केंद्र सरकार द्वारा 19 अप्रैल को एक मानक संचालन प्रोटोकॉल (एसओपी) आदेश जारी करके राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में फंसे श्रमिकों के आने जाने को लेकर उठाया गया कदम, श्रमिकों के अधिकारों पर कुठाराघात है। आइए, हम सब मिलकर पूंजीपतियों और सरकारों के खिलाफ− जो कोविड 19 महामारी के बहाने मज़दूरों का और ज्यादा शोषण करना चाहते हैं− मिलकर प्रतिवाद करें।
सरकार द्वारा जारी यह आदेश किस बारे में है? 19 अप्रैल को गृह मंत्रालय द्वारा जारी इस सर्कुलर के मुताबिक़ फैक्ट्रियों में उत्पादन जारी रखने के लिए, जो श्रमिक जहां है उसको उस राज्य में कहीं भी ले जाया जा सकता है लेकिन मजदूरों को अपने घर वापस जाने की इजाजत नहीं है। इस आदेश का सीधा मतलब है कि हम मज़दूरों के पास सरकार के आदेशों का पालन करने के अलावा कोई चारा नहीं है।
पिछले अनुभव बताते हैं कि स्थानीय प्रशासन और पुलिस की मिलीभगत से मज़दूरों को जबरदस्ती काम करने के लिए मजबूर किया जाएगा। पहले से ही इस तरह की खबरें सामने आनी शुरू हो गई हैं। ऐसे में, क्या यह कहना गलत नहीं होगा कि भारत में कोरोना महामारी से निपटने के बहाने बंधुआ मजदूरी लागू करने की कोशिश की जा रही है।
आज लोगों को एक शहर से दूसरे शहर में जाने की इजाजत नहीं है चाहे वो मुंबई से पुणे, कोटा से जयपुर, कटक से कोरापुट, लुधियाना से जालंधर या कोयंबटूर से चेन्नई जाना चाहते हों लेकिन उत्पादन और मुनाफा के नाम पर, श्रमिकों को कच्चे माल की तरह एक शहर से दूसरे शहर में भेजा जा सकता है।
इस सर्कुलर में मजदूरों की दक्षता और योग्यता मापने के जिस तथाकथित मापदंड की बात की गई है वह या तो मजदूरों की मजदूरी घटा देगा या फिर उन्हें काम करने के लिए अयोग्य घोषित कर देगा। क्या मज़दूरों के पास खुद की रक्षा के लिए कोई साधन उपलब्ध है?
दरअसल, यह स्पेशल आदेश संविधान के अनुच्छेद 23A का उल्लंघन है। कौशल और दक्षता के आधार पर प्रवासी मजदूरों को काम करने के लिए मजबूर करके सरकार उनके साथ उन कैदियों जैसा बर्ताव कर रही है जिनसे उनकी क्षमता और दक्षता के हिसाब से काम दिया जाता है।
राज्य सरकारें और उद्योग काम देने का दावा करते हैं, लेकिन मजदूरी और अन्य सुविधाएं कौन तय करेगा ? ऐसी चर्चा है कि श्रमिकों को कारखानों के अंदर रहना होगा। क्या राहत शिविरों में उनके बच्चों और परिवार के अन्य सदस्यों को भूखे मरने के लिए छोड़ दिया जाएगा? वे बाहर निकल के लिए स्वतंत्र नहीं होंगे क्योंकि वे कहीं जा नहीं सकते और कोरोना वायरस के नाम पर उनके आवागमन पर अंकुश लगा दिया जाएगा। यह कहने में कोई हर्ज नहीं है कि मजदूरों को कैदी बनाकर रखने की तैयारी है ताकि तमाम शोषण और दमन के बावजूद अपने मालिक के लिए उत्पादन करना और मुनाफा कमाना उनकी मजबूरी बन जाए।
श्रमिकों को उनके घरों या पिछले कार्यस्थल से दूर काम करने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता है। इस लॉकडाउन अवधि में, पूंजी और राज व्यवस्था मसीहा के रूप में काम करने का दिखावा करते हुए श्रम यानी मजदूरों पर अपना पूर्ण नियंत्रण करना चाहते हैं। उद्योग धंधों को अच्छी तरह से मालूम है कि प्रवासी मजदूर सस्ते मजदूर होते हैं और उनका किस तरीके से इस्तेमाल किया जाता है।
क्या मजदूरों से उनकी राय पूछी गई है ? मजदूरों को तय करने दिया जाए कि उन्हें क्या करना है।
साथियों, 12 घंटे के अनिवार्य कार्यदिवस यानि 12 घंटे के शिफ्ट की घोषणा कर दी गई है। हम पिछले तीन दशकों में यह देख चुके हैं कि शून्य-रोजगार वृद्धि क्या है। यानी पिछले 30 सालों से रोजगार के अवसरों में कोई वृद्धि नहीं हुई है। कल-पुर्जे बनाने वाले कारखानों, निर्माण कार्य और खेती-बाड़ी सहित कई क्षेत्रों में मशीनों और रोबोट का इस्तेमाल बढ़ा है। हमारे देश में कोरोना महामारी संकट से पहले भी, बेरोजगारी दर, 45 साल के उच्च स्तर पर थी। बार-बार के लॉकडाउन और पूरी दुनिया सहित भारत की अर्थव्यवस्था यानी बाजार में अनिश्चितता बढ़ने यानि आर्थिक मंदी के कारण, बेरोजगारी कितनी बढ़ गई है, इसकी कोई कल्पना नहीं की जा सकती है। हमें दिन में 6 घंटे की 3 शिफ़्ट वाली नौकरी की जरूरत है ताकि ज्यादा से ज्यादा लोगों को रोज़गार मिल सके।
सीएमआइई के अनुसार, अभी बेरोजगारी दर 23.4% है। इसलिए हमें बड़े पैमाने पर अलग-अलग आर्थिक पहलुओं को लेकर लोगों को सुविधा उपलब्ध कराने की लड़ाई छेड़ने की आवश्यकता है – भोजन, पानी की सुलभता, सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा, सार्वजनिक शिक्षा, सार्वजनिक परिवहन, किफायती आवास, सार्वजनिक स्वच्छता आदि और इन सार्वजनिक सेवाओं में लोगों रोजगार देने की मांग भी करनी चाहिए। यह रोजगार के अवसरों को बढ़ाने के साथ-साथ सार्वजनिक सेवाओं को लोगों के लिए सुलभ बनाएगा।
सरकार ने नियोक्ताओं/मालिकों से “अपील” और “विनती” की है कि वे कर्मचारियों को नौकरी से नहीं निकालें या छंटनी ना करें। लेकिन मालिक वर्ग यह क्योंकर करेगा। सरकार को इस आदेश का पालन नहीं करने वाले मालिक और नियोक्ताओं के खिलाफ कठोर कार्रवाई करने का प्रावधान बनाना चाहिए।
इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि हमें उन सभी लोगों को आर्थिक मदद पहुंचानी होगी जिन्होंने लॉकडाउन का संकट झेला है। यह न केवल न्याय के दृष्टिकोण से आवश्यक है और श्रमिकों के साथ हुए अन्याय के लिए प्रायश्चित होगा बल्कि अर्थव्यवस्था और `बाजार ‘के दृष्टिकोण से भी एक सख्त जरूरत है। जैसा कि अर्थशास्त्रियों ने कोरोना महामारी के संकट से पहले बताया था कि गरीबों और मज़दूरों की क्रय शक्ति यानि मज़दूरी बहुत बुरी तरह प्रभावित हुई है और लगातार कम होती जा रही है। इसके लिए पैसा कहां से आएगा?
सरकार को अमीरों से संपत्ति कर, धन कर, कॉर्पोरेट कर, पर्यावरण कर, बढ़ा कर वसूलना चाहिए। वहीं शराब, सिगरेट और अमीरों के इस्तेमाल के अन्य लक्जरी वस्तुओं पर भी टैक्स बढ़ा देना चाहिए। सरकार पर अमीरों का बहुत टैक्स बकाया है, उसे वसूलना चाहिए। इस संकट की घड़ी में अगर सरकार को राजस्व कमाना है तो वह उन लोगों से वसूले जिन्होंने संसाधनों पर कब्जा कर रखा है।
प्रवासी श्रमिकों को घर वापस लौटने से रोकने का असली कारण उनके स्वास्थ्य संबंधी चिंता बिल्कुल नहीं है। तीर्थयात्रियों और छात्रों को विशेष व्यवस्था के साथ उनके घर वापस भेज दिया गया है, जबकि प्रवासी श्रमिकों को पुलिसिया दमन और अपमान का सामना करना पड़ा है। यह शासक वर्ग द्वारा इस संकट का लाभ उठाते हुए श्रमिक वर्ग के शोषण का प्रयास है। शासक वर्ग का एकमात्र उद्देश्य अपने उत्पादन और मुनाफे को जारी रखना है।
प्रवासी श्रमिकों को इस्तेमाल करने की नीति, 12 घंटे की शिफ्ट का प्रस्ताव और संसद को दरकिनार कर अध्यादेश के माध्यम से 3 श्रम संहिताओं को जल्दबाजी में पारित करने के फ़िराक़ में है। जीसीसीआइ (गुजरात चैंबर ऑफ कॉमर्स) ने तो एक साल के लिए यूनियनों पर प्रतिबंध लगाने, वेतन और वेतन भुगतान न करने तक का प्रस्ताव दे दिया है। इसके अलावा कंपनियां और पूंजीपति हायर एंड फायर की नीति यानी जब मर्जी काम से निकालने की नीति का ज्यादा से ज्यादा फायदा उठाना चाहते हैं।
सरकार यह नहीं मानती है कि प्रवासी श्रमिक इस देश के नागरिक हैं और उनके भी अधिकार हैं। यह सर्कुलर खुले तौर पर कहता है कि कैंपों में रह रहे लोगों की विभिन्न नौकरियों के लिए उनकी उपयुक्तता के लिए उनकी “दक्षता और कौशल” मापी जाएगी। फिर उनकी जांच की जाएगी और अगर उनमें संक्रमण के लक्षण नहीं पाए जाते तो उन्हें काम के विभिन्न स्थानों पर ले जाया जाएगा।
क्या हम मजदूरों को मवेशियों या भेड़ों की तरह बसों में भरकर हमारी बोली लगाई जाएगी? क्या यह मज़दूरों को जबरदस्ती पकड़कर उनसे बंधुआ मजदूरी करवाना नहीं हुआ!
पूंजीपतियों ने पहले से यह व्यवस्था बना रखी है कि हममें से अधिकांश के पास इस बात का कोई सबूत नहीं है कि हम किसी विशेष नियोक्ता या ठेकेदार के श्रमिक हैं। इसलिए अब सरकार को एक ऐसा नियम बनाना चाहिए जिससे नियोक्ताओं/मालिकों के लिए श्रमिक और नियोक्ता के बीच नौकरी का लिखित अनुबंध कानूनन अनिवार्य हो जाए। सरकार के पास किसी भी तरह के रोजगार में लगे लोगों का पूरा आंकड़ा और दस्तावेज होना चाहिए और उनकी निगरानी करनी चाहिए। सरकार को मजदूरी भुगतान, काम करने की स्थिति, परिवहन, आवास और अन्य सुविधाओं / लाभों के बारे में मालिकों द्वारा श्रम कानूनों का कड़ाई से पालन करना सुनिश्चित करना चाहिए और ज़रूरत पड़ने पर यह जानकारी यूनियनों और श्रमिक संगठनों के साथ साझा की जानी चाहिए। इस प्रक्रिया में उत्पन्न होने वाले श्रमिकों के विवादों / शिकायतों / प्रश्नों को तेजी से निपटाने के लिए सरकार को विशेष व्यवस्था बनानी चाहिए।
अंततः, सभी फंसे हुए श्रमिकों को अपने गाँव और कस्बों में लौटने और अगर उनकी इच्छा है तो वहीं रह कर काम करने का विकल्प दिया जाना चाहिए। उनके लिए घर लौटने और उनके मानसिक तनाव और अवसाद को कम करने की व्यवस्था की जानी चाहिए। जिस तरह उन्हें काम के लिए भेजे जाने से पहले उनकी चिकित्सकीय जांच की जा रही है उसी तरह उन्हें उनके गाँव और कस्बों में भेजने से पहले उनकी जांच की जा सकती है।
आइए हम एक व्यापक एकता कायम करने की दिशा में आगे बढ़ते हैं और बड़े और छोटे मालिकों-सरकार के समक्ष मज़दूरों की मांग पहुंचाने के लिए “मजदूरों का मांग पत्र” तैयार करें!
मेहनतकश वर्ग की एकता जिंदाबाद! महामारी के नाम पर बंधुआ मजदूरी लागू करने का विरोध करो! मजदूरों के निर्णय लेने के अधिकार और उनकी मांगों के लिए संघर्ष करें!
प्रवासी श्रमिक सहयोग की ओर से जारी
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