राजनीति में तो फूलन देवी भी रही हैं और आनंद मोहन सिंह से लेकर डीपी यादव, मोहम्मद शहाबुद्दीन, मुख्तार अंसारी, आजम खान, अरुण गवली भी। ये सभी कोई बहुत सामान्य किस्म के प्राणी कभी नहीं रहे। सभी बाहुबल से राजनीति में रहे, चुनाव लड़े और जीते, फिर भी संसद या विधानसभाओं में जितने समय तक रहे इन सभी का संसदीय आचरण कभी आक्रामक नहीं देखा गया। इनसे उलट सज्जन होने का स्वांग रचने वालों को हमने लोकतंत्र की कसमें खाकर इस बार के संसद सत्र में लोकतंत्र को कलंकित करने की कुत्सित कोशिश करते देख लिया। कहा जाना चाहिए कि लोकतंत्र के इन लुटेरों की वजह से दुनिया का सबसे महान लोकतंत्र, हमारी आदर्श परंपरा और संसदीय आचरण की अस्मत खतरे में है।
लोकसभा में 350 पार के अपार व ऐतिहासिक समर्थन से समृद्ध सरकार, मंत्री व उसके सांसद कह रहे हैं कि विपक्ष संसद में काम नहीं करने देता और विपक्ष का आरोप है कि सरकार उसे बोलने तक नहीं देती। नये मंत्रियों का परिचय तक नहीं हो सका और पहले दिन से ही पूरे सत्र में हंगामा होता रहा। फिर ऐसा भी नहीं है कि संसद में हंगामा कोई पहली बार हुआ मगर इस बार की संसदीय सच्चाई यह है कि कड़वाहट के कसैलेपन की कसमसाहट सांसदों के दिमाग और दिल दोनों के साथ-साथ बांहों में भी उतर आयी है, इसीलिए वे सदन में लड़ने की मुद्रा में आने से भी नहीं चूके। इसीलिए इस बार के सत्र में संसदीय गरिमा को गड्ढे में घुसते और एक महानतम लोकतंत्र के गर्व और गौरव को दुनिया ने धूल–धूसरित होते देखा।
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ऐसा नहीं है कि हमारी संसद में लोकतंत्र के लुटेरे ही बैठे हैं, सज्जन व साधु संत भी वहां हैं। ऐसा भी नहीं है कि हमारी संसद में लुटेरों जैसी प्रवृत्ति के लोग कभी नहीं नहीं बैठे, पर लूट अगर लोकतंत्र की अस्मत की ही होने लगे तो चिंता हम सबको होनी चाहिए क्योंकि सवाल इस देश के लोकतंत्र की गरिमा और गौरव का है।
लाखों लोगों की भावनाओं पर कब्जा करके सम्मान के साथ संसद में पहुंचे सांसदों का असंसदीय आचरण देखकर लगता है कि उनको लोकतंत्र की लाज बचाने से ज्यादा अपने अहम के कारण गिरती इज्जत और औकात को नये सिरे से समझने की जरूरत है। मगर क्या किया जाए, राजनीति का भाष्य बदला तो राजनेताओं की भाषा भी बदल गयी। इसी सबके बीच, संसद की तार-तार तस्वीर देख राज्यसभा के सभापति एम वेंकैया नायडू दिल से दुखी हैं। बीजेपी मूल के होने की वजह से वे विपक्ष के निशाने पर हो सकते हैं, लेकिन नायडू के संसदीय आचरण पर आहत होने और संवेदनशीलता व राजनीतिक समझदारी को पार्टी की सीमाओं के पार जाकर देखना चाहिए। और उनकी संसदीय निष्ठा पर तो खैर, सवाल ही बेमानी है। लेकिन यह सवाल भी वे ही उठा रहे हैं, जिनका स्वयं का संसदीय आचरण सवालों के घेरे में है, यह सबसे बड़ी चिंता है।
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यही बदलती राजनीति का दौर है। लोकतंत्र में जब सभी राजनीतिक दल, दलदल में धंसे होने के बावजूद एक दूसरे को हिकारत की नजर से देखने लगें, पंचायत से लेकर पार्लियामेंट तक के चुनाव भी जब नफरत की नींव पर लड़े जाएं और हर जीत केवल पैसे के प्रभाव से ही तय होती हो, तो देश की संसद यदि दंगल का रूप धर ले तो किसी को कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए। हर हाल में चुनाव जीतना और जीतकर सामने वाले को नीचा दिखाना ही जब राजनीति का मूल स्वभाव बन जाए, तब यही होता है जैसा आज हमारे हिंदुस्तान की संसद में दिख रहा है। काम न करने देने के सरकार के आरोप व विपक्षियों की न सुनने के विपक्ष के आरोप दोनों सही या गलत हो सकते हैं क्योंकि हमारी राजनीति को झूठ की गंगोत्री कहा जाता है। सरकारें झूठ बोलती हैं, मंत्री झूठ बोलते हैं और नेता तो झूठ के ठेकेदार ही माने जाते हैं। इस सबके बीच, यह सवाल देश की संसदीय परंपरा के 70 साल पूरे होने के बावजूद उलझा हुआ है कि राजनीति में सच और झूठ के बीच का फैसला आखिर तय कैसे किया जाए।
देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस सत्तासीन बीजेपी, उसके नेताओं व यहां तक कि प्रधानमंत्री व मंत्रियों तक को फूटी आंख देखना पसंद नहीं करती और बीजेपी तो वैसे भी ‘कांग्रेसमुक्त भारत’ अभियान का झंडा उठाये राहुल गांधी को निशाने पर लेकर चल रही है। सोशल मीडिया पर दोनों प्रमुख दलों का आचरण परस्पर शर्मसार करता दिखता है। सो, ताजा तस्वीर में ऐसा कहने वालों की संख्या कम नहीं हैं कि राजनीति पहले आज के जितनी गंदी नहीं थी। पर इसके बचाव में राजनीति करने वालों का प्रतिप्रश्न यह है कि राजनीति कब गंदी नहीं थी। इस गंदगी का जवाब किसी के पास नहीं है। यह हर कोई बता सकता है कि राजनेताओं की कुंठा राजनीति का स्तर गिरा रही है, यही कुंठा हमारी लोकतांत्रिक परंपरा की अवहेलना में संसदीय गरिमा को भी लगातार गिराती जा रही है।
लोकतंत्र की अंतिम क्रिया अभी बाकी है!
संसद समाज की समस्याओं को सुलझाने का साझा मंच है, लेकिन देश को राहत दिलवाने वाले ही जब आपस में लड़ रहे हों तो यह सब लोकतंत्र का नहीं, लोकतंत्र के नफरतीकरण का कसूर है। हमें अगर अपनी लोकतांत्रिक गरिमा के गौरव को बनाए रखना है तो मर्यादा के मूल्यों को संवारने के लिए सबसे पहले सांसदों को तैयार होना होगा वरना तो फिर तो देख ही रहे है कि लोकतंत्र की लूट है, लूट सके तो लूट!