फागुन में गाली के रंग अनेक…


“गाली के जवाब में गोली चल जाती है”- ये पान सिंह तोमर में इरफान खान बोलते हैं। एक और पुरानी कहावत है, कि बोली पर गोली चल जाती है। बोली कोई भी हो, वो बिना गाली के नहीं हो सकती है।

जैसे बोली से पता चलता है कि इंसान सभ्य है या असभ्य, पढ़ा-लिखा है अनपढ़। यह वर्गीय विभाजन गाली में भी है। पढ़ा लिखा शुद्ध भाषा में गाली देगा जबकि बिना पढ़ा-लिखा बेचारा ठेठ देशज अंदाज में गाली देता है।

गालियां भी समाज के भेदभाव और ऊॅंच-नीच से बच नहीं पाईं। इनको कई प्रकार और कई श्रेणियों में बांट दिया गया है। विद्वान और साहित्यकार लोग किसी को गाली देंगे तो महामूर्ख असाहित्यि‍क, निरक्षर और लिखा-पढ़ा बोलेंगे। वो बंदा समझ नहीं पाएगा कि गाली दे रहे हैं कि अपुन की तारीफ कर रहे हैं। और साहित्यकार साहब की भड़ास का ज्वालामुखी भी शान्त हो गया।

कम्युनिस्ट लोग गाली में बुर्जवा, प्रतिक्रियावादी, फासिस्ट, साम्राज्यवादी की उपाधि देते हैं। गाली खाने वाले को समझ में नहीं आएगा कि ये गाली है कि दर्शन। हो सकता है वो बेचारा गाली का अर्थ समझते-समझते अपना दिमाग खो बैठे। दक्षिणपंथी गाली में हिन्दू विरोधी, राष्ट्रद्रोही, राष्ट्र के कलंक बताते हैं। गाली खाने वाले के पल्ले नहीं पड़ता कि इस सर्टिफिकेट का करें क्या। राजनीति के नवेले प्लेयर केजरीवाल की गालियां तो सुपरहिट हैं।

उनका साहित्य और सिनेमा में बाकायदा प्रयोग किया जा रहा है। नरेन्द्र भाई तो गाली भी मन से देते हैं। उनकी गाली में भी कर्मयोग फूट पड़ता है। वे किसी से कोई प्रतिस्पर्धा और गिला-शिकवा नहीं रखते, चाहे कोई सरेआम लूट ही ले।

अगर गाली का रस लेना है तो कद्रदानों को अवध पधारना चाहिए। यहां लोग नज़ाकत और नफ़ासत से गाली देते हैं। सुनने वाले को समझ नहीं आएगा कि गाली खा रहा है कि पान की गिलौरियां। भगवान शिव की नगरी काशी ठेठ गाली के लिए जगत प्रसिद्ध है। विश्‍वास न हो तो ‘’काशी का अस्सी’’ पढ़ लीजिए। धर्मक्षेत्र-कुरूक्षेत्र हरियाणा में आजकल गाली राष्ट्रवादी परिधान में दी जाती है। पड़ोसी साड्डा पंजाब में गाली लस्सी के साथ मिक्स हो गई है।

चाहे गाली ठेठ हो या भदेस, बॉलीवुड उसे राष्ट्रव्यापी बना देता है। बच्चा भी स्टाइल में गाली देने लगता है। फिल्मों ने तो निरीह पालतू कुत्ते को भी नहीं छोड़ा, सरेबाजार उसे कमीना बना दिया। कुत्तों के लिए दिल जान एक करने वाले कुत्ताभक्त भी इसका विरोध नहीं करते कि ‘मेरे कुत्ते को गाली मत दो’। पशु चिंतक मेनका गांधी ने भी इनके लिए आवाज नहीं उठायीं।

गाली का सबसे ज्यादा महत्व होली में है। होली में रंग-गुलाल के साथ गाली फ्री दी जाती है। ब्रज के राधा-कृष्ण की होली मशहूर है, पर ये पता नहीं चलता कि कृष्णकाल में रंग के साथ-साथ सब ग्वाल-बाल गाली भी देते थे कि नहीं। या फिर कलयुग में भक्तगण ने रंग के साथ भंग और गाली का श्रीगणेश किया।

हमारे यहां शादी में गाली न हो तो वो शादी नहीं, समय और पैसों की बर्बादी लगती है। पैसा देकर चाव से गाली सुनी जाती है। वधू की विदाई से पहले खिचड़ी-खवाई में तो दूल्हे राजा के दादा, दीदी, चाची और मामा की ऐसी की तैसी हो जाती है।

गाली की अपनी शैली और अपना अंदाज है। गालियों पर किसी इतिहासविद्, शोधार्थी, साहित्यकार ने काम नहीं किया, लेकिन गाली सर्वव्यापी है। हर मनुष्य बोलता है और हर जगह बोली जाती है। गाली का अपना सौंदर्यशास्त्र और रस है। कुछ धुरन्धर बोली कम गाली ज्यादा देते हैं। गाली उनके लिए तकिया कलाम है। अगर उनकी गाली बंद करा दी जाय तो सांस रूक जाएगी। शायद परलोक भी सिधार जाएं।

जीजा साले को गाली न दे तो साला अपने को दुलारा नहीं समझता। भाभी देवर को गाली न दे तो देवर बेचारा अपने को किस्मत का मारा समझता है। करमजले जीजा तो अपनी सालियों पर आधी घरवाली का अधिकार जताते रहते हैं पर साली बेचारी खूसट जीजी का ताना बर्दाश्‍त करने के अलावा क्या कर सकती है। बाई द वे अगर उनके प्रापर्टी पर आधा अधिकार जताने लगे, तो जीजा झट से दलबदल कर भाई बन जाते हैं।

हम गाली में दूसरे की मां-बहन एक कर देते हैं। बाप की गाली नहीं होती है। होली के रंग-बिरंगे गीतों में महिलाओं की चुनरी गिराने व उठाने वाले वाले मनोज तिवारी का हृदय फागुन की बयार से एकाएक बदल गया। वो संसद में महिलाओं के सच्चे पैरोकार बन गये हैं। दिलफेंक आशिक भी इनके मधुर गीत गाने-गुनगुनाने में शर्म करने लगे हैं। 

महिला एक्टविस्टों ने बोला है कि हम ही गाली क्यों सुनें, बाप-भाई भी सुनें। बात भी बिल्कुल सही है। महिलाओं का गाली सुनने का आरक्षण थोड़े है। भाई, संभल जाओ, महिलाएं जाग उठी हैं। अबकी फागुन में बाप-भाई को गाली दी जाएगी। महिलाएं सुनकर खुशियां मनाएंगी। क्या इससे महिला मुक्ति का सपना साकार हो उठेगा?  



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