‘भारत जोड़ो यात्रा’ कैसे बन गयी है संविधान बचाओ यात्रा? सौ दिन पूरे होने पर एक यात्री के विचार


राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा ने 100 दिन पूरे कर लिए। तमिलनाडु के समुद्रतट कन्याकुमारी से राजस्थान के मरूस्थल तक आठ राज्यों से हम गुज़र चुके हैं। इस यात्रा का विस्तार जितना बाहरी है उससे कहीं ज़्यादा आंतरिक है।

दरअसल भारत किसी भी अन्य आधुनिक राष्ट्र-राज्य से इस मायने में ऐतिहासिक तौर से अलग रहा कि इसकी बाहरी अभिव्यक्ति उसकी आंतरिक जटिल भावनाओं और बनावट का प्रतिबिंब रही है। जब उसका अंतर्मन जुड़ा रहता है तो बाहर से भी वह जुड़ा दिखता है। गांधी और नेहरू ने उसके इसी अंतर्विरोधों से भरे अन्तर्मन को व्यवस्थित करके दुनिया के सामने एक उदाहरण के बतौर रख दिया था। वरना अपने आसपास देखिए, कितने मुल्क होंगे जहां इतनी विविधताएं हों!

इसीलिए इस यात्रा में हमें सुदूर गांवों में भी ऐसे पड़ाव मिले जहां गांधी और नेहरू रुके थे। पिछली सदी की तीसरी या चौथी दहाई में उनके केरल के किसी गांव में एक दोपहर को किसी पेड़ के नीचे की गयी बैठक या कर्नाटक के किसी गांव में बितायी गयी रात ने पंजाब और बंगाल के गांवों के लोगों को एक सूत्र में बांध दिया था। यही लोगों को जोड़ने वाली अंतर्मन की यात्रा होती है। गांधी और नेहरू ने यही किया था। दरअसल यह देश ही यात्राओं से बना है। इसीलिए जब भी हमारी यह आंतरिक यात्रा कमज़ोर हुई हमारी बाहरी अभिव्यक्ति भी अस्वस्थ होती गयी।

अगर इस यात्रा के प्रतीकों से इसे समझें तो यह आश्चर्य की बात नहीं होगी कि तमिलनाडु से महाराष्ट्र तक मुझे करीब एक हज़ार लोग, खासकर छोटे बच्चे, गांधी का वेष धारण किये यात्रा के स्वागत में खड़े मिले। जैसे-जैसे हम मध्य प्रदेश की सीमा की तरफ बढ़ते गए इनकी संख्या कम होती गयी। सनद रहे कि हिंदुत्ववादी राजनीति मूलतः हिंदी पट्टी की ही राजनीति है और उसकी बुनियाद गांधी और नेहरू की छवि को धूमिल करने के अभियान पर टिकी है।

इसीलिए इस यात्रा का केंद्र बिंदु स्वतः हमारे स्वतंत्रता आंदोलन के नायक और हमारे संवैधानिक मूल्य बनते गए हैं। समूह में खड़े ऐसे हज़ारों लोग हमें मिले जो गांधी, नेहरू, अंबेडकर, भगत सिंह, सुभाष चन्द्र बोस, टीपू सुल्तान, शिवाजी, अन्ना भाऊ साठे, बिरसा मुंडा, इंदिरा गांधी, और नरेंद्र दाभोलकर की फोटो लिए हुए थे। हिंदुत्ववादी आतंक का शिकार हुईं गौरी लंकेश की फोटो वाली एम्बुलेंस तो शुरू से ही साथ चल रही है।

इस यात्रा में एक पार्टी के बतौर कांग्रेस अब पीछे छूट चुकी है। इस यात्रा में वह सिर्फ़ निमित्त मात्र है। कांग्रेस यहां भारतीयता के पर्याय के बतौर चल रही है, जो समावेशी है, सबको साथ लेकर चलने में यकीन रखती है। यही भारत का डीएनए है। शरीर के सारे अंग बदले जा सकते हैं लेकिन डीएनए कभी नहीं बदला जा सकता।

इस भारतीय अंतर्मन की बाहरी अभिव्यक्ति हमारा संविधान है। इसीलिए भारत जोड़ने की यह यात्रा अपने आप संविधान बचाओ यात्रा में तब्दील होती गयी है क्योंकि आप जब गांधी, नेहरू, कलाम, अंबेडकर या भगत सिंह की याद लोगों को दिलाएंगे तो उसकी सर्वोच्च बाहरी अभिव्यक्ति संविधान में ही होती है, चूंकि वे जिस इतिहासबोध को निर्मित करते हैं वह संविधान में आकर ही पूर्णता पाता है। आप याद कीजिए कि कैसे संघ और भाजपा ने मन्दिर के बहाने एक नकारात्मक यात्रा के माध्‍यम से हमारी इतिहास की समझ को दूषित किया था।

दूसरे शब्दों में, हम इतिहास की समझ की सकारात्मक और नकारात्मक प्रवृत्तियों के बीच के संघर्ष के संक्रमण-काल से गुज़र रहे हैं। यह कोई नया संघर्ष नहीं है। हर देश, समाज, इस तरह के संघर्ष से कभी न कभी गुज़रता ही है। इस बात को राहुल गांधी से बेहतर कौन समझता है? कांग्रेस अध्यक्ष के पद से इस्तीफ़ा देते वक़्त उन्होंने जो पत्र लिखा था उसमें स्पष्ट कहा था कि देश में यह संघर्ष हज़ारों साल से चल रहा है।

यह यात्रा भी नयी नहीं है। बुद्ध, गुरुनानक, गांधी जैसे लोग इसे पहले कर चुके हैं। आगे भी लोग करते रहेंगे। शायद इसीलिए साथ चलते हुए राहुल गांधी ने एक दिन मुझसे कहा था- ‘भारत एक महान यात्रा का नाम है’!


(लेखक भारत जोड़ो यात्रा में शामिल हैं और उत्तर प्रदेश अल्पसंख्यक कांग्रेस के अध्यक्ष हैं)


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