महामारी के बीच UAPA और NSA का प्रकोप


पूरी दुनिया महामारी के दौर से गुजर रही है। आर्थिक रूप से टूट जाने का भय तकरीबन दुनिया के हर एक हिस्से में लोगों को सता रहा है। लॉकडाउन के त्रासद दौर से जब दुनिया निकलेगी तो क्या स्वरूप होगा? आर्थिक रूप से कमजोर तबका कहां खड़ा होगा? क्या ये वर्तमान विश्व व्यवस्था के खात्मे का सूचक है?

विश्व भर में इस पर बहसें हैं और नये रास्ते तलाशने का काम किया जा रहा है। ऐसे में भारत की सरकार देश की बड़ी आबादी को हाशिये पर डालने की हर सम्भव प्रयास कर रही है। व्यवस्थित रूप से सरकार का विरोध करने वालों को खत्म करने का प्रयास किया जा रहा है। व्यवस्थित इसलिए कि अब तक गिरफ्तारियां और गैरकानूनी गतिविधि अधिनियम (यूएपीए) का इस्तेमाल सेट एजेंडे के तहत हुआ है। लॉकडाउन के शुरुआती समय 2 अप्रैल को दिल्ली पुलिस जामिया के पीएचडी छात्र मीरान हैदर को पूछताछ के लिए बुलाती है और गिरफ्तार कर लेती है। इसके ठीक नौ दिन बाद 11 अप्रैल को जामिया के एमफिल स्टूडेंट सफूरा ज़रगार को गिरफ्तार कर लिया जाता है। इन दोनों की गिरफ्तारी फरवरी महीने में नार्थ ईस्ट दिल्ली में हिंसा के आरोपी के रूप में हुई है। 

पहली बार 13 दिसंबर को जामिया के छात्रों पर सीएए विरोधी प्रोटेस्ट मार्च को रोकते हुए दिल्ली पुलिस ने हमला किया। इसके एक दिन बाद दिल्ली पुलिस यूनिवर्सिटी के अंदर घुस कर छात्रों पर बर्बर हमला करती है। इस घटना के बाद देश भर में जामिया के समर्थन में और सीएए के विरोध में प्रदर्शन शुरू हुए। इसी के बाद शाहीनबाग रोल मॉडल बना और उसे देश भर में फॉलो किया गया। इनकी गिरफ्तारी के अलावा तकरीबन 50 छात्रों को नोटिस सर्व किया गया और पूछताछ में परेशान किया जा रहा है।

जामिया के नेता एक बड़े समुदाय के लिए रोल मॉडल हैं और इनपर हमला बड़े समुदाय को आहत करने का काम करेगा। कोरोना काल में जमात प्रकरण और मीडिया नैरेटिव ने मुसलमानों के मन में का भय का माहौल तैयार करने का काम किया है। इससे पहले भीड़तंत्र द्वारा हत्या, बाबरी मस्जिद पर फैसले और सीएए में मुसलमान को दोयम दर्जे का होने के लिए मजबूर किया है। लॉकडाउन के बाद देश को पटरी पर लाने के लिए सरकार और जनता के बीच दोस्ताना सम्बन्ध रहना अनिवार्य है। इसमें छोटी सी बाधा भी पोस्ट कोरोना काल को और मुश्किल बना देगी। मुस्लिम छात्र नेताओं की गिरफ्तारियों के नतीजतन सरकार से सम्बन्ध कटु ही रहने वाले हैं। इसका असर देश के हर नागरिक पर पड़ेगा।

यूएपीए और रासुका का नया चलन

लॉकडाउन के बाद देश भर में कोरोना के विस्तार के लिए जमात को जिम्मेदार बताया गया। मरकज़ की घटना निंदनीय थी लेकिन मीडिया ने उसे सम्प्रदायिक गुब्बारा बनाने का सफल प्रयास किया। कई जगह पुलिस और स्वास्थ्यकर्मी पर हमले हुए। इन हमलावरों को सरकार ने राष्ट्रीय सुरक्षा कानून (एनएसए) लगाकर जवाब दिया जबकि महामारी नियंत्रण कानून में ऐसे प्रावधान हैं जिसके तहत कार्रवाई की जा सकती थी।

यहां भी गौर करने वाली बात है जिन लोगों पर एनएसए लगाया गया तकरीबन सभी मुस्लिम समुदाय से आते हैं। पिछले दो दिनों में चार लोगों पर यूएपीए लगाया गया है। इसमें भी सभी मुस्लिम हैं। जामिया के दो छात्र नेता मीरान हैदर, सफूरा ज़रगार और उमर खालिद पर नार्थ ईस्ट दिल्ली हिंसा के लिए यूएपीए के तहत बुक किया गया। इससे एक दिन पहले कश्मीर की फ़ोटो जर्नलिस्ट मसरत ज़हरा पर यूएपीए लगाया गया। मसरत ज़हरा फ्रीलांस फोटो जर्नलिस्ट हैं। मसरत ज़हरा एक वीडियो रिलीज़ कर बताती हैं उन्हें यह नहीं पता कि यूएपीए क्या होता है? बस वो इतना जानती हैं कि इसमें 2 से 7 साल तक की सजा हो सकती है। मसरत के बाद ताज़ा मामला यह है कि श्रीनगर पुलिस ने मशहूर कश्मीरी पत्रकार गौहर गीलानी पर भी गैरकानूनी गतिविधियों का मुकदमा दर्ज कर लिया है। अब जरा सोचिए, अगर यूएपीए इस तरह बैगन भट्टे की तरह बांटा जाएगा तो क्या बाकी कानून को कोल्ड स्टोरेज में रख दिया जाना चाहिए?

लॉकडाउन काल में सरकार स्वास्थ्य व्यवस्था को बेहतर करने की जगह एनएसए और यूएपीए जैसे दमनकारी कानून को नॉर्म बना देना चाहती है। इस हमले का प्राथमिक भुक्तभोगी मुसलमान बन रहा है। सरकार इस बात को जानती है कि लॉकडाउन के बाद मुस्लिम समुदाय की चीख नेपथ्य में चली जाएगी, परन्तु इसका नुकसान यह होगा कि देश आने वाली चुनौती से निपट नहीं पाएगा क्योंकि किसी भी आपदा से लड़ने के लिए हर एक नागरिक की जरूरत होती है। इन हमलों के बीच मुसलमान से सरकार के साथ खड़े होने की उम्मीद बेमानी होगी। “सबका साथ” वाले नारे को चरितार्थ करने की आवयश्कता वर्तमान समय की मांग है।अभी की जरूरत है कि यूएपीए जैसे दमनकारी कानून के इस्तेमाल पर अविलम्ब रोक लगे वरना लोकतंत्र की मूल आत्मा ही मर जाएगी जिसकी बदौलत हम पोस्ट-लॉकडाउन दौर में सुंदर समाज की कल्पना कर पाएंगे।


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