काश, कोई मजदूर अनुवादक होता तो तुम अभागे न होते, मेरे मजदूर साथियों!


मेरे अभागे साथियों,

आज का दिन दशकों से हमारे नाम रहा, दुनिया भर में इसे अलग-अलग तौर पर मनाया जाता रहा, तो फिर मैं तुम्हें अभागा कह कर क्यों संबोधित करूँ? शायद इसलिए कि हम में से कई आज की रात सड़क के किनारे भूखे बिताएंगे, कई कदम बढ़ रहे होंगे अपने घरों की ओर, कई कल की रोटी न मिलने के विचार से बिस्तर पर लोट रहे होंगे। मुझे सचमुच कोई उम्मीद नहीं है कि ऐसा एक भी इंसान जिसके लिए यह पत्र संबोधित है, इसे पढ़ भी पाएगा, और इसलिए मैंने लिखा है– मेरे अभागे साथियों!

क्या तुम किसी जीवन को पृथ्वी के लिए बोझ मानते हो? मैं जानता हूं कि नहीं मानते क्योंकि गंदे हाथों की कमाई हमेशा साफ होती है। लेकिन ऐसे लोग हैं दुनिया में जो तुम्हें बोझ मानते हैं। तुम वो हो जिसके बारे में सरकारें बोलती सबसे पहले और सोचती सबसे आखिर में हैं। तुम वो हो जो शराब पी कर बर्बाद है, जो जुआरी भी है और घर का इकलौता कमाने वाला भी। तुम्हें बच्चे भी पढ़ाने हैं और राशन भी लाना है; खाना पका कर काम पर भी जाना है। तुम वो हो जो निहायत बेवकूफ है क्योंकि सालों से डस रहे नेताओं की बात भी मान लेता है, तुम्हें संसद वाले नेता से लेकर यूनियन वाले तक बहला लेते हैं, इसलिए तुम अभागे हो।

शायद तुमने पढ़ाई नहीं की। करते भी कैसे? तुम्हारा भविष्य तो जन्म से निर्धारित है। ऊंचे घर पैदा होते तो ये दिन देखते?

लाल झंडे वाली पार्टियां पौ फटते ही जश्न मनाएंगी। सभाएं होंगी, लोग भाषण देंगे, लाल पताका लहराएंगे, पर तुम्हारी स्थिति में क्या अंतर आएगा? क्या कल कोई बिना काम करवाए पैसे दे जाएगा?

वातानुकूलित कमरे में बैठ कर मार्क्सवाद-लेनिनवाद पर बहस करने का अलग ही मज़ा है। क्या तुम्हें लेनिन के बारे में पता है? मुझे पता है। उनके संकलित कार्य 40 अंकों में प्रकाशित हुए हैं, एक का मूल्य 2,000 रुपए है। क्या कभी उनको, अपने भाग्यविधाता को पढ़ पाओगे? इसलिए अभागे हो तुम।

पढ़ लोगे तो क्या समझ पाओगे? नहीं समझ पाओगे क्योंकि तुम्हें अंग्रेजी नहीं आती, अनुवाद भी घटिया है। काश कोई मजदूर अनुवादक होता!

तुम जानते हो कि कोरोना की वजह से देश बंद है। दिहाड़ी भी घट गई है क्योंकि सब बेकार बैठे हैं। ऐसे में रोटी कहाँ से पाओगे? क्या तुम्हारे घर के आसपास कोई सरकारी व्यवस्था है? कैसी रोटी मिलती है वहाँ? क्या तुम्हारे बाकी 30 करोड़ भाइयों को भी भोजन सुलभ होगा?

तुम्हारी मुनिया जहां पढ़ती है वहाँ शौचालय नहीं है, तीन कक्षाओं के लिए एक ही अध्यापक और वही अध्यापक खाना भी बनाता है। मुनिया को क्या बनता देखोगे, डॉक्टर या इंजीनियर? इसलिए अभागे हो तुम।

मेरे बस में होता मैं कहता आओ सड़क पर मेरे साथ, संघर्ष करो और छीन लो अपना अधिकार, पर बुलाऊँ कैसे? तुम मेरा पत्र नहीं पढ़ सकते अभागे मित्र।

लेकिन तुम हार मत मानना। जहां हो, टिके रहना, क्योंकि शायद एक दिन तुम्हारे पास मुकम्मल इंतेज़ाम होगा। तुम मेरा पत्र पढ़ पाओगे और मेरे साथ संघर्ष के लिए बाहर आओगे, सड़क पर आओगे।   

मजदूर दिवस मुबारक हो तुम्हें मेरे दोस्त।


About सूर्य कांत सिंह

लेखक एक सशक्त पाठक हैं जो सांख्यिकी और दर्शन का अध्ययन कर रहे हैं। वह डेटा एनालिटिक्स सलाहकार के रूप में काम करते है और शाषन, सार्वजनिक नीति, राजनीति, अर्थशास्त्र और दर्शन समेत अन्य विषयों पर स्तम्भ लिखते हैं।

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