तिर्यक आसन: सम्मान की मास्कवादी पढ़ाई उर्फ चरण पुजाई का साहित्य


एक अल्पकालिक नौकरी के दौरान कई वरिष्ठों का सान्निध्य मिला। वहां नमस्ते-प्रणाम का ‘ईगो’ बीच में नहीं आता था। वहां मेरा एक मित्र भी सहकर्मी के रूप में था। अपनी आदत के अनुसार मैं वरिष्ठों से नमस्ते कहता। मेरा सहकर्मी मित्र प्रणाम कहता। मैं नमस्ते कहता, तो वो कम्प्यूटर की आड़ में झुक मुझे केहुनियाकर कान में बताता- बड़ों को प्रणाम बोलते हैं। मैं मुँह बा कर फुसफुसाता- हाँ। सहकर्मी मित्र की केहुनी सहते-सहते धीरे-धीरे मुझे भी प्रणाम का संस्कार आ गया। पर आदतें जल्दी कहाँ छूटती हैं?

उसकी अनुपस्थिति में मैं संस्कार भूल जाता। कभी-कभार उसकी उपस्थिति में भी। वो केहुनियाता- बताया था न…। भूल-सुधार करते हुए मैं तुरंत प्रणाम भी कर लेता। जिनसे करता वो मुस्कुराते। सहकर्मी फिर दाँत पर दाँत रख केहुनियाता- मैंने ऐसा तो नहीं कहा था। वो दाँत पीसते हुए बोलता तो मैं सोचता- गेहूँ की बोरी लाकर रख देता हूँ। दाँत की आटा चक्की है ही। उसके दाँत की आटा चक्की चलाने के लिए कई बार जान बूझकर नमस्ते कर देता था।

एक बार दिल्ली से एक दल पूर्वांचल के दौरे पर आया। दल का एक सदस्य उम्र में सहकर्मी से छोटा था। सहकर्मी ने उसे प्रणाम किया। कम्प्यूटर की आड़ में झुक कर उसे केहुनियाते हुए मैंने उसके कान में कहा- क्यों बे, ये तो उम्र में तुमसे छोटा लग रहा है। फिर प्रणाम क्यों किया? उसने दाँत की चक्की चलाई- पद में बड़ा है। संबंध मजबूत बना रहा हूं। आगे बढ़ने में काम आएगा। मैंने भी आगे बढ़ने का उपाय बताया- तो पैर क्यों नहीं पकड़ लेते? उसने बताया- पकड़ने वाले पकड़ते ही हैं। हमारे-तुम्हारे नमस्ते और पैर न छूने से नाराज हो जाने वाले कई आचार्य घंटों इसके चरणों में पड़े रहते हैं। पद को प्रणाम किया जाता है, आदमी को नहीं। मैंने उसे बताया- तुम सम्मान के पुराने खिलाड़ी हो। मैं अभी नया हूँ। सीख रहा हूँ। प्रणाम का नमस्ते हो जाता है। 

हम दोनों को कम्प्यूटर की आड़ में झुके देख वरिष्ठ समझ जाते- दोनों सम्मान की पढ़ाई पढ़ रहे हैं। वे पूछते- आज कौन सा ‘चैप्टर’ चल रहा है? और हँसने लगते। उस दिन जूता चैप्टर चल रहा था, पर दल के आगमन के कारण वरिष्ठों को पूछताछ का अवसर नहीं मिला।

हम दोनों की सम्मान की पढ़ाई का समय निश्चित नहीं था। कभी भी शुरू हो जाती थी। मैंने टाइम टेबल बनाकर सम्मान की पढ़ाई करने वालों की प्रतिस्पर्धा देखी है। वे टाइम टेबल में सम्मान के घंटों का भी वर्णन लिखते हैं। पढ़ाई का घंटा कम-बेसी हो जाता है, पर सम्मान का घंटा टस से मस नहीं होता- पढ़ाई में हुई कमी चरण पुजाई पूरा कर देगी। 

एक के टाइम टेबल के अनुसार, सुबह ताजी हवा ले रहे आचार्य के सम्मान का घंटा। फिर विभाग में सम्मान के घंटे। विभाग में सम्मान का घंटा परिस्थितियों पर निर्भर करता है। आचार्य के पैर छूकर वो कक्षा में प्रवेश करता। वो कक्षा में रहता, उसकी आँख आचार्य कक्ष का दरबान बनी रहती। टाइम टेबल में सम्मान के घंटों का उल्लेख करने वाले किसी अन्य प्रतिस्पर्धी ने आचार्य का पैर छू लिया तो, वो लघुशंका के बहाने कक्षा के बाहर निकलता। आचार्य कक्ष में जाता। आचार्य के पैर पर लगे दूसरे के ‘फिंगर प्रिंट’ को साफ कर अपना छाप देता।

टाइम टेबल के अनुसार शाम को सब्जी मंडी में सम्मान का घंटा। सर्वप्रथम आचार्य के पैरों पर अपने फिंगर प्रिंट लगाता। तदुपरांत छाँट-छाँट कर सब्जी आचार्य के थैले में भरता। एक बार वो थैले में सब्जी भर रहा था। उसी दौरान आचार्य कुछ लेने दूसरे ठेले पर चले गए। आचार्य वापस लौट कर आए तो उसने एक आलू उनके पैर के पास गिरा दिया। आलू उठाने के बहाने झुका। आचार्य के पैर पर फिर फिंगर प्रिंट लगाया। उस दिन उसने सम्मान का टाइम टेबल बनाने वाले एक अन्य प्रतिस्पर्धी को सब्जी मंडी में मँडराते देखा था। उसे शक था- आचार्य अपने पैर पर उसका फिंगर प्रिंट लगवाने के लिए ओझल हुए थे। 

सम्मान के टाइम टेबल का निर्बाध पालन करने के लिए उसने अपनी रीढ़ की हड्डी निकलवा दी थी। स्प्रिंग लगवा ली थी। गर्दन पर थोड़ा सा दबाव डालता, स्प्रिंग पैरों तक झुक जाती। दबाव हटाता, स्प्रिंग का सिर तन जाता। 

अनवरत सम्मान में झुकते-झुकते उसकी स्प्रिंग का संतुलन बिगड़ गया। वो थोड़ी देर भी सीधा खड़ा नहीं हो पाता। झुककर धनुष हो जाता। आचार्य धनुष का भी उपयोग कर लेते। विरोधी गुट पर तीर छोड़ते। आगे बढ़ने के लिए झुकते-झुकते वो इतना आगे बढ़ गया कि धनुष भी नहीं हो पाता। गठरी के आकार का हो गया है। अब वो चलता नहीं, लुढ़कता है। आचार्य के पैरों में पड़ा रहता है। 

धनुष और गठरी से प्रतिस्पर्धा करने वाले भी हैं। उन्होंने घर के बाहर कई ‘बाप’ बनाये हुए हैं। 

एक सुबह गली में गुमशुदा का पोस्टर देखा- मैं श्री अमुक लाल पिता तमुक लाल बड़े दु:ख के साथ सूचित कर रहा हूँ कि मेरे पुत्र तमुक लाल के बाप लापता हो गए हैं। गुमशुदा बाप के हुलिये की जानकारी अज्ञात है क्योंकि तमुक लाल बारहों महीने बाप बदलता रहता है। गुमशुदा बाप की जानकारी देने वाले को तमुक लाल के पिता अमुक लाल की तरफ से उचित पारिश्रमिक दिया जाएगा। 

अमुक लाल मेरे दूर के पड़ोसी हैं। विधुर हैं। उनका घर पड़ोस की सरहद से बाहर है, पर काम के आदमी हैं, इसलिए उन्हें दूर का पड़ोसी बना लिया। काम के आदमियों को दूर का रिश्तेदार बनाया जा सकता है, तो दूर का पड़ोसी भी बनाया जा सकता है। 

अमुक लाल का पुत्र तमुक लाल सर्वगुण संपन्न है। बंधुआ लेखक है। तदर्थ शिक्षक है। एडहॉक कम्युनिस्ट है। खुद को मुक्त मार्क्सवादी भी बताता है। इस गुण के कारण अमुक लाल की तरक्की से ईर्ष्या करने वाले भी बहुत हैं। ईर्ष्या करने वाले उसे ‘मास्कवादी’ कहते हैं- साहित्य और उच्च शिक्षा जगत में दस में से आठ मास्कवादी हैं। तन पर कम्युनिस्ट और मार्क्सिस्ट का मुखौटा, मन से शुद्ध कांग्रेसजन। जैसी जरूरत पड़ती है, वैसा मुखौटा लगा लेते हैं।

तमुक लाल के गुमशुदा बाप का पोस्टर पढ़ा तो मुझे लगा कि ये उसकी तरक्की से ईर्ष्या करने वालों की शरारत है। 

इधर एक मोहल्ले में एक शरीफ रहते हैं, रसिक नाथ। उन्हें अपनी शराफत की तिजोरी से निकली कोठी पर बड़ा नाज है। बात-बात में किसी को भी पैसे से खरीदने की धौंस देकर अपनी शराफत का परिचय देते हैं। रसिक नाथ की तरक्की से भी ईर्ष्या करने वाले बहुत हैं। ईर्ष्या करने वाले कहते हैं- रसिक नाथ का बाप पैसा है। 

एक बार मोहल्ले में रात्रि जागरण कराने के लिए गायक बुलाये गए। रात्रि जागरण के दौरान गायकों के ऊपर बड़े नोट और छोटे नोटों की गड्डियाँ बरसती रहीं। रात्रि जागरण के दौरान रात भर रसिक नाथ के नाम की धौंस भी दी जाती रही। ईर्ष्या करने वाले रसिक नाथ के नाम से गायकों के ऊपर चवन्नी बरसाते रहे। गायक रसिक नाथ की शराफत की पताका फहराते रहे- इस गीत पर रसिक नाथ जी की तरफ से चवन्नी का पुरस्कार प्राप्त हुआ है। भैया के बार-बार प्रणाम बा। रात्रि जागरण की अगली सुबह सूर्य दूसरी दिशा से उगा। बाप का उपहास उड़ाए जाने से दुखी रसिक नाथ ने अपनी शराफत की धौंस देना बंद कर दिया।  

ईर्ष्या करने वालों ने रसिक नाथ की शराफत के साथ क्रूर मजाक किया था। इसी के अनुसार मुझे लगा कि गुमशुदा बाप के माध्यम से ईर्ष्‍यालुओं ने अमुक लाल के साथ भी क्रूर मजाक किया है। विपत्ति की घड़ी में अमुक लाल को अपने कंधे का सहारा देने के लिए मैं उनके घर की तरफ चला। वे रास्ते में ही मिल गए। एक दीवार पर गुमशुदा बाप का पोस्टर चिपकाते हुए। उनके चेहरे पर दु:ख का कोई लक्षण नहीं था। तमुक लाल की अब तक की जीवनी से परिचित होने के कारण मुझे भी आश्चर्य नहीं हुआ। मैं तमुक लाल के कई बापों को जानता हूं, पर अमुक लाल को कभी नहीं बताया। सब कुछ बता देने पर विश्वसनीयता संदिग्ध हो सकती है- तुम भी उसके साथ मिले हुए हो। किसी और को गुमशुदा बाप के बारे में बताऊँगा तो वो कह सकता है- ये मनगढ़ंत है। फिक्शन है। पिता, पुत्र की रग-रग से वाकिफ़ होता है, इसलिए अमुक लाल ही बताएंगे। 

मैं कुछ कहूं, उसके पहले ही उन्होंने पूछा- तमुक लाल के बाप का नाम जानते हो? सपाटबयानी करते हुए मैंने जवाब दिया- तमुक लाल के पिता आप ही हैं। उन्होंने प्रश्न दोहराया- इस ग्रीष्मावकाश में उसका बाप कौन है? मैंने बताया- जहां तक मैं जानता हूँ, आप तमुक लाल के बारहमासी पिता हैं। उन्होंने कहा- नहीं जानते हो तो पता करो। गर्मी में बाप के बिछोह में उसे लू सता रही है। घर के बाहर ही नहीं निकल रहा है। उस अनाथ का दु:ख मुझसे देखा नहीं जा रहा है। 

मैंने उनके चेहरे पर दु:ख का लक्षण तलाशने की कोशिश की। नाकामयाब रहा। वे कामयाब पिता हैं। सुख और दु:ख दोनों को एक भाव से ग्रहण करते हैं। 

अमुक लाल ने आगे बताया- शीतावकाश में घर आया था तो बाप ज्ञात थे। हँसता-बोलता था। खाता-खेलता था। घर में पैर नहीं टिकते थे। ग्रीष्मावकाश में जब से घर आया है, घर के बाहर कदम नहीं रखा है। गर्मी के बाप नहीं मिले उसे। मैंने सम्भावना जतायी- हो सकता है बाप लू से बचने के लिए हिल स्टेशन चले गए हों। उनके इंतजार में तमुक लाल अनमना हो। या बापों का स्टॉक खत्म हो गया हो। तमुक लाल बोले- आखिर जरूरत ही क्या है कई बाप रखने की? 

मैं क्या जवाब देता? मास्कवादियों को उसके पिता नहीं समझ सकते, तो मैं क्यों बताता कि घर के बाहर भी बाप रखने की मजबूरी क्यों है। खैर… सभी पिता एक जैसे नहीं होते। बेटे को दर-दर भटकने नहीं देते। बेटे के गुमशुदा बाप की तलाश खुद कर देते हैं। 

भक्तिकाल के तत्काल बाद बीएचयू की घटना है। एक पिता एक आलोचक के थैले को प्रतिदिन अपना कंधा देते। शाम को अपना खाली झोला हाथ में झुलाए घर लौटते। एक दिन अपना थैला हाथ में नचाते हुए घर लौटे। थैले में नियुक्ति पत्र था। बेटा प्राध्यापक बन गया। आलोचक की चिट्ठी से बनी नाव में सवार में हो बेटा साक्षात्कार का बजबजाता नाला पार कर गया। बेटे की योग्यता के दामन पर जुगाड़वाद का एक छींटा भी नहीं पड़ा। 

पिता आलोचक के थैले को कंधा देते थे, बेटे ने थैले को मुखाग्नि दी। पितर थैला के ऋण से मुक्त होने के लिए भव्य श्राद्ध भोज दिया। थैले की आत्मा की शांति के लिए प्राध्यापक बेटे ने जीवनी और संस्मरण विधा में भक्ति का काव्य लिखा। 

साहित्य के निर्णायकों से मेरी शिकायत है, वे भक्तिकाल के बाद रचे गए भक्ति के काव्यों के महात्म्य का उचित वर्णन नहीं करते। थैले की भक्ति में समाज की सभी विधाओं में भक्ति के काव्य रचे जा रहे हैं। अस्सी घाट पर भक्ति काव्य का लंगर गड़ा हुआ है। लंगर की जंजीर रबड़ हो गई है । जंजीर से बँधे-बँधे ही नाव घाट-घाट स्वतंत्र विचरण कर लेती है। भक्ति काव्य की एक गुप्त धारा विश्वविद्यालयों तक भी जाती है। तुलसीदास के राम के संबंध में साकार या निराकार का सामाजिक विवाद है। अलग-अलग साहित्यिक मान्यताएं हैं। समकालीन दासों के राम इन विवादों से परे हैं। वे साकार हैं। साकार ब्रह्म हैं।

हो सकता है मेरी शिकायत मेरी भ्रष्ट नजर की देन हो। साहित्य के निर्णायक पूँजी नामक छूत के रोग का शिकार न हों, इसलिए अपनी भलमनसहत में थैले के अंदर न झाँकते हों। मैं इस रोग का शिकार हूँ, इसलिए थैले में छेद कर झाँक लेता हूँ- कुछ मिलेगा या नहीं। दो-तीन आलोचकों के थैले में छेद कर चुका हूँ। मिलने लायक कुछ नजर नहीं आया। इसलिए उनको भाव नहीं देता हूँ। 

कभी आलोचक का थैला अलादीन का चिराग था- जो माँगो, वो पलक झपकते हाजिर। ‘फिट’ होने के इच्छुकों ने घिस-घिस कर आलोचना के चिराग को ‘फ्यूज’ कर दिया। अब भी घिसने से कभी-कभार धुआँ छोड़ता है। इच्छुकों को लगता है- जिन्न प्रगट होगा। पर वो लौ बुझने के बाद उठने वाला धुआँ होता है।

अब आलोचकों का ऐसा रुतबा नहीं रह गया है कि वे अपने कंधे को थैला देने वालों की पीढ़ियों को फिट कर सकें। अब वे साहित्य में ही फिट नहीं कर पा रहे हैं। जिस कंधे को अपने थैले का सहारा देते हैं, वो थैला लेकर भाग जाता है। थैले की आत्मा की शांति के लिए आवश्यक प्रयोजन भी नहीं करता। नतीजा, आलोचक लेखकों और कवियों का कार्यक्रम ढो रहा है।   

अपने सहकर्मी मित्र के आगे बढ़ने वाले फामूर्ले का पालन करते हुए मैं भी आगे बढ़ना चाहता हूँ। इसके लिए मैं धनुष, गठरी और बाप बनाने वालों से भी आगे बढ़ चुका हूँ। सबसे अलग करते हुए आगे बढ़ने के लिए मैं पैरों में पड़ा रहने वाला जूता बन गया हूँ। कई पैरों की शोभा बढ़ा चुका हूँ, पर किसी के पैर में ज्यादा दिन तक ‘फिट’ नहीं हुआ। इसीलिए ‘मिसफिट’ जूता हूँ। जिसने भी धारण किया, उसे पहले दिन से ही काटना शुरू कर देता हूँ, हालाँकि कई लोग इस उपलब्धि से नवाजते हैं कि मैं अमुक के पैर का स्थायी जूता हूँ। इस उपलब्धि से नवाजने वाले जूतों के चरित्र के बारे में अल्पज्ञानी हैं। महँगा जूता हूँ, इसलिए कई आचार्य कहते हैं- वो मेरे पैर का जूता है। 

महँगा जूता काटता भी है तो धारण करने वाला सहता है। उसकी चाल बदल जाती है। पेट में उठे मरोड़ को शौचालय पहुँचने तक थामे रहने की भाव-भंगिमा के साथ मरोड़ नृत्य वाली हो जाती है, फिर भी नहीं कह पाते- बहुत काटता है। महँगी वस्तुओं का प्रदर्शन करने की मानसिकता से उन्हें मेरी कटाई बर्दाश्त करनी पड़ती है। मुझे किसी के पैर का स्थायी जूता कहने वालों ने कभी महँगे जूते नहीं पहने होंगे। ‘डी’ मॉल को असली बताकर महँगा जूता धारण करने का भ्रम फैलाते होंगे। 

मैं सिर्फ पैर में ही नहीं काटता, कान भी काट लेता हूँ। एक आचार्य ने बात काटने पर ही मुझे उतार फेंका। वे जो कहते, उसे सच मानना पड़ता। वाह, वाह के साथ हाँ में हाँ मिलानी पड़ती। एक दिन उनके धनुषों और गठरियों के बीच मैंने उनके सच को अपने ‘कृत्य’ से काट दिया।

अपने दरबार में वे आसन पर शोभायमान थे। धनुष और गठरी उनके चरणामृत का सेवन कर रहे थे। आचार्य कह रहे थे- बड़ा वही है, जिसके साथ बैठने पर कोई खुद को छोटा न समझे। बड़ा वही है, जो सबको एक समान सम्मान दे। आचार्य धनुषों और गठरियों को समझा रहे थे कि मेरे बराबर बैठकर मुझे बड़ा बना दो। आगे बढ़ने के लिए लालायित धनुष और गठरी उनकी नैतिक शिक्षा के उद्देश्य को नहीं समझ पा रहे थे। वे जी-जी कहते रहे। आचार्य उन्हें समझाते रहे। बार-बार बड़ा बनाने वाली विधि बताए जाने के बाद भी वे नहीं समझे। मैं समझ गया। आचार्य को बड़ा बनाने के लिए दूसरे कमरे से एक कुर्सी ले आया। कुर्सी उनके आसन के बगल में रखी। कुर्सी, आसन से थोड़ी नीची पड़ रही थी। बराबरी कर उन्हें बड़ा बनाने के लिए कुर्सी की ऊँचाई बढ़ाने वाली वस्तु के बारे में सोचने लगा। फिर सोचा, धीरे-धीरे बड़ा बनाऊँगा। हो सकता है एक झटके में बड़ा बनने का सदमा बर्दाश्त न कर पाएँ। यही सोच कुर्सी पर बैठा। वे नाराज हुए। धनुषों और गठरियों ने उनकी नाराजगी में ‘टेरी’ भरी। आचार्य ने तुरंत बड़ा बनाने वाले कृत्य का बदला चुकाया। मुझे उतारकर कूड़ेदान में फेंक दिया। 

मैं कूड़ा बीनने वाले एक बुजुर्ग के हाथ लग गया। कहाँ आ गया मैं? ये क्या आगे बढ़ाएगा मुझे? यही सोचकर उसे भी काटना शुरू किया, ताकि जल्दी से उतार फेंके। मैं उसे काटता, वो कुछ बोलता ही नहीं। किचकिचाकर काटता, फिर भी उसके माथे पर शिकन तक नहीं आती। किचकिचाकर काटने में मेरा जबड़ा हिल गया। एक दाँत भी चला गया। जिसने कभी चप्पल न पहनी हो, घिसते-घिसते जिसके पैर के तलवे पत्थर हो चुके हों, काटने वाला जूता उसका क्या बिगाड़ लेता? पत्थर पर दाँत लड़ाते-लड़ाते दंतहीन हो जाऊँ, उससे पहले ही फरार हो गया। एक रात वो मुझे उतार कर सो रहा था। उसी समय भाग निकला। 

नमस्ते की तरह काटने की भी आदत है। आगे बढ़ने के लिए इस आदत को भी बदलने की कोशिश कर रहा हूँ, पर आदतें जल्दी कहां बदलती हैं? महँगे जूते के प्रदर्शन के लोभ में मेरी कटाई बर्दाश्त करने वाले आचार्य खुद को सांत्वना देते हैं- नया जूता कुछ दिन काटता ही है। उनको क्या पता, मैं दुष्ट और बदतमीज जूता हूँ। मुहावरों को भी काट लेता हूँ, हालाँकि आगे बढ़ने के लिए धनुष और गठरी से आगे बढ़ जूता बनने के बाद भी काटने की आदत के कारण मैं आगे नहीं बढ़ पाया। इस आदत में सुधार करने और पुराना खिलाड़ी बनने के लिए कई बार छल-छद्म के कीचड़ में डुबकी लगाई। बाहर खाली हाथ नहीं निकला। हाथ में अनुभव की पॉलिश लेकर निकला। जूते पर मल दी, और नया हो गया। दाँत और पैने हो गए। इसके बाद भी मैं आगे बढ़ने के लिए हमेशा जूता बनने के लिए तैयार रहता हूँ। पुराना खिलाड़ी हो जाऊँगा, तो दाँत भी भोथरे हो जाएंगे। पुराना खिलाड़ी बनने के लिए जी-जान से लगा हुआ हूँ।

मेरा भी एक जूता है। मैं ‘शू लेस’ नहीं बाँधता हूँ। जूते की नकेल कसता हूँ। उससे कहता हूँ- तुम भी दूसरे जूतों से कुछ सीखो। कुछ जूते इतने मजबूत हैं कि सुबह किसी और के पैरों में होते हैं, दोपहर किसी और के पैर में, शाम किसी और के पैर में। वे आगे बढ़ते जा रहे हैं, तुम टस से मस नहीं होते हो। कम से कम सब्जी ही ले आया करो। वो अपने तर्कों से मुझे काट लेता है- वे चमड़े के जूते हैं। मैं ठहरा कपड़े का जूता। मैं इसी चिंता में रहता हूँ कि जल्दी से तुम्हारे बोझ से मुक्ति मिले। जूते की बात सुन मुझे ग्लानि होती है- मैं अपने जूते पर भी बोझ हूँ! ग्लानि दूर करने के लिए पहनने से पहले उसे अपने सिर पर रखता हूँ- देख बे जूते, तू मेरे सिर पर बोझ है। मैं भी चमड़े का जूता लेने की फिराक में हूँ। मिल जाएगा तो तुझसे बर्तन धुलवाऊँगा।



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