कोविड-19 के कारण स्कूल पिछले एक साल से कमोबेश बंद ही हैं। फरवरी 2021 में अज़ीम प्रेमजी विश्वविद्यालय द्वारा किए गए एक महत्वपूर्ण सर्वेक्षण के नतीजों ने हम सब का ध्यान आकृष्ट किया था। सर्वेक्षण के अनुसार स्कूलों के लगातार बन्द रहने के कारण विद्यार्थी पिछला पढ़ा-लिखा सब भूलने लगे हैं। 54 फीसदी छात्रों की मौखिक अभिव्यक्ति पर विपरीत प्रभाव पड़ा है जबकि 42 फीसदी छात्रों की पढ़ने की क्षमता पहले से कम हुई है। 40 फीसदी छात्र ऐसे हैं जिन्हें भाषा लिखने में कठिनाई का अनुभव हो रहा है जबकि 82 फीसदी छात्र पिछली कक्षाओं में सीखे हुए गणित के पाठों को भूल चुके हैं।
अजीम प्रेमजी विश्वविद्यालय ने पांच राज्यों (छत्तीसगढ़, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, राजस्थान, उत्तराखंड) के सरकारी स्कूलों के कक्षा 2 से कक्षा 6 तक के 16,067 छात्रों को सर्वे में सम्मिलित किया था। लगभग इसी निष्कर्ष पर इंडियास्पेंड का सर्वेक्षण दल भी पहुंचा जबकि उसके द्वारा सर्वेक्षित चारों जिले उत्तर प्रदेश के थे। अर्थात यह समस्या किसी प्रान्त विशेष तक सीमित नहीं है, इसका स्वरूप राष्ट्रव्यापी है। जब ऑनलाइन कक्षाओं के सुचारू संचालन के दावे केंद्र तथा राज्य सरकारों द्वारा बड़े जोर-शोर से लगातार किए जा रहे हैं तब यह यह दुःखद एवं चिंतनीय स्थिति कैसे बन गयी है?
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विगत वर्ष अज़ीम प्रेमजी विश्वविद्यालय ने इन्हीं पांच राज्यों की शासकीय शालाओं में पढ़ने वाले 80000 विद्यार्थियों पर किए गए एक सर्वेक्षण (मिथ्स ऑफ ऑनलाइन एजुकेशन) के आधार पर यह चौंकाने वाला सच उजागर किया था कि शासकीय शालाओं में अध्ययनरत 60 फीसदी बच्चों के पास ऑनलाइन शिक्षा हेतु अनिवार्य साधन मोबाइल अथवा लैपटॉप नहीं हैं। भारत सरकार के शिक्षा मंत्रालय द्वारा जुलाई 2020 में केंद्रीय विद्यालय संगठन, नवोदय विद्यालय समिति एवं सीबीएसई को सम्मिलित करते हुए एनसीईआरटी के माध्यम से कराए गए सर्वेक्षण के नतीजे कुछ भिन्न नहीं थे- 27 प्रतिशत विद्यार्थियों ने मोबाइल एवं लैपटॉप के अभाव का जिक्र किया जबकि 28 प्रतिशत ने बिजली का न होना, इंटरनेट कनेक्टिविटी का अभाव, इंटरनेट की धीमी गति आदि समस्याओं का जिक्र किया।
Myths_of_online_educationएकाउंटेबिलिटी इनिशिएटिव तथा सेंटर फॉर पालिसी रिसर्च द्वारा चलाया जा रहा इनसाइड डिस्ट्रिक्ट्स कार्यक्रम भी ऑनलाइन शिक्षा की कमोबेश इन्हीं बाधाओं का जिक्र करता है। एनुअल स्टेटस ऑफ एजुकेशन रिपोर्ट 2020 का आकलन भी डिजिटल शिक्षा हेतु संसाधनों और सुविधाओं की कमी को स्वीकारता है।
ह्यूमन राइट्स वॉच ने 17 मई 2021 को जारी इयर्स डोंट वेट फॉर देम: इंक्रीज्ड इनक्वालिटीज़ इन चिल्ड्रेन्स राइट टु एजुकेशन ड्यू टू द कोविड-19 पैन्डेमिक रिपोर्ट में 60 से भी अधिक देशों (जिनमें भारत भी सम्मिलित है) के विद्यार्थियों एवं उनके अभिभावकों से साक्षात्कार के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला है कि कोविड-19 के दौरान स्कूलों के बंद होने का अलग-अलग वर्गों और आर्थिक स्तर के विद्यार्थियों पर पृथक प्रभाव पड़ा। यदि हम केवल अपने देश की बात करें तो डिजिटल डिवाइड इतना प्रत्यक्ष है कि इसका अनुभव करने के लिए आंकड़ों के प्रमाण से अधिक संवेदनशील दृष्टि की आवश्यकता है।
कोरोना काल में डिजिटलीकरण को अनिवार्य सा बना दिया गया है और डिजिटल डिवाइड ने भारतीय समाज के एक बड़े तबके के लिए शिक्षा के अवसरों को सीमित एवं समाप्त करने का कार्य किया है। संयुक्त राष्ट्र संघ एवं ह्यूमन राइट्स वॉच जैसे संगठन उन समूहों को चिह्नित करते रहे हैं जिनकी शिक्षा पर कोविड-19 से उत्पन्न परिस्थितियों का सर्वाधिक विपरीत प्रभाव पड़ेगा- निर्धन अथवा निर्धनता की सीमा पर खड़े परिवारों के बच्चे, विकलांग बच्चे, नृजातीय और नस्लीय अल्पसंख्यक समूहों के बच्चे, लैंगिक असमानता वाले देशों की बालिकाएं, लेस्बियन, गे, बायसेक्सुअल और ट्रांसजेंडर (एलजीबीटी) बच्चे, ग्रामीण क्षेत्रों या सशस्त्र संघर्ष के असर वाले इलाकों के बच्चे तथा प्रवासी, विस्थापित, शरणार्थी एवं शरण की याचना करने वाले बच्चे।
global_covideducation0521_ETRभारत में शिक्षा के स्तर और उपलब्धता को निर्धारित करने वाले कारक विशुद्ध आर्थिक नहीं हैं। यद्यपि यह तो स्पष्ट है कि किसानों और मजदूरों की संतानों के लिए शिक्षा कभी आसान नहीं रही है। माता-पिता की दिनचर्या का स्वरूप और निर्धनता इन्हें शिक्षा से वंचित करने का कार्य करते रहे हैं। शिक्षा के साथ जाति का विमर्श भी जुड़ा हुआ है। अनुसूचित जाति और जनजाति के बालक-बालिकाओं के लिए शिक्षा की राह ढेर सारी सरकारी कोशिशों एवं योजनाओं के बावजूद कठिन रही है। देश के अनेक जिले नक्सलवाद से प्रभावित हैं। यह शिक्षा की दृष्टि से अत्यंत पिछड़े हैं और यहां स्कूलों का बन्द होना नहीं अपितु खुलना एक असाधारण घटना होती है। कश्मीर की परिस्थितियां भी ऐसी नहीं रही हैं जहाँ शिक्षा के लिए स्वतंत्र, उन्मुक्त और भयरहित वातावरण की आशा की जा सके।
उदारीकृत मुक्त अर्थव्यवस्था ने हमारे देश में शिक्षा और चिकित्सा के क्षेत्र में असमानता को बढ़ाया है। शासकीय और निजी शिक्षा संस्थानों का अंतर अकल्पनीय रूप से विशाल हो गया है। एक ही देश में हम विश्वस्तरीय एवं उच्चतम सुविधा वाले निजी स्कूलों और बुनियादी सुविधाओं से रहित, संसाधन तथा शिक्षक-विहीन सरकारी स्कूलों को देखते हैं। असमानताओं के इस विमर्श में लैंगिक गैर-बराबरी की शाश्वत एवं सर्वव्यापी उपस्थिति है। चाहे वे संपन्न एवं सशक्त वर्ग हों अथवा निर्धन और कमजोर वर्ग, चाहे वह बहुसंख्यक समुदाय हो या अल्पसंख्यक, इनमें बालिकाओं की शिक्षा को लेकर पितृसत्तात्मक सोच सदैव निर्णायक रूप से हावी रही है।
कोरोना निर्धन वर्ग एवं वंचित समुदायों के बहुत सारे बालक-बालिकाओं के लिए शिक्षा का अंत सिद्ध हुआ है। यदि कोई अध्ययन किया जाए तो हमें भिक्षावृत्ति और बालश्रम के मामलों में अप्रत्याशित वृद्धि के दस्तावेजी साक्ष्य मिलेंगे। बहुत सारे किशोर तो परिवार की आर्थिक मदद के लिए छोटे-मोटे कार्य कर रहे हैं और शाला खुलने पर भी फिर से शाला जाने का उनका कोई विचार नहीं है। कोई आश्चर्य नहीं कि बहुत सारे किशोर अपराध और नशे की राह पर भी चल निकलें। यूनेस्को का आकलन है कि कोविड-19 के कारण इस वर्ष एक करोड़ दस लाख बालिकाओं की अब दुबारा कभी स्कूल में वापसी नहीं हो पाएगी। इसमें एक बड़ी संख्या भारतीय बालिकाओं की होगी।
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राइट टु एजुकेशन फोरम के पॉलिसी ब्रीफ के अनुसार कोविड-19 के कारण एक करोड़ भारतीय बालिकाएं सेकंडरी स्कूलों से ड्रॉपआउट हो सकती हैं। बालिकाओं के लिए स्कूल छूट जाने का अर्थ होता है जल्दी और जबरन विवाह, किशोरावस्था में गर्भधारण करने की विवशता, ह्यूमन ट्रैफिकिंग का शिकार बनना, अंतहीन दैहिक शोषण एवं लैंगिक हिंसा का सामना करना। स्कूल इन बालिकाओं के लिए केवल शिक्षा का केंद्र नहीं हैं, यह दमघोंटू पुरुष वर्चस्व से कुछ घंटों की आजादी दिलाने वाले मुक्ति केंद्र हैं, सामाजिक कुरीतियों के आक्रमण से उन्हें बचाने वाले सुरक्षा कवच हैं, उनकी आत्मनिर्भरता एवं स्वावलंबन की कुंजी हैं।
शालाओं को बंद रखने के पीछे जब बालक-बालिकाओं और उनके अभिभावकों की जीवन रक्षा का तर्क दिया जाता है तो इसके सम्मुख निरुत्तर हो जाना पड़ता है। हम सहज ही कल्पना करने लगते हैं कि हमारे नौनिहाल घर की सुरक्षा और माता-पिता के संरक्षण में, टीवी तथा मोबाइल की संगति में आनंदित हैं एवं कोरोना के खतरे से दूर हैं, किंतु यह हमारा सच हो सकता है, देश के उन करोड़ों निर्धन तथा निम्न मध्यमवर्गीय परिवारों का नहीं जिन्हें रोज कमाना पड़ता है, जिनके लिए बच्चों को घर पर अकेला, असुरक्षित छोड़ना अथवा कार्यस्थल पर अपने साथ ले जाना यही दो विकल्प होते हैं और विडंबना यह है कि दोनों ही विकल्प बच्चों को महामारी के प्रति वह काल्पनिक सुरक्षा नहीं दे सकते जो हमारे मन-मस्तिष्क में रची-बसी है। ये बालक-बालिकाएं नितांत असुरक्षित एवं संक्रामक वातावरण में लगभग निरंकुश से अपना समय व्यतीत करते हैं।
यद्यपि इसका कोई पुख्ता वैज्ञानिक आधार नहीं है किंतु आज तीसरी लहर में बालक-बालिकाओं के प्रभावित होने की चर्चा जोरों पर है। विशेषज्ञों का एक वर्ग 12 वर्ष से कम आयु के बालक-बालिकाओं का टीकाकरण न होने के कारण उन्हें संक्रमण के प्रति अत्यंत संवेदनशील मान रहा है तो दूसरे वर्ग का यह तर्क है यदि इन्हें संक्रमण हुआ भी तो वह प्राणघातक नहीं होगा। इनके माध्यम से अभिभावकों तक संक्रमण पहुंचने की आशंका व्यक्त की जाती रही है। टीकाकरण की धीमी प्रगति के बावजूद इससे अभिभावकों को कुछ न कुछ सुरक्षा तो उपलब्ध होगी ही। एक सुझाव यह है शिक्षक समुदाय और स्कूली कर्मचारियों को फ्रंट लाइन वर्कर मानकर इन्हें युद्ध स्तर पर टीकाकृत किया जाए किंतु इनकी विशाल संख्या, टीकों की कमी तथा शिक्षा का सरकारी प्राथमिकता में निचले पायदान पर होना वे कारण हैं जो इस सुझाव पर अमल को कठिन बना देते हैं। कुल मिलाकर स्कूली शिक्षा का भविष्य अनिश्चित है।
इन परिस्थितियों में स्कूली शिक्षा को जीवित रखकर देश के 26 करोड़ स्कूली छात्रों के भविष्य को किस प्रकार सुरक्षित किया जाए? इस प्रश्न का उत्तर देने से पहले हमें बड़ी बेबाकी एवं ईमानदारी से कुछ स्वीकारोक्तियां करनी होंगी। भले ही निजी स्कूलों की सशक्त राजनीतिक लॉबी एवं उसके व्यावसायिक हितों के रक्षक शिक्षाविद यह दावा करते रहें कि डिजिटल शिक्षा पारंपरिक शिक्षा के स्थानापन्न के रूप में उभरी है और कोरोना ने यह बहुप्रतीक्षित परिवर्तन लाने में योगदान दिया है लेकिन सच यह है कि देश के करोड़ों बच्चों तक डिजिटल शिक्षा की पहुँच नहीं है और यह पहुँच रातों रात बनायी भी नहीं जा सकती। वैसे भी डिजिटल शिक्षा कभी भी पारंपरिक शिक्षा को प्रतिस्थापित नहीं कर सकती क्योंकि समाजीकरण और व्यक्तित्व विकास जैसे लक्ष्य इससे प्राप्त नहीं किए जा सकते।
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दूसरी स्वीकारोक्ति यह है कि शिक्षा की गुणवत्ता के मामले में हम बहुत पीछे हैं। इस बात को लेकर सैकड़ों सर्वेक्षण किए जा चुके हैं कि माध्यमिक स्तर पर पहुंच कर भी विद्यार्थी प्राथमिक स्तर के प्रश्नों को हल नहीं कर पाता। ऐसी दशा में कोरोना के कारण यह लंबा व्यवधान बालक-बालिकाओं को असाक्षर एवं अशिक्षित भी बना सकता है। तीसरी स्वीकारोक्ति हमें यह करनी होगी कि ड्रॉपआउट की समस्या से हम पहले ही संघर्ष करते रहे हैं और अब यह समस्या विकराल एवं नियंत्रण से बाहर हो सकती है। विशेषकर बालिकाओं पर इसका घातक प्रभाव पड़ने वाला है। चौथा कटु सत्य यह है कि स्कूलों के माध्यम से बालक-बालिकाओं को पोषक आहार प्रदान करने वाली मध्याह्न भोजन जैसी योजनाओं का विकल्प सरकारी कोशिशों के बावजूद नहीं ढूंढा जा सका है और कुपोषण के मामले बढ़ना तय है। पांचवीं सच्चाई यह है कि यह शैक्षिक असमानता बढ़ने का मामला ही नहीं है, हम सामाजिक, आर्थिक एवं लैंगिक असमानता को बढ़ावा दे रहे हैं। छठवां सच यह है कि माता-पिता की आर्थिक स्थिति में कोविड-19 के कारण गिरावट ड्रॉपआउट का एक प्रमुख कारण है।
अंतिम स्वीकारोक्ति हमें यह करनी होगी कि कोरोनाकाल में स्कूली शिक्षा को जीवित रखने के लिए हमारे प्रयत्न नाकाफ़ी रहे हैं। हमारे तत्सम्बन्धी अभियान प्रदर्शनप्रियता का शिकार रहे हैं। हमारे प्रयासों में निर्धन और वंचित समुदायों हेतु कुछ भी नहीं है। हमारा आत्ममूल्यांकन आत्मप्रवंचना की सीमा तक गलत रहा है। हमारी चर्चाएं कोरोना समाप्त होने के बाद छात्रों के लिए ब्रिज कोर्स की व्यवस्था एवं अतिरिक्त घंटों की पढ़ाई आदि पर केंद्रित हैं किंतु मुख्य प्रश्न यह है कि कोरोना के रहते क्या कुछ किया जाए। बहुत सारे सुझाव सामाजिक कार्यकर्ताओं और वरिष्ठ शिक्षा विशेषज्ञों की ओर से आ रहे हैं।
अज़ीम प्रेमजी विश्वविद्यालय के कुलपति अनुराग बेहार ने स्कूली विद्यार्थियों हेतु समुदाय आधारित कक्षाओं के आयोजन का महत्वपूर्ण सुझाव दिया है। शिक्षक मोहल्लों में जाएं, वहां निवास करने वाले 5 से 15 बच्चों को एकत्रित करें तथा सामुदायिक स्थल में पढ़ाई की जाए। हमें स्कूल विशेष में नामांकित छात्रों के बंधन को तोड़ना होगा। जिन मोहल्लों में संक्रमण अधिक है वहां कक्षाएं आयोजित न हों। हमें स्कूलों को खोलने के विषय में प्रांतीय अथवा राष्ट्रीय स्तर पर निर्णय लिए जाने की प्रक्रिया को त्यागकर स्थानीय परिस्थितियों पर आधारित लचीली निर्णय प्रक्रिया को अपनाना होगा। यदि संक्रमण कम है तो आवश्यक सावधानियों के साथ स्कूल खोले जा सकते हैं।
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बतौर नागरिक हम इनके लिए बहुत कुछ कर सकते हैं किंतु शायद हम इसलिए चुप हैं कि हमारी संतानें उन अभागे बालक-बालिकाओं में शामिल नहीं हैं जो शिक्षा की मुख्य धारा से बाहर निकल गए हैं। बतौर सरकार शायद हम इसलिए मौन हैं कि निरीह बच्चे न तो आंदोलन कर सकते हैं, न ही मतदाता हैं, न ही वे जबरदस्त राजनीतिक रसूख और धनबल रखने वाले शिक्षा माफिया की भांति हमारे राजनीतिक दलों का वित्तपोषण कर सकते हैं। यदि हम इन मासूमों को मनुष्य न मानकर मानव संसाधन ही मान लें तब भी भविष्य में बेहतर मानव संसाधनों की उपलब्धता हेतु इनके लिए कुछ करना तो बनता है।
(डॉक्टर राजू पांडेय छत्तीसगढ़ के रायगढ़ स्थित स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)