीख़ निकलती थी.

अकबर का यक़ीन शेख़ सलीम चिश्ती पर इस क़दर बढ़ गया कि वह अपनी राजधानी आगरा से सीकरी ले गया. शेख़ के नाम के अहतराम में सारी ज़िंदगी उसने अपने बेटे का नाम नहीं लिया बल्कि शेख़ लफ्ज़ की रियायत से हमेशा उसे शेखू बाबा पुकारा. लेकिन क़ुदरत के खेल अजीब होते हैं. यह अक्सर एक हाथ से एक चीज़ देती है तो  दुसरे हाथ से कुछ और छीन भी लेती है. क़ुदरत ने अगर शहंशाह को एक नेमत औलाद की शक्ल में अता की तो एक दूसरी नेमत की क़ुरबानी भी तलब कर ली. अकबर की ज़िंदगी में शेख़ का वुजूद किसी नेमत से कम नहीं था. शेख़ की उम्र इस वक़्त कोई नब्बे बरस के आस- पास थी. एक दिन अकबर ने शेख़ से मालूम किया कि उनका मुबारक साया उसके सर पर कब तक क़ायम रहेगा . पहले तो शेख़ ने कोई जवाब नहीं दिया मगर बादशाह के इसरार पर इर्शाद हुआ  कि जिस दिन शहज़ादा अपने उस्ताद या किसी और के ज़रिये कुछ भी याद करके उसे ज़ोर से दोहरायगा वह दिन हमारी ज़िंदगी का आख़री दिन होगा.

अकबर ने बच्चे के ऊपर पहरा बैठा दिया कि कोई भी उसे कुछ नहीं सिखाये और इस तरह अकबर और सलीम के दरमियान वह  पहली जंग शुरू हुई जिसमें बाप यह उम्मीद करते हैं कि बेटे हमेशा ख़ामोश रहें और अगर कुछ बोलें तो उनकी मर्ज़ी से बोलें . शहंशाहों और शहज़ादों के रिश्ते तो और अजीब होते थे. बिना वारिस के अगर हुकूमत कमज़ोर  होती थी तो वारिस के होने के बाद यह ख़तरा पैदा हो जाता था कि कहीं उमरा की साज़िश शाहज़ादे को शहंशाह के ख़िलाफ़ न खड़ा कर दे. अब पता नहीं यह शेख़ की ज़िंदगी बचाने की कोशिश ज़्यादा थी या शाहज़ादे को बचपन से अपना फ़र्माबरदार रखने की एक तदबीर , मगर कामयाब न हो सकी क्यूंकि अपने वक़्त में दुनिया की सबसे दौलतमंद और ताक़तवर हुकूमत के वारिस से कोई हुक्म मनवाना इतना आसान नहीं था चाहे हुक्म देने वाला उस सल्तनत का शहंशाह ही क्यूँ न हो .  जहाँगीर अपनी तुज़ुक में लिखता है कि इस तरह दो साल सात महीने गुज़र गये कि एक रोज़ बच्चे को अकेला पाकर एक कमसिन लौंडी उससे खेलने लगी और खेल-खेल में उसने मशहूर फ़ारसी मसनवी यूसुफ़ और ज़ुलैख़ा का पहला शेर बार- बार पढ़ा.

यहाँ तक कि ख़ुद शाहज़ादा भी उस शेर को ज़ोर से दोहराने लगा. इधर लौंडी ने भाग कर यह ख़बर सुनाई कि शाहज़ादे ने बोलना शुरू कर दिया उधर सीकरी में शेख़ को तेज़ बुख़ार ने अपनी गिरफ़्त में ले लिया. सारी दवा- दारु बेकार गयी. शेख़ ने तानसेन को बुलवाया कि शायद उनकी आवाज़ कुछ आराम पहुंचा सके. शहंशाह जिस वक़्त शेख़ की अयादत के लिये पहुंचा, उस वक़्त शेख़ में सिर्फ़ एक लफ्ज़ बोलने की ताक़त रह गयी थी और वह लफ्ज़ “अलविदा” था.  इसके बाद शेख़ ने अपनी पगड़ी उतार कर शाहज़ादे के सर पर रखकर कहा कि “हमने इसे अपना जानशीन बनाया और ख़ुदा की ज़मानत में दिया”. इतना कहकर उन्होंने अपनी आँखें हमेशा के लिये बंद कर लीं. यह पहला मौक़ा था जब सलीम ने अकबर के हुक्म की ख़िलाफ़वर्ज़ी की और उसके नतीजे में अकबर को अपनी किसी क़ीमती चीज़ को खोना पड़ा .     


Mughal Emperor Akbar shows deference to Sufi saint Sheikh Salim Chishti. Bikaner: See page for author, Public domain, via Wikimedia Commons

वक़्त अच्छा हो तो उसे उक़ाब के पर लग जाते हैं और बुरा हो तो वह कछुए से पैर उधार ले लेता है. यह वक़्त मुग़ल हुकूमत का हिंदुस्तान में बेहतरीन दौर था तो बड़ी तेज़ी से गुज़रा. जैसा कि शेख़ ने कहा था, वैसा ही हुआ और अकबर के दो और बेटे हुए . १५७० में शाह मुराद और १५७२ में शाह दानियाल जिनके बारे में सलीम जहाँगीरनामा में लिखता है  कि मुराद एक बांदी  और दानियाल एक बेनिकाही बीवी से पैदा हुआ. सलीम को इन दोनों भाइयों के बारे में यह मालूमात फ़राहम कराने का एक सबब यह भी हो सकता है कि वह दुनिया को यह बताना चाहता हो  कि तख़्त का  जायज़ हक़दार सिर्फ़ वह था . वैसे भी उस दौर में शहज़ादों को सब कुछ मिलने के बावजूद कभी भाई नहीं बल्कि भाईयों की शक्ल में तख़्त के दावेदार मिलते थे जिनसे उन्हें मुक़ाबला करना होता था. यह मुक़ाबला अकबर के इन तीनों बेटों में भी हुआ मगर एक दूसरी शक्ल में. इन तीनों के हालात- ए ज़िंदगी देखें तो ऐसा लगता है कि जैसे इनमें मुक़ाबला हो कि कौन ज़्यादा शराब पिये और ज़िन्दा बच जाये. तीनों ने बला की शराब पी और आख़िर में अकबर के इस दुनिया से जाने का वक़्त आने तक सिर्फ़ सलीम ज़िन्दा बचा और हिंदुस्तान का तख़्त उसका हुआ. गोया उसके सर पे ताज- ए हुकूमत रखने में उसके ज़ोर- ए बाज़ू से ज़्यादा उसके मज़बूत जिगर का हाथ था. मगर यह किस्सा अभी बाद में ….

बहरहाल जब शहज़ादा चार साल चार महीने और चार दिन का हुआ तो उस दौर की रिवायत के मुताबिक़ उसकी बिस्मिल्लाह की रस्म अदा हुई यानी बाक़ायदा उसकी तालीम शुरू हुई. सलीम के पहले उस्ताद ज़्यादा दिन ज़िन्दा नहीं रहे. उनके बाद दो और अतालीक़ यानी उस्ताद मुक़र्रर हुए क़ुतुबुद्दीन मुहम्मद खान, शेख़ सलीम चिश्ती के बेटे और सलीम के सबसे क़रीबी दोस्त ख़ूबू ख़ान के बाप, और अब्दुर्रहीम जो आगे चलकर ख़ाने ख़ाना कहलाये. दीनयात की तालीम के लिये कभी अकबर के भरे दरबार में छड़ी फेक कर मार देने वाले अब्दुन्नबी और नेज़ा बाज़ी सिखाने के लिये वर्ज़िश ख़ान मुक़र्रर हुए. लेकिन शाहज़ादे की ज़िंदगी पर सबसे ज़्यादा असर अंदाज़ उस्ताद शाह कुली हुए जिन्हें रखा तो शाहज़ादे को बंदूक़ चलाना सिखाने के लिये था और जो उन्होंने सिखाई भी मगर बंदूक़ बाज़ी के अलावा वह उसे एक और चीज़ सिखाने के लिये भी जाने जाते हैं .

जब शहज़ादा अठ्ठारह साल का हुआ तो अटक की मुहिम के दौरान जब शाही फ़ौज एक किले का घेरा डाले हुए थी तो शहज़ादा शिकार के लिये रवाना हुआ और उस रोज़ शाम को शाह क़ुली ख़ान ने उसके सामने तज्वीज़ रखी कि शराब का एक जाम उसकी थकन को दूर करने के लिये कारगर साबित हो सकता है. आगे का वाक़ेया ख़ुद सलीम के अलफ़ाज़ में … “क्यूंकि मैं उस वक़्त उम्र के उस पड़ाव पर था जब इन्सान इस क़िस्म की चीज़ों की तरफ़ बड़ी शिद्दत के साथ खिंचता है मैंने महमूद भिश्ती को हुक्म दिया कि वह हकीम अली के घर जाये और मेरे लिये कुछ शराब लेकर हाज़िर हो. हकीम ने एक छोटी सी बोतल में पीले रंग की शराब भेजी जिसे चखने पर मैंने मीठा पाया और उसका सुरूर मुझे पसंद आया”.

अगले नौ साल में शराब की यह मिक़दार दो घूँट से बढ़कर तक़रीबन छः सेर रोज़ाना तक पहुँच गयी. जिस साल सलीम ने शराब शुरू की उसी साल सलीम की ज़िंदगी में एक और वाकेया भी हुआ. इसी साल उसका बदनसीब बेटा खुसरो पैदा हुआ. अब बेटा पैदा हुआ तो सलीम की शादी भी हुई होगी …

सलीम की शादी इतनी कम उम्र में क्यों हुई ? इसकी ख़ास वजहें भी हो सकती हैं और यह भी मुमकिन है कि कोई भी वजह न हो क्यूँकि उस दौर में सब की शादियाँ कम उम्र में ही होती थीं. हाँ इस दौर पर नज़र डालें तो इतना साफ़ है कि सलीम हुकूमत के कामकाज में कोई ख़ास दिलचस्पी लेता हुआ नज़र नहीं आता.  जब सलीम सिर्फ़ पांच साल का था तो अकबर उसे अपने साथ पटना की एक मुहिम पर ले गया जहाँ एक बग़ावत हो गयी थी. उसकी उम्र सिर्फ़ नौ बरस थी जब उसे दस हज़ार सवार और दस हज़ार ज़ात की रैंक अता की गयी जबकि मुराद और दानियाल सात हज़ारी और छह हज़ारी मंसब पर फायज़ हुए. ध्यान रहे कि इस वक़्त दरबार- ए अकबरी के अहम् से अहम् अमीर भी पांच हज़ारी मंसब पर थे . यानी अभी तक शहंशाह के दिल में सलीम के लिये कोई शिकायत नहीं आई थी और बाक़ी दोनों बेटों के मुक़ाबले अभी अकबर की नज़र में सलीम की ज़ात का वज़्न सबसे ज़्यादा था. मगर इस ओहदे पर पहुँचने के बावजूद सलीम हुकूमत से ज़्यादा शिकार में दिलचस्पी लेता नज़र आता है, तो मुमकिन है कि सलीम की शादी की एक वजह उसे संजीदगी की तरफ़ लाना भी हो. जो भी हो सलीम की शादी शानो शौकत में उसकी पैदाइश के जश्न से कम नहीं थी.

सलीम के लिये अकबर ने आमेर की राजकुमारी का इंतेख़ाब किया. ठीक उसी तरह जैसे उसने कभी अपने लिये किया था. दुल्हन दर हक़ीक़त सलीम की कज़िन थी और १५८४ की सर्दी में शहंशाह अकबर, सलीम और दूसरे उमरा के साथ राजा भगवान दास की रियासत में उनकी बेटी मानबाई को अपनी बहू बनाने के लिये पहुँच गया. आज के दौर के लोगों को उस दौर की यह शादियाँ समझ में नहीं आतीं और इनके चारों तरफ़ तरह-तरह की थ्योरीज़ बनायीं जाती हैं जबकि इनके पीछे सिर्फ़ एक थ्योरी है. बिला शुबहा यह शादियाँ पोलिटिकल एलायंज़ भी थीं लेकिन सीधी बात यह है कि उस दौर के लोगों के लिये क्लास मज़हब से ऊपर थी. यानी एक राजघराना एक राजघराने में ही रिश्तेदारी करना मुनासिब समझता था. इसके अलावा शादी का एक और मेसेज यह होता था कि दोनों परिवारों ने एक दूसरे की बराबरी तस्लीम की. सलीम की इस शादी में अकबर को दिल ही दिल में नापसंद करने वाला एक इतिहासकार जो ख़ुफ़िया तौर पर उस दौर का इतिहास  लिख रहा था, यानी मुल्ला अब्दुल क़ादिर बदायूनी भी मौजूद था. वह कुछ नापसंदीदगी के अंदाज़ में लिखता है कि शादी में तमाम हिन्दुआनी रस्में जैसे आग जलाना वगैरा अदा हुईं. पंडित और मौलवी दोनों मौजूद थे और जहेज़ में सौ हाथी, कई सौ घोड़े, ज़ेवरात, सोने- चांदी के बर्तन, लौन्डीयों और ग़ुलामों के अलावा हर बाराती को सोने की ज़ीन पहने एक घोड़ा मिला. सोने- चांदी का इतना बिखेर हुआ कि बीनने वालों के हाथ भर गये.

लेकिन शादी के बाद भी सलीम के मिज़ाज में कोई बदलाव नहीं आया. शिकार बदस्तूर जारी रहा और सोने पर सुहागा यह कि दो घूँट शराब से शुरु हुई मय नोशी देखते ही दखते कहीं से कहीं पहुँच गयी. दोनों के दिल में अंदर ही अंदर क्या चल रहा था यह तो नहीं मालूम लेकिन अभी तक ऐसा कोई वाक़ेया नहीं हुआ था जिससे यह लगता कि बादशाह और शाहज़ादे के रिश्तों में कोई दरार पड़ चुकी है.

ऐसा पहला वाक़ेया १५८९ में हुआ. अकबर अपने पूरे परिवार और अमीरों के साथ कश्मीर के लिये रवाना हुआ. कई सौ पत्थर तोड़ने वाले आगे- आगे रास्ता बनाते चले जाते थे लेकिन फिर भी सफ़र हर बढ़ते क़दम के साथ दुश्वार होता गया. यहाँ तक कि भीमबेर के मुक़ाम पर अकबर ने औरतों और बच्चों को शहज़ादा मुराद की निगरानी में छोड़ा और ख़ुद सलीम और दूसरे उमरा के साथ आगे बढ़ गया. कुछ और दूरी तय करने के बाद अकबर को अंदाज़ा हो गया कि इन संकरे रास्तों पर पूरे शाही कारवां का सफ़र आसान नहीं होगा. सलीम को हुक्म हुआ कि वह वापस भीमबेर जाये और सिर्फ़ कुछ चुनिन्दा औरतों और अपने बेटे खुसरो को लेकर और बाक़ी क़ाफ़िला शहज़ादा मुराद की निगरानी में छोड़कर जितनी जल्दी हो सके शहंशाह से वापस मिल जाये. हुक्म पाकर सलीम वापस भीमबेर की तरफ़ रवाना हो गया. अकबर अपने चंद मुन्तखिब उमरा जिनमें अबुल फ़ज़ल भी शामिल था, के साथ आगे बढ़ते गया. इस सफ़र की दुश्वारियों को अबुल फ़ज़ल ने बड़ी तफ़सील के साथ बयान किया है. लेकिन जब यह काफ़िला अपनी आखरी मंज़िल पर पहुंचा तो घाटी के हुस्न को देखकर हैरान रह गया और ऐसा महसूस हुआ जैसे कि यह पहाड़, झरने, फूल और ताज़ा हवा सफ़र की उन तमाम सख्तियों का इनाम हैं जिन्हें बर्दाश्त करते हुए यह लोग यहाँ तक पहुंचे थे. अकबर क़ुदरत के इस हुस्न को अपने दूसरे अज़ीज़ों के साथ देखने की ख्वाहिश से बेताब हो उठा और उसने अब्दुर्रहीम ख़ानेख़ाना को वापस सलीम की मदद के लिये रवाना किया कि वह जल्द अज़ जल्द अपनी औरतों और पोते के साथ इन हसीन मनाज़िर का लुत्फ़ उठा सके. लेकिन सलीम जब वापस लौटा तो उसके साथ न औरतें थीं न बच्चे. सबब पूछने पर जवाब मिला कि रास्ता बहुत ख़तरनाक था इसलिये औरतों और बच्चों को साथ लाने में ख़तरा था तो उन्हें नौशेरा में छोड़ कर सलीम को वापस लौट आना पड़ा. ग़ुस्से में अकबर ने सलीम से तो मिलने से ही इंकार कर दिया और अब्दुर्रहीम से कहा कि “अगर शाहज़ादे ने अपने मिज़ाज की बेहूदगी के चलते ऐसी जुर्रत की तो आप क्या कर रहे थे और आपने उसे ऐसा फैसला लेने कैसे दिया” . ग़ुस्से के आलम में जैसे- तैसे रात गुज़ार कर अगली सुबह बारिश के बावजूद शहंशाह अपने घोड़े पर सवार हुआ और नौशेरा की तरफ़ सफ़र इख़्तियार किया. किसी तरह अकबर को रास्ते में रोका गया और अब्दुर्रहीम एक बार फिर औरतों और बच्चों को लाने के लिये रवाना हो गया. सलीम ग़म और ग़ुस्से की हालात में कई दिन अपने ख़ेमे से बाहर नहीं निकला.

यह बज़ाहिर इतना सीधा नज़र आने वाला मामला क्या था? इतनी मामूली बात पर कोई इतना ग़ुस्सा नहीं हो सकता जब तक कि उसका दिल पहले से किसी बात पर बदगुमान न हो. या फिर ये एक “ वॉर ऑफ़ सिम्बोलिज़िम” थी जिसमें एक शाहज़ादे ने ख़ुदमुख्तार होकर शहंशाह के फ़ैसले के ख़िलाफ़ जाने की जुर्रत की और शहंशाह ने फिर उसके फ़ैसले को पलट दिया. या फिर एक ताक़तवर इन्सान की ग़ुरूरआमेज़ सनक. या वाक़ई दोनों बाप बेटों के दरमियान कुछ ऐसा चल रहा था जिसकी ज़माने को अभी ख़बर नहीं थी.

इस वाक़ये के बाद कुछ वक़्त तक के लिये बज़ाहिर सब ठीक हो गया. इस दौरान सलीम की दो शादियाँ और हुईं . एक तिब्बत की राजकुमारी से और दूसरी जोधपुर के राजा उदयसिंह जो मोटे राजा के नाम से मशहूर थे, उनकी बेटी जगतगोसाईं से जिन्हें बिलक़ीस मकानी का ख़िताब मिला. शायद यही रानी थीं जो जोधपुर घराने की निस्बत से जोधबाई भी कहलाती थीं. इनसे सलीम के जो बेटा हुआ उसका नाम ख़ुर्रम रखा गया और वह आगे चलकर शाहजहाँ के नाम से जाना गया.

लेकिन इस सब के बावुजूद सब कुछ ठीक नहीं था क्यूंकि इसी दौरान अकबर बीमार हुआ और अगर अब्दुल क़ादिर बदायूनी की बात का यक़ीन किया जाये तो अकबर ने सलीम पर उसे ज़हर देने का इल्ज़ाम लगाया.

हर गुज़रते हुए दिन के साथ यह बेयक़ीनी की खाई बढ़ती चली गयी और बढ़ते- बढ़ते नौबत यहाँ तक पहुँच गयी कि एक मर्तबा अकबर ने जब सलीम को एक मुहिम पर भेजना चाहा तो इंकार करना तो दूर सलीम दरबार में हाज़िर ही नहीं हुआ. सिर्फ़ एक यही मुहिम नहीं बल्कि सलीम ने हर मुहिम को इस शक की निगाह से देखना शुरू कर दिया कि यह उसे राजधानी से दूर करके उसके किसी दूसरे  भाई की ताज पोशी करने की साज़िश है.  लेकिन इस वक़्त उसके बाक़ी दोनों भाई क्या कर रहे थे..

सलीम के भाई शाह मुराद का नाम अकबर के दौर की तारीख़ में एक बार बड़ी तेज़ रौशनी के साथ चमकता है जब उसने अकबर के सौतेले भाई और अपने चाचा मिर्ज़ा मुहम्मद हकीम के एक हमले को बड़ी जवां मर्दी के साथ नाकाम कर दिया. उस वक़्त उसकी उम्र सिर्फ़ बारह बरस थी. लेकिन उसके बाद मुग़ल तारीख़ में वह जब नज़र आता है तो शराब के नशे में चूर नज़र आता है. अकबर ने उसे उस शानो शौकत के साथ जो वली अहद- ए सल्तनत की होती है, ओरछा रवाना किया जहाँ उसे एक छोटी सी फ़तह भी नसीब हुई. ओरछा के बाद अगला पड़ाव दकन था और अगर मुराद उस मुहिम को सर कर लेता तो न सिर्फ़ अकबर की नज़र  बल्कि मुग़ल दरबार में भी उसका वज़्न बहुत बढ़ जाता. मगर दकन मुहिम के नाम पर आठ बरस तक वह सिर्फ़ तफ़रीह करता रहा और शराब पीता रहा. जब सलीम ने तूरान मुहिम पर जाने से इंकार कर दिया तो अकबर ने अपने दोनों छोटे बेटों को इस उम्मीद में लाहौर तलब किया कि उन में से किसी एक की सरबराही में लश्कर तूरान की तरफ़ रवाना किया जाये. मगर सलीम की ही तरह मुराद ने भी आने से इंकार कर दिया. ग़ुस्से में अकबर ने ऐलान किया कि वह ख़ुद इस मुहिम पर जायेगा और एक लश्कर लेकर रवाना हुआ, लेकिन आगे चलकर यह मुहिम भी अधूरी ही रह गयी.

अकबर ने अबुल फ़ज़ल को दकन रवाना किया कि वह जाकर वहां के हालात से न सिर्फ़ अकबर को आगाह करे बल्कि मुराद को वापस भी लेकर आये. मुराद को इसकी ख़बर हुई तो अबुल फ़ज़ल से बचने के लिये मुराद ने अहमदनगर पर हमले का बहाना बना कर उस तरफ़ कूच किया लेकिन बरार में एक नदी के किनारे उस पर मिर्गी का शदीद दौरा पड़ा और उसकी रूह ने उसके बदन का साथ छोड़ दिया. उसकी उम्र अभी तीस बरस भी नहीं थी.

उसकी मौत की ख़बर अकबर को देने की किसी में हिम्मत नहीं थी. अकबर की वालेदा हमीदा बानो बेगम को ख़ास इसी मक़सद के तहत लाहौर से आगरा बुलाया गया और जब उन्होंने अकबर को यह ख़बर दी तो उसे शदीद रंज हुआ लेकिन मुग़ल- ए आज़म के मशहूर डायलाग “शहंशाह कभी रोया नहीं करते” की तर्ज़ पर उसने अपने आप को सल्तनत के कामों में बेइंतेहा मसरूफ़ कर लिया. दकन मुहिम बदस्तूर जारी रही. सलीम को हुक्म था कि वह इस मुहिम पर रवाना हो लेकिन एक मर्तबा फिर सलीम ने इंकार तक करने की ज़हमत नहीं की क्यूंकि वह इंकार जब करता जब दरबार में हाज़िर होता.

तो इस मुहिम के लिये दानियाल को तलब किया गया. उसने आने से इंकार नहीं किया लेकिन उसने आगरे के दरबार- ए अकबरी तक पहुँचने में इतनी देर लगायी कि जब वह आख़िरकार आगरा पहुंचा तो अकबर का ग़ुस्सा इस क़दर बढ़ चुका था कि उसने दानियाल से मिलने से इंकार कर दिया. जहाँगीर नामा में सलीम दानियाल का ज़िक्र करते हुए लिखता है कि “उसे हिंदी शायरी, बन्दूकों और घोड़ों का बहुत शौक़ था. यह नामुमकिन था कि उसे मालूम हो कि किसी के पास अच्छा घोड़ा है और वह उसे हासिल न करे” . सलीम उसे अकबर की एक बेनिकाही बीवी की औलाद बताता है लेकिन पार्वती शर्मा अपनी किताब जहाँगीर ( इस कहानी के बहुत से रेफरेन्सेस इसी किताब से हैं) में लिखती हैं कि शायद उसकी माँ या तो सलीमा बेगम थी या वह लीजेंडरी अनारकली जिससे सलीम के इश्क़ पर एक निहायत कामयाब ड्रामा अनारकली और एक बॉलीवुड ब्लाक बस्टर मुगल- ए आज़म बन चुकी है.



अकबर का ग़ुस्सा कई दिन बाद ख़त्म हुआ और दानियाल दकन की मुहिम पर रवाना हुआ . अकबर कुछ दूर तक उसके साथ भी गया. उसे बहुत सारे मशवरों के अलावा वह सुर्ख ख़ेमा भी दिया जिसका इस्तेमाल सिर्फ़ बादशाह किया करता था. लेकिन इसके बावजूद दानियाल के मिज़ाज में कोई फ़र्क नहीं आया. तीन महीने बाद ख़ुद अकबर घोड़े पर सवार होकर उससे मिलने पहुंचा और समझाया कि उसे ज़रा फुर्ती से काम लेना चाहिये . यहाँ ध्यान देने वाली बात यह है कि आगरे को छोड़ते वक़्त उसने शहर को सलीम के बजाय अपने एक अमीर क़िलिच ख़ां की निगरानी में छोड़ना बहतर समझा.

दानियाल की लापरवाहियां बदस्तूर जारी रहीं. अकबर ने हर जतन करके देखा लेकिन सब बेकार. उसे अपनी पगड़ी इनाम में भेजी, घोड़ों के लिये उसके जूनून को देखते हुए एक बेहद आला नस्ल घोड़ा “हर प्रसाद” भेजा लेकिन दानियाल पर कोई फ़र्क नहीं पड़ा . दानियाल अकबर को क़समें खा- खा कर यह यक़ीन दिलाता रहा कि उसने शराब छोड़ दी है मगर उसकी शराबनोशी उसी शिद्दत के साथ जारी रही. अकबर को जब इसकी ख़बर हुई तो अकबर ने पहरा बैठा दिया कि दानियाल तक किसी सूरत शराब ना पहुँच सके. दानियाल के पास एक बंदूक थी जिसका नाम उसने “यक ऊ जनाज़ा” यानी एक ही बार में जनाज़े तक पहुँचाने वाली रखा था. एक दिन जब शराब की तलब ज़्यादा बढ़ी तो उसने अपने एक नौकर से कहा कि उस बंदूक़ की नाल में भरकर शराब ले आये. नौकर हुक्म न मानता तो क्या करता. वह इस बंदूक की नाल में सबसे छुपा कर शराब ले आया. नाल में जमी हुई गंधक शराब के साथ उसके गले से उतरी तो अपने नाम को सही साबित करते हुए यह बंदूक़  दानियाल को उसके जनाज़े तक ले गयी.

अकबर के ऊपर उसकी मौत से क्या गुज़री होगी यह समझना कोई मुश्किल नहीं. लेकिन दानियाल की मौत से पहले भी इस दौरान बहुत कुछ हो चुका था. सलीम जिसे अकबर ने मेवाड़ की मुहिम पर भेजा था वह अकबर की ग़ैर मौजूदगी का फ़ायदा उठा कर आगरे के किले पर क़ब्ज़ा करने की नाकाम कोशिश के बाद इलाहबाद से लगभग एक आज़ाद बादशाह की तरह हुकूमत चला रहा था. अकबर उसकी इस हरकत को नज़र अंदाज़ करता रहा लेकिन इस दौरान एक और बड़ा सानेहा हुआ.

अकबर की अबुल फ़ज़ल से क़ुर्बत और सलीम की उससे नफ़रत कोई छिपी हुई बात नहीं थी. सलीम कहीं न कहीं अपने और अकबर के दरम्यान ख़लिश के लिये अबुल फज़ल को ज़िम्मेदार मानता था. इस दौरान अबुल फ़ज़ल दकन की मुहिम पर था कि उसे अकबर का हुक्म मिला कि वह फ़ौरन आगरे की तरफ़ कूच करे . आगे जो हुआ उसके बारे में बहुत सारी रिवायतें हैं मगर मुख़्तसर यह कि आगरे से सिर्फ़ डेढ़ सौ किलोमीटर दूर अंतरी नाम के गाँव के पास ओरछा के राजा बीर सिंह बुंदेला ने अबुल फ़ज़ल का क़त्ल कर दिया और उसका सर काट कर सलीम के पास रवाना कर दिया.  सलीम ओरछा के इस राजपूत के बारे में लिखता है कि “बहादुरी और हिम्मत में उसका नाम दूसरे तमाम सरदारों में नुमायाँ था. मैंने उसे पैग़ाम भेजा कि वह इस शातिर ( अबुल फ़ज़ल ) इन्सान की राह रोके और उसके वुजूद को ख़त्म कर दे. बदले में वह मुझसे बड़े इनाम की उम्मीद कर सकता है”.  १२ अगस्त १६०२ की तारीख़ को अबुल फ़ज़ल गदाई ख़ां के साथ मारा गया.

जब अकबर को अबुल फ़ज़ल के क़त्ल की ख़बर मिली तो कहते हैं कि वह बेहोश हो गया और सलीम को कई दिन तक बुरा-भला कहता रहा. शाही फ़ौज के कई दस्ते ओरछा को रवाना हुए कि वह फ़रार बीर सिंह को उसके किये की सज़ा दे सकें. सज़ा सलीम को भी मिलनी थी लेकिन कुछ तो किले की औरतों के समझाने बुझाने पर और कुछ यह भी कि अकबर जानता था कि इस वक़्त सलीम से कोई बड़ा बिगाड़ उसकी हुकूमत को हिला कर ख़त्म भी कर सकता है, वह सलीम से मिलने को राज़ी हो गया. सलीमा सुल्तान बेगम इलाहबाद गईं और सलीम को बुला लायीं. सलीम ने आने की एक शर्त यह रखी कि उसकी दादी हमीदा बानो बेगम उसे अकबर के सामने पेश करें. ऐसा ही हुआ. हमीदा बानो बेगम उससे मिलने आगरे के बाहर गयीं और उसे अपने महल में ले आयीं. वह रात सलीम ने उनके महल में गुज़ारी. अगले रोज़ वह सलीम को लेकर दरबार में पहुंची और उसे अकबर के क़दमों में धक्का दे दिया. इस तरह इलाहबाद पहुँचने के तीन साल, अपनी नाकाम बग़ावत के दो साल और अबुल फ़ज़ल के क़त्ल के लगभग आठ महीने बाद अकबर और सलीम एक- दूसरे से मिल गये. कुछ दिन तक सब बज़ाहिर ठीक चलता रहा.

लेकिन क्या अकबर ने सलीम को माफ़ कर दिया था? हरगिज़ नहीं. बल्कि इस बार उसके पास एक दूसरा प्लान था. अगर सलीम औलाद, बड़ा बेटा,और हुकूमत का वारिस होने की वजह से अकबर की मजबूरी था तो औलाद सलीम के भी थी.  इस दौरान सलीम फिर एक बार मेवाड़ की मुहिम पर निकला लेकिन  सीकरी पहुँच कर उसने फिर इलाहाबाद का रास्ता लिया और वहां पहुँच कर शराब और शिकार में उसी तरह मसरूफ़ हो गया जिस तरह पहले हो गया था. शायद सलीम को आगरे पर यक़ीन नहीं रह गया था, और कुछ यह भी कि उसे यक़ीन हो गया था कि हुकूमत कुछ वक़्त बाद ख़ुद उसके पास आ जायगी. यह १६०३ का दौर था और अकबर का बुढ़ापा और दानियाल की शराब नोशी, जिसने उसे अभी तक उस नतीजे पर नहीं पहुंचाया था  जिसका ज़िक्र ऊपर हो चुका है, दोनों सलीम की नज़रों से पोशीदा नहीं थे और उसे सिर्फ़ इंतज़ार करना था. लेकिन तख़्त तक का सफ़र कभी आसान नहीं होता चाहे मुसाफ़िर कोई शहज़ादा ही क्यूँ न हो.

सलीम का बेटा और अकबर का पोता खुसरो इस वक़्त तक न सिर्फ़ जवान हो चुका था बल्कि उसकी शादी मिर्ज़ा अज़ीज़ कोका जैसे ताक़तवर दरबारी की बेटी से हो चुकी थी. वह राजा मानसिंह का भांजा भी था और सबसे बड़ी बात यह कि मुराद और दानियाल के शराब नोशी के हाथों पिट जाने के बाद अकबर के हाथों में मौजूद बचा अकेला मोहरा भी. क्यूँ न सलीम को भी पता चले कि जब औलाद बाग़ी होती है तो कैसा लगता है?

किसी के दिल में क्या है उसके बारे में यक़ीन से तो कुछ नहीं कहा जा सकता लेकिन अजब नहीं कि अकबर के दिल में आया हो कि सलीम की इससे बड़ी शिकस्त क्या होगी कि ख़ुद उसकी औलाद के हाथों उसे नीचा दिखा दिया जाये.

सलीम और खुसरो के बीच मामलात कैसे थे और किस हद तक ख़राब थे यह तो नहीं कहा जा सकता लेकिन इतना ज़रूर है कि दोनों के रिश्ते ठीक नहीं थे. एक बार बहुत पहले एक मुहिम पर जाते वक़्त जब सलीम ने खुसरो को अपने साथ ले जाना चाहा तो अकबर ने उसे इसकी इज़ाज़त नहीं दी. आज पढ़ने वालों को यह लग सकता है कि सलीम अपने बेटे को जज़्बये मुहब्बत के तहत अपने साथ ले जा रहा होगा मगर ऐसा नहीं था. उस दौर में जिस  पर शक होता था उसे इस तरह की मुहिम पर अपने साथ ले जाया जाता था. अकबर का खुसरो को सलीम के साथ न जाने देना और उसकी जगह सलीम के दूसरे बेटे परवेज़ को उसके साथ भेजना ही यह बताता है कि सलीम और खुसरो के बीच सब कुछ ठीक नहीं था. १६०४ में खुसरो की माँ मानबाई ने , जिसे खुसरो की पैदाइश पर शाह बेगम का ख़िताब मिला था, ख़ुदकुशी कर ली. एक रिवायत तो यह है कि वह हिस्टीरिया की मरीज़ थीं जिसके दौरे में उन्होंने हद से ज़्यादा अफ़ीम खा ली लेकिन मुहम्मद हादी बताता है कि वह अपने बेटे की उन शिकायतों से परेशान थी जो वह ( ख़ुसरो ) बराबर अकबर से सलीम के बारे में करता रहता था. और अगर हिस्टीरिया ही उनकी मौत का सबब  था तो हो सकता है वह उस आने वाले  खौफ़नाक वक़्त का तसव्वुर करके इस क़दर बढ़ गया हो कि उन्होंने अपनी ज़िंदगी को ख़त्म करना ज़्यादा बहतर समझा. बेटे और शौहर की इस जंग में उनकी हार तो दोनों तरफ़ से थी.

सलीम को शराबी, और आरामपसंद तो कहा जा सकता है मगर बेवकूफ़, ला परवाह और कम हिम्मत नहीं कहा जा सकता. अगर वह लापरवाह होता तो कभी हकीम के मशवरे पर अपनी शराब नोशी को कम न करता और बाक़ी दोनों भाईयों की तरह मर गया होता. अगर वह कम हिम्मत होता तो लोगों ने उसे एक शेर को बंदूक की बट से मारते हुए उस वक़्त नहीं देखा होता जब एक शेर ने उसके हाथी पर हमला कर दिया था और बंदूक़ से निशाना लेने तक का वक़्त नहीं था. वैसे भी अकबर की नाक के नीचे उसके सबसे क़रीबी और वफ़ादार दोस्त अबुल फ़ज़ल का क़त्ल करा देने वाला कम हिम्मत तो नहीं हो सकता. सलीम में सियासी समझ की भी कमी नहीं थी. सलीम बार- बार जो मैदान- ए जंग से बचता नज़र आता है तो उसकी वजह जंग का डर नहीं बल्कि यह डर था कि कहीं उसे जंग के बहाने राजधानी से दूर भेज कर उसके किसी दूसरे भाई को तख़्त पर नहीं बिठा दिया जाये. सलीम की सारी ज़िंदगी अपने बाप के साथ एक तरह का सियासी शतरंज खेलते हुए गुज़री थी. सलीम और अकबर दोनों एक- दूसरे का दिमाग पढ़ना जानते थे. इसी लिये अकबर ने जब ख़ुसरो को सलीम के साथ नहीं जाने दिया तो अजब नहीं सलीम उसी रोज़ समझ गया हो कि अकबर का आगे क्या इरादा है.

और शायद इसी लिये जब अकबर ने हाथियों की लड़ाई देखने की ख्वाहिश ज़ाहिर की और इसके लिये सलीम और ख़ुसरो के हाथियों का इंतेख़ाब किया तो सलीम और ख़ुसरो, दोनों को यह समझने में देर नहीं लगी कि इस लड़ाई का असली मकसद क्या है. दोनों शाहज़ादे ही नहीं बल्कि रियाया को भी इस लड़ाई का मक़सद मालूम था इसलिये २० सितम्बर १६०५ को आगरा में जमुना के किनारे इस लड़ाई को देखने के लिये लोगों की एक बड़ी तादाद जमा हो गयी.



हाथियों की इन लड़ाइयों के कुछ नियम हुआ करते थे. दोनों हाथियों के बीच में एक मिट्टी की दीवार होती थी जो पाले की निशानदेही करती थी. यानी लड़ने वाले हाथियों को अपने- अपने पाले में रहते हुए एक- दूसरे पर वार करने होते थे. लड़ने वाले दो हाथियों के अलावा एक तीसरा हाथी भी होता था जिसका रोल एक रेफ़री का तसव्वुर किया जा सकता है और इसका काम उस वक़्त हाथियों को अलग कराना होता था जब वह लड़ते-लड़ते आपस में बुरी तरह भिड जाया करते थे. इसके अलावा भिड़े हुए हाथियों को अलग करने के लिये चर्खियों का भी इस्तेमाल किया जाता था. चरखी एक क़िस्म का खोखला बांस हुआ करती थी जिसमें बारूद भरा होता था और जब इसे आग दिखाई जाती थी तो यह गोल- गोल घूमने लगती थी जिससे डर कर हाथी अलग हो जाया करते थे.

इस लड़ाई के लिये सलीम ने अपने हाथी “गिराबार” और ख़ुसरो ने “अपूर्व” नाम के अपने हाथी को मैदान में उतारा जबकि रेफ़री के बतौर अकबर के मख़सूस हाथीखाने का हाथी “रनमंथन” मौजूद था. यह सेटिंग महज़ एक इत्तेफ़ाक़ थी या अकबर के दिमाग़ का एक सियासी डिज़ाइन यह नहीं कहा जा सकता. इसी तरह इस लड़ाई में जो कुछ हुआ वह एक इत्तेफाक़ था या सलीम का अपने बाप को एक सियासी जवाब यह भी नहीं कहा जा सकता लेकिन उस रोज़ हाथियों की यह लड़ाई आगे चलकर सामूगढ़ और फिर और आगे चलकर जाजऊ की लड़ाई में तब्दील हो जायेगी उस वक़्त इसका अंदाज़ा वक़्त के अलावा किसी को नहीं था. न शहंशाह अकबर को, न उस वक़्त के सलीम और आने वाले वक़्त के शहंशाह जहाँगीर को, और न अपने दादा शहंशाह अकबर की गोद में बैठकर उस लड़ाई को देखने वाले उस वक़्त के ख़ुर्रम और आने वाले ज़माने के शहंशाह शाहजहाँ को.

यह सब वाक़यात अभी तारीख़ की कोख में उसी तरह छुपे हुए थे जैसे कभी दाराशिकोह,शाह मुराद और औरंगज़ेब उस मुमताज़ महल की कोख में पोशीदा थे  जो इस वक़्त कहीं गुड़ियों से खेल रही होगी,और ताज महल कहीं संग मर्मर की शक्ल में किसी ज़मीन की तह में दबा हुआ इसी जमुना के किनारे किसी बरगद के पेड़ की तरह उग आने का इंतज़ार कर रहा था जिस जमुना के किनारे सलीम और ख़ुसरो के हाथी अकबर के हाथी की निगरानी में एक- दूसरे से भिड़ जाने के लिये तैयार थे. 

गिरांबार का मतलब होता है बहुत ज़्यादा भारी और सलीम का यह हाथी अपने नाम के मानी के एन मुताबिक़ था. यह हाथी जब झूमता हुआ चलता तो ऐसा मालूम होता था कि कोई छोटी सी पहाड़ी हरकत में आ गयी है. किसी अशदहे की मानिंद सूंड के दोनों तरफ़ निकले हुए सफ़ेद और सुडौल लम्बे सफ़ेद दांत दूर से देखने पर ऐसे लगते थे गोया कोई देव अपने दोनों हाथों में चमकती हुई तलवारें लिये चला आता हो. दोनों हाथियों को पहले गन्ने की शराब पिलाई गयी और जब दोनों मस्त हो गये तो अपने-अपने माथों पर लोहे के मस्तकपोश पहन कर एक- दूसरे से भिड़ने के लिये एक- दूसरे के सामने आ गये. सलीम और ख़ुसरो भी अपने-अपने घोड़ों पर सवार अपने-अपने हाथियों के पालों में हाथियों से एक मुनासिब दूरी पर आकर खड़े हो गये. दोनों के तरफ़दार जैसे ख़ूबू ख़ां, राजा मान सिंह और मिर्ज़ा अज़ीज़ कोका भी इस लड़ाई का नज़ारा कर रहे थे और शहंशाह अकबर, अपने पोते ख़ुर्रम और आने वाले वक़्त के शहंशाह शाहजहाँ को अपनी गोद में लिये किले के झरोके से इस लड़ाई को देखने के लिये मौजूद था. लड़ाई शुरू होने के इशारे के साथ ही दोनों हाथियों के महावतों ने उनके अंकुस लगाये तो दोनों चिंघाड़ कर एक-दूसरे से भिड़ गये और ग़ुस्से में एक दुसरे से इस शिद्दत से टकराने लगे कि उनके माथों पर चढ़े लोहे के मस्तकपोशों से चिंगारियां निकलने लगीं. दोनों के तरफ़दार इन हाथियों का हौसला बढ़ाने लगे और जिसका हाथी भारी पड़ने लगता उसके तरफ़दारों का शोर बढ़ जाता. एक वक़्त ऐसा आया कि दोनों हाथियों ने माथे से माथा सटाकर अपनी सूंडे इस तरह लपेट लीं जैसे दो अजगर एक-दूसरे से लिपट जाते हैं. हाथियों का तो नहीं कहा जा सकता मगर दोनों के महावतों को ज़रूर मालूम था कि यह लड़ाई कोई मामूली लड़ाई नहीं बल्कि इस लड़ाई के नतीजे पर हिंदुस्तान के तख़्त का फ़ैसला टिका हुआ है तो दोनों में से कोई पीछे हटने को तैयार नहीं था. कभी गिरांबार थोड़ा-सा पीछे दब जाता कभी अपूर्व. हाथियों के साथ दोनों के तरफ़दारों का जोश भी बढ़ता गया और भीड़ से “ मार,, और मार” जैसे नारे बुलंद होने लगे. जिस वक़्त यह दोनों हाथी गुथे हुए थे उस वक़्त गिरांबार हल्का-सा पीछे को दबा और अपूर्व को दाईं तरफ़ से हमला करने को थोड़ी-सी जगह मिल गयी. उसके महावत ने उसके सर पर तेज़ अंकुस लगाया और अपूर्व के मस्तकपोश में लगे भाले के फल ने गिरांबार की आँख से थोड़ा नीचे एक ज़ख्म लगा दिया जिससे खून बहने लगा. गिरांबार ज़ोर से चिंघाड़ा मगर उसकी चिंघाड़ ख़ुसरो के तरफ़दारों के शोर में दब गयी. ख़ुसरो के होंटों पर एक महीन सी मुस्कराहट आ गयी लेकिन वह मुस्कराहट महीन होने के बावजूद सलीम की आँखों से टकराई और माथे पर बल बनके उभरी जिसे सलीम के महावत ने लड़ाई में मसरूफ़ होने के बावजूद देख लिया. ज़ख़्मी होकर गिरांबार अपूर्व से अलग हो गया था और अपूर्व का महावत उसे थोड़ा पीछे ले गया था ताकि  घूम कर एक और हमला करने की जगह मिल जाये. गिरांबार का महावत मुख़ालिफ़ का इरादा भाँप गया और उसने उसे थोड़ा और पीछे हटा लिया और एक चक्कर देकर ऐसा अंकुस लगाया कि गिरांबार तोप के गोले की तरह अपूर्व पे लपका. इसी दौरान जब दोनों हाथी एक-दूसरे से दोबारा भिड़ने ही वाले थे कि महावत का इशारा पाकर गिरांबार ने अपनी सूंड हवा में उठाई और महावत ने उसमें एक अंकुस पकड़ा दिया जिससे गिरांबार ने अपूर्व पर वह ताबड़तोड़ हमले किये कि अपूर्व के पैर उखड़ गये. सलीम के तरफ़दारों के शोर से जमुना का पानी उछलने लगा. गर्मी, ज़ख़्म, गन्ने की शराब के नशे और भागते हुए मुख़ालिफ़ की कमर देखकर गिरांबार पागल हो उठा और पाले की निशानदेही करने वाली दीवार को गिरा कर अपूर्व पर वार पर वार करने लगा. यह लड़ाई के क़ायदे के हिसाब से फ़ाउल था और ख़ुसरो ने घोड़ा दौड़ाकर बादशाह अकबर से इसकी शिकायत की. फ़ौरन बादशाह का हाथी “ रनमंथन” दोनों को अलग करने के लिये बीच में आ गया जिसे सलीम के तरफ़दारों ने बादशाह की ख़ुसरो की तरफ़दारी ख्याल किया और हाथी पर पथराव शुरू कर दिया. अकबर ने शायद ही कभी इस नज़ारे का तसव्वुर किया हो कि उसकी रियाया उसके ख़ास हाथी पर पथराव भी कर सकती है. उसे लगा कि हो न हो यह सलीम की शय पर हो रहा है. फ़ौरन ख़ुर्रम को हुक्म हुआ कि “जाओ अपने शाह भाई से कहो कि जब तुम्हारा हाथी जीत चुका है तो फिर इस बदतमीज़ी की क्या ज़रूरत है” ख़ुर्रम फ़ौरन घोड़ा दौड़ाता सलीम के पास पहुंचा और शहंशाह अकबर का पैग़ाम पहुँचाया जिस पर सलीम ने मुस्कुरा कर जवाब दिया “ आलमपनाह की बदगुमानी बेसबब है. हाथी के ग़ुस्से और भीड़ के उमड़े हुए जज़्बात के पीछे ख़ादिम का कोई हाथ नहीं” . इस दौरान एक और निहायत अजीब वाक़ेया हुआ कि गिरांबार ख़ुसरो के हाथी को छोड़कर अकबर के हाथी रनमंथन से भिड़ गया. चर्खियाँ छोड़ी गयीं मगर गिरांबार रनमंथन से अलग नहीं हुआ और ऐसा लगा कि जैसे सलीम का इतने बरसों का ग़ुस्सा गिरांबार में समां गया हो . वह रनमंथन पर हमले पर हमले करता और धकेलता हुआ उसे जमुना के अन्दर ले गया. आख़िरकार एक नाव ने बीच में आकर दोनों हाथियों को अलग किया. 

शाही हाथी का इस तरह आम लोगों की आँखों के सामने पिट जाना उस अकबर के लिये एक बहुत बड़ा सानेहा था जिस अकबर ने आज तक किसी मैदान- ए जंग में शिकस्त का मुंह नहीं देखा था.

अकबर बीमार पड़ गया. हकीम अली ने बहुत दवाएं दीं लेकिन सब बेकार गयीं. अकबर की हालत दिन-ब-दिन बिगड़ती गयी यहाँ तक कि हकीम अली मारे डर के ग़ायब हो गये और शेख फ़रीद के पास पनाह ली. सलीम जमुना पार डेरा डाले हुआ था. अकबर की ठंडी पड़ती साँसों के साथ सियासत गर्माने लगी . मिर्ज़ा अज़ीज़ कोका और मान सिंह दोनों सलीम को जेल में डालकर ख़ुसरो को तख़्त पर बैठाने की कोशिश में मसरूफ़ हो गये . इन दोनों ने अमीरों की एक मीटिंग बुलाई जिसमे ख़ुसरो की तख़्त नशीनी पर गुफ़्तगू होनी थी. इस मीटिंग में सभी अमीरों और ख़ास कर बारेहा के सय्यद खां ने कहा कि बाप के होते हुए बेटे को तख़्त पर बैठाना ख़ानदान- ए तैमूर की रिवायत के ख़िलाफ़ है.

सय्यद खां जैसे ताक़तवर अमीर की बात को नज़र अंदाज़ करना किसी के लिये आसान नहीं था. उन्होंने ढोल-नगाड़ों के साथ जमुना पार की और सलीम से जाकर मिल गये. दूसरे अमीरों ने हवा का रुख़ देखा तो एक-एक कर सब सलीम को मुबारकबाद देने पहुँच गये यहाँ तक कि मिर्ज़ा अज़ीज़ कोका ने भी आकर सलीम की बैयत कर ली.

अगले दिन अकबर और सलीम का आखिरी बार सामना हुआ. दोनों ख़ामोश रहे. फिर अकबर अपनी तमाम ताक़त इकठ्ठा करके अपनी ज़िंदगी के आखिरी झरोका-दर्शन के लिये झरोके में आया. सलीम को इशारे से हुक्म दिया कि वह उसकी पगड़ी और क़लअत पहन ले. सलीम ने ऐसा ही किया. फिर इशारा हुआ कि वह अकबर का जड़ाऊ ख़ंजर अपनी कमर में बाँध ले. सलीम ने इस हुक्म पर भी अमल किया. अकबर ने सलीम पर एक आख़री नज़र डाली और आँखें बंद कर लीं.

सलीम हिंदुस्तान का शहंशाह बन चुका था.



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