उनकी तुरबत पर नहीं है एक भी दीया, जिनके खूँ से जलते हैं ये चिरागे वतन…


आज भारत के पचहत्तरवें स्वतंत्रता दिवस पर हमें भारतीय स्वतंत्रता संग्राम और क्रांतिकारियों के बलिदान को अवश्य याद करना चाहिए। साथ ही क्रांतिकारियों की विरासत के संरक्षण और उसके सम्मान पर भी सोचने की आवश्यकता है। उनकी विरासत न केवल उपेक्षित है बल्कि नष्ट होने की कगार पर है। यह दुखद है। आज हम स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास पर एक नजर डालते हैं ताकि क्रांतिकारियों की आत्म आहुति का कुछ मूल्य आंक सकें।

सन 1857 में पूरे भारत में अंग्रेजों की ईस्ट इंडिया कंपनी की नीतियों से परेशान जनता ने पहली बार एक होकर अंग्रेजों के खिलाफ कुछ करने की ठानी, लेकिन भारत के शहंशाह बहादुर शाह ज़फर बूढ़े हो चुके थे और गदर में हिस्सा ले रहे विद्रोहियों को संगठित कर अंग्रेजों से लड़ने में उनका नेतृत्व कमजोर पड़ गया। ईस्ट इंडिया कंपनी के अफसर विद्रोही सैनिकों पर हावी हो गए और विद्रोह को दबा दिया गया। ईस्ट इंडिया कंपनी के पास भारत की जिम्मेदारी थी और उसे ब्रिटिश संसद से ऐसा करने के लिए मान्यता मिली थी।

1858 में ब्रिटिश सरकार ने गवर्मेंट ऑफ इंडिया ऐक्ट पारित किया. इसके तहत भारत ईस्ट इंडिया कंपनी की जागीर नहीं रहा, बल्कि पूरी तरह ब्रिटिश रानी का उपनिवेश बन गया। यह सब 1857 के विद्रोहियों को शांत करने के लिए किया गया। ब्रिटिश सरकार ने माना कि भारत पर शासन में बहुत गलतियां हुईं और कहा कि ब्रिटिश रानी के अधिकार में आने से भारत की परेशानियां दूर हो जाएंगी। इस कानून के तहत भारत के लिए रानी का एक खास सचिव नियुक्त किया जाना था जिसपर भारत देखने की जिम्मेदारी थी। रानी ने भारत के  लिए एक गवर्नर जनरल भी नियुक्त किया। गवर्नर जनरल को भारत के सैन्य, कानूनी और सामाजिक मामलों पर फैसले लेने का पूरा अधिकार दिया गया। 1857 में मंगल पाण्डेय और उनके साथियों ने मेरठ में ईस्ट इंडिया कंपनी के खिलाफ विद्रोह का झंडा बुलंद किया था। भारत की आज़ादी के लिए 1757 से 1947 के बीच जितने भी प्रयत्न हुए, उनमें स्वतंत्रता का सपना संजोये क्रान्तिकारियों और शहीदों की उपस्थित सबसे अधिक प्रेरणादायी सिद्ध हुई।

वस्तुतः भारतीय क्रांतिकारी आंदोलन भारतीय इतिहास का स्वर्ण युग है। क्रांतिकारी आंदोलन का समय सामान्यतः लोगों ने सन् 1857 से 1942 तक माना है। भारतीय स्वतंत्रता के सशस्त्र संग्राम की विशेषता यह रही है कि क्रांतिकारियों के मुक्ति प्रयास कभी शिथिल नहीं हुए। भारत की स्वतंत्रता के बाद आए नेताओं ने भारत के सशस्त्र क्रान्तिकारी आन्दोलन को प्रायः दबाते हुए उसे इतिहास में कम महत्व दिया गया और कई स्थानों पर उसे विकृत भी किया गया। स्वराज्य उपरांत यह सिद्ध करने की चेष्टा की गई कि हमें स्वतंत्रता केवल अहिंसात्मक आंदोलन के माध्यम से मिली है। इस इतिहास में स्वाधीनता के लिए प्राणोत्सर्ग करने वाले, सर्वस्व समर्पित करने वाले असंख्य क्रांतिकारियों, अमर हुतात्माओं की पूर्ण रूप से उपेक्षा की गई।

भारत में अंग्रेज़ी राज्य की स्थापना के साथ ही सशस्त्र विद्रोह का आरम्भ हो गया था। बंगाल में सैनिक-विद्रोह, चूआड़ विद्रोह, संन्यासी विद्रोह, संथाल विद्रोह अनेक सशस्त्र विद्रोहों की परिणति सत्तावन के विद्रोह के रूप में हुई। नाविक विद्रोह के सैनिकों को स्वतंत्र भारत की सेना में अग्रक्रम देना न्यायोचित होता, परन्तु नौकरशाहों ने उन्हें सेना में रखना शासकीय नियमों का उल्लंघन समझा। अनेक क्रांतिकारियों की अस्थियाँ विदेशों में हैं। अनेक क्रांतिकारियों के घर भग्नावशेष हैं। उनके घरों के स्थान पर आलीशान होटल बन गए हैं। क्रांतिकारियों की बची हुई पीढ़ी भी समाप्त हो गई है। निराशा में आशा की किरण यही है कि सामान्य जनता में उनके प्रति सम्मान की थोड़ी-बहुत भावना अभी भी शेष है। उस आगामी पीढ़ी तक इनकी गाथाएँ पहुँचाना हमारा दायित्व है।

क्रान्तिकारियों पर लिखने के कुछ प्रयत्न हुए हैं। शचीन्द्रनाथ सान्याल, शिव वर्मा, मन्मथनाथ गुप्त व रामकृष्ण खत्री आदि ने पुस्तकें लिखकर हमें जानकारी देने का महत्त्वपूर्ण कार्य किया है। इतर लेखकों ने भी इस दिशा में कार्य किया है। प्रथम स्वातन्त्र्य–संघर्ष के असफल हो जाने पर भी विद्रोहाग्नि ठण्डी नहीं हुई। शीघ्र ही दस-पन्द्रह वर्षों के बाद पंजाब में कूका विद्रोह व महाराष्ट्र में वासुदेव बलवंत फड़के के छापामार युद्ध शुरू हो गए। संयुक्त प्रान्त में पं॰ गेंदालाल दीक्षित ने शिवाजी समिति और मातृवेदी नामक संस्था की स्थापना की। बंगाल में क्रान्ति की अग्नि सतत जलती रही। सरदार अजीतसिंह ने सत्तावन के स्वतंत्रता–आन्दोलन की पुनरावृत्ति के प्रयत्न शुरू कर दिए। रासबिहारी बोस और शचीन्द्रनाथ सान्याल ने बंगाल, बिहार, दिल्ली, राजपूताना, संयुक्त प्रान्त व पंजाब से लेकर पेशावर तक की सभी छावनियों में प्रवेश कर 1915 में पुनः विद्रोह की सारी तैयारी कर ली थी। दुर्दैव से यह प्रयत्न भी असफल हो गया। इसके भी नए-नए क्रान्तिकारी उभरते रहे। राजा महेन्द्र प्रताप और उनके साथियों ने तो अफगान प्रदेश में अस्थायी व समान्तर सरकार स्थापित कर ली। सैन्य संगठन कर ब्रिटिश भारत से युद्ध भी किया।

रासबिहारी बोस ने जापान में आज़ाद हिन्द फौज के लिए अनुकूल भूमिका बनाई। मलाया व सिंगापुर में आज़ाद हिन्द फौज संगठित हुई। सुभाषचन्द्र बोस ने इसी कार्य को आगे बढ़ाया। उन्होंने भारतभूमि पर अपना झण्डा गाड़ा। आज़ाद हिन्द फौज का भारत में भव्य स्वागत हुआ, उसने भारत की ब्रिटिश फौज की आँखें खोल दीं। द्वितीय विश्वयुद्ध के दिनों से ही भारत के क्रांतिकारी नेता सुभाषचंद्र बोस अपनी योजना के अनुसार ब्रिटिश जासूसों की आँखों में धूल झोंककर अफगानिस्तान होते हुए जर्मनी जा पहुँचे। जब विश्वयुद्ध दक्षिण-पूर्व एशिया में उग्र हो उठा और अंग्रेज जापानियों से हारने लगे, तो सुभाषचंद्र बोस जर्मनी से जापान होते हुए सिंगापुर पहुँच गए तथा आजाद हिंद आंदोलन के सारे सूत्र अपने हाथ में ले लिए। उन्हें ‘नेताजी’ के संबोधन से पुकारा जाने लगा।

आजाद हिंद आंदोलन के प्रमुख अंग थे— आजाद हिंद संघ, आजाद हिंद सरकार, आजाद हिंद फौज, रानी झाँसी रेजीमेंट, बाल सेना, आजाद हिंद बैंक और आजाद हिंद रेडियो। आजाद हिंद फौज ने कई लड़ाइयों में अंग्रेजी सेनाओं को परास्त किया तथा मणिपुर एवं कोहिमा क्षेत्रों तक पहुँचने और भारतभूमि पर तिरंगा झंडा फहराने में सफलता प्राप्त की। अमेरिका द्वारा जापान के हिरोशिमा एवं नागासाकी नगरों पर परमाणु बम छोड़ देने और भारी तबाही के कारण जापान ने हथियार डाल दिए। स्वाभाविक ही था कि नेताजी सुभाष द्वारा भारत की आजादी के लिए किए जा रहे प्रयत्नों का पटाक्षेप हो गया। आजाद हिंद फौज के बड़े-बडे़ अफसरों को गिरफ्तार करके भारत लाया गया और उन पर मुकदमे चलाए गए। नेताजी सुभाष के विषय में सुना गया कि मोरचा बदलने के क्रम में विमान दुर्घटनाग्रस्त होने के कारण 18 अगस्त 1945 को फारमोसा द्वीप के ताइहोकू स्थान पर उनकी मृत्यु हो गई।

भारतीयों का नाविक विद्रोह तो ब्रिटिश शासन पर अन्तिम प्रहार था। अंग्रेज़, मुट्ठी-भर गोरे सैनिकों के बल पर नहीं, बल्कि भारतीयों की फौज के बल पर शासन कर रहे थे। आरम्भिक सशस्त्र विद्रोह में क्रान्तिकारियों को भारतीय जनता की सहानुभूति प्राप्त नहीं थी। वे अपने संगठन व कार्यक्रम गुप्त रखते थे। अंग्रेज़ी शासन द्वारा शोषित जनता में उनका प्रचार नहीं था। अंग्रेजों के क्रूर व अत्याचारपूर्ण अमानवीय व्यवहारों से ही उन्हें इनके विषय में जानकारी मिली। विशेषतः काकोरी काण्ड के अभियुक्त तथा भगतसिंह और उसके साथियों ने जनता का प्रेम व सहानुभूति अर्जित की। भगतसिंह ने अपना बलिदान क्रांति के उद्देश्य के प्रचार के लिए ही किया था। जनता में जागृति लाने का कार्य महात्मा गांधी ने किया।

बंगाल की सुप्रसिद्ध क्रांतिकारी श्रीमती कमला दास गुप्ता ने कहा कि क्रांतिकारी की निधि थी कम व्यक्ति अधिकतम बलिदान, महात्मा गांधी की निधि थी अधिकतम व्यक्ति न्यूनतम बलिदान। सन् ’42 के बाद उन्होंने अधिकतम व्यक्ति तथा अधिकतम बलिदान का मंत्र दिया। भारत के स्वतंत्रता संघर्ष में जहाँ महिलाओं ने असहयोग, सविनय अवज्ञा व भारत छोडो जैसे गांधीवादी जनांदोलनों में सक्रिय रूप में भाग लिया वहीँ दूसरी ओर काफी संख्या में महिलाएं क्रांतिकारी आंदोलन से भी जुड़ी, जो गाँधी की भूमिका की प्रशंसा तो करती थीं परन्तु क्रांतिकारियों नेताओं समेत वह अहिंसा के तरीकों को स्वतंत्रता प्राप्ति हेतु पर्याप्त नहीं मानती थीं। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में स्वयं इस तरह के विचार उत्पन्न हो गए थे कि नरमपंथियों की कार्यपद्धतियों से स्वतंत्रता प्राप्ति संभव नहीं हैं। इसीलिए भारतीय तत्कालीन राजनीति में गरमपंथ का उदय व विकास भी हुआ था। प्रमुख क्रन्तिकारी महिलाओं में दुर्गा भाभी, लाडो रानी जुत्शी, अरुणा आसफ अली, उषा मेहता शामिल थी। राष्ट्रीय आंदोलन के शुरूआती दौर अर्थात् स्वदेशी आंदोलन में महिलाओं का कार्य काफी सीमित था। जैसे क्रांतिकारियों को छिपाना, उनके लिए पैसा इकट्ठा करना, हथियारों को छिपाकर रखना, विस्फोटक बम को बनाना आदि, परंतु जल्द ही वह क्रांतिकारियों द्वारा प्रत्यक्ष गतिविधियों में शामिल कर ली गयीं। इसके बावजूद उन महिलाओं को वहां भी शारीरिक यौनिकता की आज़ादी नहीं मिली हुई थी। उन्हें व्यवहार कैसे शालीन और नियंत्रित बनाये रखना हैं, यह उन्हें सिखाया जाता था। क्रांतिकारी आंदोलन के समय 1920 व 1930 के दशक में महिलाएं व पुरुष नियमपूर्वक दूर रहे (सिंह: 2009:577)। जैसे ही इस यौन नैतिकता और अनुशासन बनाए रखने का प्रश्न उठा, महिलाओं को ही इस समस्या की जड़ समझ लिया गया (बंदोपाध्याय: 2007:431)।

रानी झांसी रेजिमेंट

ब्रिटिश उपनिवेशवाद के विरुद्ध संघर्ष में महिला क्रांतिकारिता का पहला प्रत्यक्ष उदाहरण 1928 में मिला, जब सुभाषचंद्र बोस के कहने से लतिका घोष ने महिला राष्ट्रीय संघ शुरू किया। कलकत्ता में हो रहे कांग्रेस अधिवेशन में सुभाषचंद्र बोस द्वारा कर्नल लतिका घोष के नेतृत्व में वोमेन वालंटियर कॉर्प्‍स संगठित की। इसमें 128 महिला स्वंसेवकों ने सैनिक वर्दी में परेड की। अप्रैल 1930 में चोटाग्राम युवा विद्रोह से महिला विद्रोहियों को मुख्यधारा में ला खड़ा किया। बंगाल में इसका प्रभाव काफी दिखाई पड़ा, जहां फैज़ुनिस्सा गर्ल्स स्कूल की सांती घोष तथा सुनीति चौधरी नामक लड़कियों ने कौमिल्ला के डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट स्टीवेन्स की हत्या दिसम्बर 1931 में कर दी। बीना दास, जो एक छात्रा थी, ने फ़रवरी 1932 में बंगाल के गवर्नर पर गोली चलाईं। कल्पना दत्ता ने सूर्यसेन की कई उग्रवादी योजनाओं में हिस्सा लिया जो 5 मई 1931 को चटगांव डायनामाइट षड़यंत्र से शुरू हुई जो लगभग दो साल तक चलती रही। वहीँ उजाला मजूमदार ने बंगाल के गवर्नर की 1934 को दार्जिलिंग में हत्या करवाने में सहायता की और बाद में सजा भी काटी। एक महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि यह क्रांतिकारी महिलाएँ जिनका वर्णन उपरोक्त क्रांतिकारी गतिविधियों से जुड़ा बताया गया है वह 1928 में हुए कांग्रेस अधिवेशन की परेड में शामिल थीं, जो कर्नल लतिका घोष व सुभाषचंद्र बोस ने तैयार की थी।

भारत की स्वतंत्रता प्राप्ति में क्रांतिकारियों की भूमिका महत्त्वपूर्ण है। भारतीय क्रांतिकारियों के कार्य सिरफिरे युवकों के अनियोजित कार्य नहीं थे। भारत भूमि की बेड़ियां तोड़ने के लिए सतत संघर्ष करने वाले देशभक्तों की एक अखण्ड परम्परा थी। देश की रक्षा के लिए कर्तव्य समझकर उन्होंने शस्त्र उठाए थे। क्रान्तिकारियों का उद्देश्य अंग्रेजों का रक्त बहाना नहीं था। वे तो अपने देश का सम्मान लौटाना चाहते थे। अनेक क्रान्तिकारियों के हृदय में क्रांति की ज्वाला थी, तो दूसरी ओर अध्यात्म का आकर्षण भी। हंसते हुए फाँसी के फंदे का चुम्बन करने वाले व मातृभूमि के लिए सरफरोशी की तमन्ना रखने वाले ये देशभक्त युवक भावुक ही नहीं, विचारवान भी थे। शोषणरहित समाजवादी प्रजातंत्र चाहते थे। उन्होंने देश के संविधान की रचना भी की थी। सम्भवतः देश को स्वतंत्रता यदि सशस्त्र क्रांति के द्वारा मिली होती तो भारत का विभाजन नहीं हुआ होता, क्योंकि सत्ता उन हाथों में न आई होती, जिनके कारण देश में अनेक भीषण समस्याएं उत्पन्न हुई हैं। जिन शहीदों के प्रयत्नों व त्याग से हमें स्वतंत्रता मिली, उन्हें उचित सम्मान नहीं मिला। अनेक को स्वतंत्रता के बाद भी गुमनामी का अपमानजनक जीवन जीना पड़ा। ये शब्द उन्हीं पर लागू होते हैं :

उनकी तुरबत पर नहीं है एक भी दीया,
जिनके खूँ से जलते हैं ये चिरागे वतन।
जगमगा रहे हैं मकबरे उनके,
बेचा करते थे जो शहीदों के कफन।

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