मध्य प्रदेश से चलकर सैकड़ों किमी दूर जाने वाले मजदूरों के लिए कोई व्यवस्था क्यों नहीं?
लॉकडाउन के चलते देश की जनता कोरोना से भी अधिक बेरोजगारी और भुखमरी से ग्रस्त है! ‘रोजगार’ के मुद्दे की गंभीरता अब समझ में आ रही है, बुद्धिजीवियों को भी! लेकिन सबसे अधिक त्रस्त है श्रमजीवी ही! जिनका हाथ पर पेट रहता है, ऐसे मजदूरों में, देश में रोजगारमूलक विकास नियोजन की कमी के कारण, शामिल है आदिवासी भी।
नर्मदा घाटी के, सतपुड़ा और विंध्याचल के आदिवासियों को पहले कभी गाँव छोड़कर दूर क्षेत्र में मजदूर बन के जाना नहीं पड़ता था लेकिन अब प्राकृतिक विनाश और बाजार–आधारित रोजगार की दौड़ में वे अपने गाँव और पंचकोशी के तहत उपलब्ध संसाधनों से रोजगार नहीं पा रहे हैं। किसानों को भी घाटे का सौदा जैसी ही खेती चलानी पड़ती है तो वे काम का सही दाम नहीं दे पाते और रोजगार गारंटी के कानून पर अमल के लिए व्यवस्था, संवेदना, और कुशलता के साथ तैयार नहीं हैं। ग्रामसभा सशक्त करने पर किसी भी राजनेता का ध्यान नहीं है, जो जुटे हैं मात्र मतपेटी भरने पर।
इस परिस्थिति की पोलखोल हो रही है लॉकडाउन के चलते। मध्य प्रदेश के खेती से समृध्द क्षेत्रों के पास रहे पहाड़ी के आदिवासी भर-भर के गुजरात में सुरेन्द्र नगर, जामनगर, अहमदाबाद, बड़ोदा, आणंद, जैसे जिले-जिले में कई तहसीलों में, गाँव-गाँव में टुकड़ियां बनाकर अटके पड़े हैं। उन्हें अपने घर छोड़कर आये, मजदूरी बंद हुई और मजदूरी की कमाई ही खाने की वस्तुएँ खरीदने पर खर्च करके भी कई जगह भूखे रहना पड़ा है। मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री गुजरात और केंद्र में बैठी सत्ताधारी दल के ही होते हुए, उन्होंने गुजरात के मुख्यमंत्री को म.प्र. के गुजरात गये मजदूरों की व्यवस्था करने संबंधी लिखे पत्र की कोई दखल भी नहीं ली गयी है।
यह चित्र बड़वानी तहसील के तथा अलीराजपुर के कुछ ही तहसील और गांवों के आदिवासियों पर गुजरी परिस्थिति से साफ नजर आया है।
गुजरात में लॉकडाउन के बाद कही एकाध गाँव में खाना खिलाया गया, कहीं किसानों ने खिलाया लेकिन पूरे दिन, पूरे मजदूरों की पूरी जरुरतपूर्ति की कोई व्यवस्था नहीं की गयी है। अहमदाबाद जिले के धंधुका और धोलेरा तहसील में अटके 12 समूहों में से कई तो खुले में खेत में, धूपताप में अपने बच्चों के साथ रहते हैं। उनके पास की मेहनत से लायी कमाई और मामलतदार से दिया एकाध कुछ किलो अनाज का पॅकेज खत्म हो चुका है और गाँव वालों ने किसी को थोड़ा सा कुछ दिया तो भी बच्चे, बुजुर्ग अधपेट ही हैं। दुकानों पर माल लेने में भी किसी जगह पुलिस अटकातें है और अन्यथा माल की कीमतें भी अधिक होते, मजदूर सूखे भूखे रहना पसंद करते हैं।
वे चिंता से भरे हुए हैं, वापसी की। वाहन व्यवस्था और खर्चा, दोनों पर नहीं मध्य प्रदेश सरकार का निर्णय, न ही गुजरात का।
भोजन सुरक्षा की, पलायन किये मजदूरों की चर्चा तो माध्यमों में, शासन के वक्तव्यों में, बुध्दिजीवियों के आलेखों में भी बहुत चल रही है लेकिन प्रत्यक्ष में हस्तक्षेप नहीं के बराबर।
श्रीमती दीपाली रस्तोगी, जो मध्यप्रदेश की नोडल अधिकारी हैं उन्हें इस मामले में, तीन दिन पूर्व से हमने जितने गांवों की मिली, वह ठोस जानकारी भेजी है और जिलाधिकारी महोदय को भी लेकिन आज तक सुरेन्द्र नगर जिले के मामलतदार ने मात्र एक गाँव बडोल पर जवाब दिया है, जहाँ गांववाले स्वामीनारायण मंदिर ट्रस्ट की मदद लेकर खाना खिला रहे हैं। इसे शिकायतकर्ताओं ने भी नकारा नहीं है लेकिन इस गाँव की तकलीफ अब खत्म हुई है तो भी अन्यत्र के सभी मजदूरों की शिकायत ही बेबुनियाद होने की रिपोर्ट अधिकारी नहीं भेज सकते। इसका जवाब दे रहे हैं मजदूरों की हकीकत बताने वाले संगठनों के हम साथी।
मध्य प्रदेश शासन के उच्चस्तरीय हस्तक्षेप के बिना आने वाले और 10 दिन 3 मई तक ही लॉकडाउन मानकर बच्चों–बहनों के साथ मजदूर आदिवासी समूहों को काटना भी मुश्किल है! कौन लेगा जिम्मेदारी इन श्रमिकों की? कांग्रेस के कुछ प्रतिनिधि और भाजपा युवा मोर्चा के कुछ साथी कह रहे कि जरूरतों की पूर्ति करेंगे लेकिन उनके पास भी स्थलांतरित मजदूरों की जानकारी उपलब्ध नहीं है। हमने हमारी करीबन 45 समूहों के करीबन 800 श्रमिक आदिवासियों की जानकारी तो भेजी है लेकिन सवाल कई गुना अधिक गंभीर है। आंतरराज्य स्थलांतरित श्रमिक कानून, 1979 का पालन किसी भी राज्य में श्रमायुक्त कार्यालय से तथा श्रम मंत्रालय से नहीं होने से यह स्थिति पैदा हुई है।
स्थलांतर किये मजदूरों के मूल गाँव में रहे बूढ़े माता पिता किसी की अकेली पत्नी और बच्चे भी अधभूखे हैं। कहीं राशन मिला है तो तेल, मिर्च, प्याज नहीं, साग सब्जी नहीं, ऐसी तो कई बिना राशन के लाभ पाये भी हैं। जैसे अमलाली, बिजासन हो या घोंगसा, धजारा, तुवरखेड़ा, कोटबांधनी, भादल ये वनग्राम हों, अकेले बड़वानी तहसील के इन गावों में अभी तक कोविड के दौरान का और कुछ पहले का भी राशन पहुंचना बाकी है। अप्रैल, मई, जून के लिए मुफ्त में देना जाहिर है 5 किलो चावल प्रति व्यक्ति लेकिन अप्रैल के 3 सप्ताह निकल पड़े, बेरोजगारी में; चावल कई जगह पहुंचा नहीं है– बड़वानी से 10/15 किमी दूर भी।
चल पड़े हैं लेकिन मंजिल बहुत दूर है… किसी के मन में नहीं है दर्द?
इससे भिन्न समस्या है मुंबई इंदौर जैसे हाईवे पर चलकर उत्तर प्रदेश के किसी शहर गाँव की लखनऊ जैसी मंजिल तक पहुँचने के इरादे से पैदल चलकर जाने वाले मजदूरों की। मध्य प्रदेश शासन इस बात से हैरान है कि ये एक राज्य से दूसरे राज्य में कैसे पहुँच जाते हैं, लॉकडाउन में? लेकिन जब वे अपने राज्य पहुँच रहे हैं तो उनके साथ शासन का रुख क्या होना चाहिये, इस पर कोई निर्णय नहीं दिखाई देता।
म.प्र. में कोई उन्हें खाना खिलाते हैं, पुलिस या गाँववासी तो उसके लिए भी नियमों के बंधन कभी हैरान करते हैं। कहीं पंचायते गाँव की सुरक्षा के नाम पर नाकाबंदी करती हैं, अपना कर्तव्य नहीं निभाती हैं, जबकि शासकीय अधिकारी उनपर भरोसा व्यक्त करते हैं। लेकिन वे आगे सैकड़ों किमी चलकर कैसे जाएं? जाएं या नहीं जाएं? इन्हें इंसानियत के तहत भी 3 मई तक मध्य प्रदेश में ही, जहाँ पाये जाते हैं, वहाँ रुकवाने की बात मानना और व्यवस्था करना, यह तैयारी नहीं के बराबर दिखाई देती है।
‘दरवाजे के हैंडल को छूना मतलब कोरोना’ यहाँ तक भय पैदा करने के बाद भी इन्हें पैदल चलने मजबूर न करते वाहन व्यवस्था क्यों नहीं? अधिक लाभदायक, कोरोना रोकने और मजदूरों की जान और जिन्दगी बचाने का, परिवहन उपलब्धि ही विकल्प होकर भी क्यों नहीं स्वीकार करती सरकार? इसीलिए ना कि श्रमिकों की न कदर, न सम्मान, नहीं श्रम की सही कीमत!
मध्य प्रदेश शासन ने मंत्रिमंडल नियुक्ति ही देरी से करने से स्वास्थ्य या आपदा प्रबंधन पर राजनीति हावी हुई और आंतरराज्य समन्वय में तो और गंभीर मामला है सत्ताधीशों में बेबनाव का जो इस परिस्थिति में तो है ही।
राजकुमार दुबे. किशोर सोलंकी. महेंद्र तोमर. मेधा पाटकर
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