आजकल हमारे शास्त्रों के कुछ अंश को प्रक्षिप्त करने का चलन बढ़ गया है। कथावाचक यदि शास्त्र की सही रूप से व्याख्या नहीं कर पाते हैं तो उसे प्रक्षिप्त कह देते हैं और इस अवस्था में वह हमारे परमात्मा को भी जाने-अनजाने में अपराधी साबित कर देते हैं। शास्त्र की दृष्टि से यह अधर्म का कार्य है। सवाल यह आता है कि उन लोगों ने अपने शास्त्र को प्रक्षिप्त क्यों कहा और उनकी विशेष मानसिकता ऐसी क्यों है।
उसके उत्तर में संत तुलसीदास जी महाराज कहते हैं:
जे श्रद्धा संबल रहित नहिं संतन्ह कर साथ।
तिन्ह कहुँ मानस अगम अति जिन्हहि न प्रिय रघुनाथ।।
अर्थात जिनके पास श्रद्धारूपी राह-खर्च नहीं है और संतों का साथ नहीं है और जिनको श्री रघुनाथ जी प्रिय नहीं हैं, उनके लिए यह मानस अत्यंत ही अगम है। कहने का आशय है कि श्रद्धा, सत्संग और भगवत प्रेम के बिना कोई इसको नहीं पा सकता।
इससे पहले तुलसीदास जी कहते हैं:
राम अनंत अनंत गुन अमित कथा बिस्तार।
सुनि आचरजु न मानिहहिं जिन्ह कें बिमल विचार।।
अर्थात श्री रामचंद्र जी अनंत हैं, उनके गुण भी अनंत हैं और उनकी कथाओं का विस्तार भी असीम है। अतएव जिनके विचार निर्मल हैं, वह इस कथा को सुनकर आश्चर्य नहीं मानेंगे।
जनमानस को यह समझना होगा कि भगवान अपराधी नहीं है और माता करुणा की पात्र नहीं है क्योंकि माता तो खुद करुणामयी है और वह करुणा के रूप में हमें दया देती है और भगवान श्रीरामचंद्र तो स्वयं ही अपराध से ऊपर हैं। जनपद पर लिखे पिछले लेख में मैंने कहा था कि यह मायारूपी अज्ञान ही हमें भगवान में अपराध और गलत निर्णय देने के लिए प्रेरित करता है जिसे हमें तुरंत खत्म कर देना चाहिए।
राम को पूजने के लिए आपको खुद पुरुषोत्तम होना होगा अर्थात अज्ञान से निकलना होगा…
उदाहरण के लिए, माता सीता का वनगमन उनकी अपनी इच्छा थी। उनकी इच्छा के चलते ही प्रभु श्री राम ने माता सीता को अपने से अत्यधिक पराक्रमी और संस्कारी पुत्र के जन्म लेने हेतु उस समय के सर्वज्ञ ज्ञानी महर्षि वाल्मीकि के आश्रम में छोड़ा था। इस प्रसंग को हम वाल्मीकि रामायण के माध्यम से ही समझेंगे।
वाल्मीकि रामायण के उत्तरकांड के 42वें सर्ग में वर्णित है अशोकवनिका में श्रीराम और सीता माता का विहार तथा गर्भिणी सीता माता का तपोवन देखने की इच्छा प्रकट करना और श्रीराम का इसके लिए सुकृति देना। इसमें वर्णन किया गया है कि किस तरह से राजदंपती ने सदा भोग प्रदान करने वाले उस शिशिर ऋतु का सुंदर समय व्यतीत किया। माता सीता गर्भवती भी हो जाती हैं और उस गर्भवती स्त्री से श्री रामचंद्र पूछते हैं, “हे वरारोहे! बताओ, तुम्हारी क्या इच्छा है? मैं तुम्हारा कौन-सा मनोरथ पूर्ण करूं?” (किमिच्छसि वरारोहे कामः किं क्रियतां तव)।
उन्होंने ऐसा इसलिए कहा क्योंकि भारतीय जीवनशैली में गर्भवती स्त्री की हर इच्छा को पूर्ण करने का दायित्व उसके पति पर आता है जिसे उसका पति हरसंभव पूरा करने की कोशिश भी करता है। यहां तो साक्षात भगवान श्री रामचंद्र हैं, फिर उनके लिए तो यह पूरा करना आवश्यक ही था क्योंकि वह मर्यादा के पालक और रक्षक दोनों ही हैं।
इस पर सीता जी ने मुस्कुराकर श्री रामचंद्र जी से कहा- “रघुनंदन! मेरी इच्छा एक बार उन पवित्र तपोवनों को देखने की हो रही है। देव! गंगातट पर रहकर फल-मूल खानेवाले जो उग्र तेजस्वी महर्षि हैं, उनके समीप रहना चाहती हूं। काकुत्स्थ! फल-मूल का आहार करने वाले महात्माओं के तपोवन में रात्रि निवास करूं, यही मेरी इस समय सबसे बड़ी अभिलाषा है।” (तपोवनानि पुण्यानि द्रष्टुमिच्छामि राघव। गंगातीरोपविष्टानामृषीणामुग्रतेजासाम।। फलमूलाशिनां देव पादमुलेषु वार्तितुम। एष मे परमः कामो यन्मूलफलोभोजिनाम।। अप्येकरात्रि काकुत्स्थ निवसेय तपोवने।)
काकुत्स्थ अर्थात संरक्षक राजा राम ने कहा, “विस्रब्धा भव वैदेहि श्वो गमिष्यस्यसंशयम।।” अर्थात् विदेहनंदिनी! निश्चिंत रहो। कल ही वहां जाओगी, इसमें संशय नहीं है।
यहां यह समझना अत्यावश्यक है कि भगवान श्री रामचंद्र ने यहां माता सीता को भद्रे की जगह वरारोहे कहा है क्योंकि वरारोहा माता लक्ष्मी का नाम है जो हमेशा आशीर्वाद देती हैं और लोगों को वंश वृद्धि में सहायता प्रदान करती हैं। चूंकि यहां माता सीता गर्भवती हैं अतः उनका नाम वरारोहा ही सार्थक है।
सीता जिस दिन कोई कदम उठाएगी, सारे सच एक झटके में अप्रासंगिक हो जाएंगे…
अब पुनः मन में जिज्ञासा आती है कि भगवान श्रीराम माता सीता को महर्षि के आश्रम में क्यों छोड़ेंगे। तो इसका उत्तर है कि हर पिता की एक अभिलाषा होती है कि उसका पुत्र उससे भी अधिक प्रतापी, ज्ञानी, गुणवान और संस्कारी हो। जहां पर पिता समस्त विश्व को जीतने की कामना करता है वहीं पर वह अपने पुत्र और अपने शिष्य से हारने की कामना करता है। अयोध्या की उस नगरी में जहां स्वयं भगवान श्रीराम आधे दिन अर्थात दिन के पूर्व भाग में धर्म के अनुसार धार्मिक कृत्य करते थे और शेष आधे दिन अंत:पुर में रहते थे (पूर्वाहने धर्मकार्याणी कृत्वा धर्मेण धर्मवित। शेष दिवसभागाधर्मन्तः पुरगतोsभवत।।) उस नगरी में प्रतापी पुत्र का जन्म लेना संशय का विषय था क्योंकि प्रभु श्रीराम स्वयं भी महर्षि विश्वामित्र के सानिध्य में ही अस्त्र-शस्त्र की शिक्षा में पारंगत हुए थे ना कि प्रासाद में बैठकर।
भगवान श्री कृष्ण ने गीता में अर्जुन से कहा कि वह स्वयं कोई कार्य नहीं करते हैं। मैंने पहले भी लिखा था कि भगवान राम तो स्थिर हैं, वह कोई कार्य स्वयं नहीं करते हैं अतः “निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन्” सूत्र के अनुसार भगवान श्रीराम को भी माता सीता को वनगमन करने देने के लिए किसी एक निमित्त की आवश्यकता थी और वह निमित्त बना उनका प्रिय सखा भद्र। इसे आगे समझेंगे कि कैसे प्रजा का यह व्यवहार त्रेता युग के अंत और द्वापर की शुरुआत की कहानी को लिखता है। महाराज श्रीराम के पास अनेक प्रकार की कथाएं कहने में कुशल हास्य विनोद करने वाले सखा सब ओर से आकर बैठते थे जिनमें विजय, मधुमत्त, काश्यप, मंगल, कुल, सुराजि, कालिय, भद्र, दंतवक्त्र और सुमागध प्रमुख थे। यह सब लोग बड़े हर्ष से भरकर श्री रघुनाथ जी के सामने अनेक प्रकार की हास्य विनोद पूर्ण कथाएं कहा करते थे। इसी समय किसी कथा के प्रसंग में श्री रामचंद्र जी ने भद्र से पूछा आजकल नगर और राज्य में किस बात की चर्चा विशेष रूप से होती है? अब यह देखने वाली और गौर करने वाली बात है कि प्रभु श्रीराम ने पूछा कि नगर और जनपद के लोग उनके, सीता के, भरत के, लक्ष्मण के, शत्रुघ्न के, और माता केकैयी के विषय में क्या-क्या बातें करते हैं क्योंकि राजा यदि आचार विचार से हीन हो तब अपने राज्य में या वन में (अर्थात ऋषि-मुनियों के आश्रम में) भी निंदा की विषय बन जाते हैं। सर्वत्र उन्हीं की बुराइयों की चर्चा होती है। भगवान श्री राम ने माता कौशल्या और माता सुमित्रा के बारे में कुछ नहीं पूछा।
भद्र कहने लगे कि आजकल पुरवासियों में महाराज श्रीराम को लेकर सदा ही अच्छी चर्चाएं चलती हैं। सौम्य! पुरुषोत्तम! दसग्रीववधसंबंधी जो उनकी विजय है उसको लेकर नगर में सब लोग अधिक बातें किया करते हैं। राजा रामचंद्र जी ने आगे पूछा पुरवासी उनके विषय में कौन-कौन सी शुभ या अशुभ बातें करते हैं उन सब को यथार्थपूर्वक भद्र बतावें। इस समय उनकी शुभ बातें सुनकर जिन्हें वे शुभ मानते हैं उनका श्रीराम आचरण करेंगे और अशुभ बातें सुनकर जिन्हें वे अशुभ समझते हैं उन कृत्यों को त्याग देंगे।
“हे भद्र तुम विश्वस्त और निश्चिंत होकर बेखटके कहो कि पुरवासी और जनपद के लोग मेरे विषय में किस प्रकार की अशुभ चर्चाएं करते हैं।”
यहां पर अहिंसक प्रभु श्रीराम का स्वरूप स्पष्ट रूप से परिलक्षित होता है। राजयोग में अहिंसा की स्पष्ट व्याख्या उपलब्ध है जिसका मनोवैज्ञानिक प्रभाव है और वह यह है कि हमें किसी को भी परेशान नहीं करना चाहिए और ना ही मन, वचन और कर्म से किसी का भी अनिष्ट करना चाहिए। यदि कोई आप के प्रति वैर भाव पोषण करता है तो आपको बदले में वैर की भावना ना कर शुभ भाव का प्रेषण करना चाहिए और इससे शत्रु भाव समाप्त हो जाता है।
अब भद्र कहते हैं राजन! सुनिए, पुरवासी मनुष्य चौराहों पर, बाजार में, सड़कों पर तथा वन में और उपवन में भी आप के विषय में कहते हैं श्री राम ने समुद्र पर पुल बांधकर दुष्कर कर्म किया है ऐसा कर्म तो पहले के किन्हीं देवताओं और दानवों ने भी नहीं सुना होगा। श्रीराम द्वारा दुर्धर्ष रावण सेना सवारियों सहित मारा गया तथा राक्षसों सहित रीछ और वानर भी वश में कर लिए गए परंतु एक बात खटकती है, युद्ध में रावण को मारकर श्री रघुनाथ जी सीता को अपने घर ले आये। उनके मन में सीता के चरित्र को लेकर रोष या अमर्ष नहीं हुआ! उनके हृदय में सीता-संभोगजनित सुख कैसा लगता होगा? पहले रावण ने बलपूर्वक सीता को गोद में उठाकर उनका अपहरण किया था फिर वह अपने लंका भी ले गया और वहां उसने अंत:पुर के क्रीड़ा कानन अशोकवानिका में रखा। इस प्रकार राक्षसों के वश में होकर बहुत दिनों तक रहे तो भी श्रीराम उनसे घृणा क्यों नहीं करते हैं। अब हम लोगों को भी स्त्रियों की ऐसी ही बातें सहनी पड़ेगी क्योंकि राजा जैसा करता है प्रजा भी उसी का अनुकरण करने लगती है।
यह सुनते ही श्रीरामचन्द्र जी जब उस सभा में उपस्थित सभी मित्रों से पूछते हैं कि क्या भद्र का यह कथन सही है तो सभी मस्तक नीचे करके एक ही स्वर में कहते हैं कि भद्र का यह कथन बिल्कुल सही है और राजा को अपना आचरण ऐसा रखना चाहिए जिससे कि प्रजा में किसी तरह की कोई अशुभ चर्चा ना हो। यदि कोई व्यक्ति सांसारिक सुख के पीछे भागता है तो संसार उससे दूर भागता है यह मर्यादा पुरुषोत्तम श्री रामचंद्र पर भी सटीक बैठ गया। उन्होंने मर्यादा को पकड़ना चाहा, उन्होंने लोक लाज को अपनाया लेकिन उसी समाज ने उन्हें अपराधी की श्रेणी में लाकर खड़ा कर दिया।
अब श्रीराम लक्ष्मण जी से कहते हैं कि गंगा के उस पार तमसा के तट पर महात्मा वाल्मीकि मुनि का दिव्य आश्रम है। सीता ने उनसे पहले कहा था कि वह गंगातट पर ऋषियों के आश्रम देखना चाहती हैं अतः उनकी यह इच्छा भी पूर्ण की जाय।
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यदि यह सब इतना सुनियोजित और इच्छित था तो फिर सीता और राम ने एक दूसरे से बिछुड़ने पर विलाप क्यों किया? फिर माता मूर्छित क्यों हुईं? उन्होंने अपने आपको अभागिनी क्यों कहा?
तो उसका एक उत्तर यह है कि पतंजलि कहते हैं, “मैत्री करुणामुदितोपेक्षा सुख दुःख पुण्यापुण्य विषयानां भावनातश्चित्तप्रसादनम” अर्थात सुखी के प्रति मैत्री, दुःखी के प्रति करुणा, पुण्य के प्रति हर्ष एवं पाप के विषय में उपेक्षा से चित्त प्रसन्न रहता है। इसका दूसरा उत्तर यह भी है की एक बार माता सीता ने भी तो इंद्र की गलती के कारण श्रीराम को छोड़ दिया था और फिर भगवान ने दुरूह समुद्र मंथन कर वापस उन्हें पाया और कर्म सिद्धांत के अनुसार प्रत्येक क्रिया के विपरित और बराबर प्रतिक्रिया होती है जिससे परमात्मा भी अछूते नहीं हैं। अतः माता को भी कष्ट को सहना पड़ा। यह बात महर्षि दुर्वासा जानते थे क्योंकि इंद्र के अपराध के समय भी वह वहीं उपस्थित थे अतः उन्होंने पहले ही दशरथ को कह दिया था की श्रीराम सबों को यहां तक कि अपने भाइयों को भी छोड़ देंगे। (भविष्यति दृढ़न् रामो दुःखप्रायो विसौख्यभाक। प्राप्स्यते च महाबाहूर्विप्रयोगम प्रियैर्द्रुतम।।)
जिस तरह मनुष्य ध्यान लगाने में असफल होने पर योग विज्ञान अथवा योगशिक्षा पर लांछन लगाते हैं, उसी प्रकार शास्त्र को नहीं जानने पर विक्षिप्त महत्वाकांक्षी मूढ़ उसे प्रक्षिप्त घोषित कर देते हैं। शास्त्र को प्रक्षिप्त वही घोषित करते हैं जिन्हें अंधविश्वास घेरे हुए है। पतंजलि कहते हैं “ते प्रतिप्रसवहेयो: सूक्ष्मा” अर्थात विपरीत तरंग सृष्टि कर क्लेशों पर विजय प्राप्त किया जा सकता है। इसे स्वामी अभेदानंद परिभाषित करते हैं, “अंधानुकरण से कार्यसिद्ध नहीं होगा क्योंकि अंधविश्वास द्वारा यथार्थ ज्ञान प्राप्त नहीं किया जा सकता है। अंधविश्वास के वशीभूत होकर हम युक्ति से विमुख हो जाते हैं एवं कुसंस्कारग्रस्त हो जाते हैं, फलस्वरूप नाना प्रकार के अनावश्यक भय हमारे सामने उपस्थित हो जाते हैं। इसलिए हमें धर्म के संबंध में अपनी धारणा- आध्यात्मिक जीवन की धारणा, ईश्वरानुभव की धारणा- को सरल कर लेना होगा, तब प्रति पग पर ही ज्ञान और तृप्ति मिलेगी।‘’
यह कहानी यह भी शिक्षा देती है कि त्रेता के अंत में अहिंसा का ह्रास हो गया है क्योंकि प्रजा गुण दोष के अन्वेषण में लिप्त है। उसे राजा अपने गुणानुसार चाहिए। काकुत्स्थ पर कुब्जा हावी हो जाता है। प्रजा दोषारोपण में अव्वल है और उसे भगवान भी दोषी जान पड़ते हैं जो द्वापर के आगमन का संकेत मात्र भर है जहां हर जगह हिंसा व्याप्त है।
आवरण चित्र: Hanuman Carrying the Mountain of Medicinal Herbs (left); Rama Battles Ravana (right), Architectural Panel with Ramayana (Adventures of Rama) Scenes, स्रोत: Wikipedia