गोंडवाना रिपब्लिक के स्वप्नद्रष्टा हीरा सिंह मरकाम नहीं रहे, पढ़ें एक पुरानी बातचीत


मध्‍य प्रदेश और छत्‍तीसगढ़ के आदिवासियों के बीच दादा कहे जाने वाले गोंडवाना गणतंत्र पार्टी के राष्‍ट्रीय अध्‍यक्ष हीरा सिंह मरकाम का बुधवार को बिलासपुर में निधन हो गया। वे 78 वर्ष के थे। वे लंबे समय से बीमार चल रहे थे। फॉरवर्ड प्रेस पत्रिका ने दादा मरकाम से आज से ठीक साल भर पहले लंबी बातचीत की थी जिसमें उन्‍होंने गोंड सभ्यता, संस्कृति, परंपराओं, राजनीतिक हालात आदि के बारे में विस्तार से बताया था। फॉरवर्ड प्रेस के लिए यह साक्षात्‍कार सूर्या बाली ने लिया था। जनपथ की ओर से दादा हीरा सिंह मरकाम को श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए हम फॉरवर्ड प्रेस में 18 अक्‍टूबर, 2019 को प्रकाशित यह साक्षात्‍कार संपादित कर के साभार छाप रहे हैं।

(संपादक)

अपनी निजी जिंदगी जैसे शादी विवाह और परिवार के बारे में कुछ बताइए।

मेरी शादी वर्ष 1958 में हुई थी। मेरी पत्नी का नाम श्रीमती राम कुँवर है जो पढ़ी लिखी नही हैं और न ही आजतक पढ़ने की कभी कोशिश की। मेरे तीन बच्चे हैं। सबसे बड़ी बिटिया है जिसका नाम गीता मरकाम है जो अब आयाम [पति का सरनेम] लिखती है। बड़े बेटे का नाम तुलेश्वर मरकाम और छोटे बेटे का नाम लीलाधार मरकाम है। सभी बच्चों की शादी हो गयी है और सभी सफलतापूर्वक अपने कार्यों का निर्वहन कर रहे हैं। सभी सुखी जीवन जीवन जी रहे हैं।  

राजनीति और सामाजिक कार्यों की तरफ झुकाव कब हुआ?

बात वर्ष 1980 की है जब मैं अपने गाँव में सरकारी स्कूल में शिक्षक के रूप में कार्य कर रहा था। तब बहुत सारे शिक्षकों को ट्रांसफर-पोस्टिंग के नाम पर तंग किया जा रहा था। सीनियर अध्यापकों का डिमोशन भी किया जा रहा था। मैंने अध्यापकों पर हो रहे अन्याय और उत्पीड़नके खिलाफ आवाज उठाई और जिले के बेसिक शिक्षा अधिकारी कुँवर बलवान सिंह के खिलाफ मोर्चा खोल दिया। मेरी पहचान एक जुझारू शिक्षक नेता के रूप में बन चुकी थी। उसी समय विधानसभा चुनाव का दौर चल रहा था। चूंकि मैं सामाजिक और शैक्षिक रूप से जागरूक होने कारण समाज की समस्याओं को बड़े स्तर से हल करना चाहता था और यही मुझे सुनहरा अवसर दिखा जब मैं अच्छे ढंग से समाज और लोगों की मदद कर सकता था। फिर मैंने 2 अप्रैल 1980 को सरकारी सेवा से त्यागपत्र देकर पाली–तानाखार विधानसभा क्षेत्र से चुनाव में कूद पड़ा। निर्दलीय प्रत्याशी होने के बावजूद इलेक्शन में दूसरे स्थान प्राप्त किया और यहीं से मेरी राजनीतिक पहचान बनी।

दूसरा चुनाव वर्ष 1985-86 में भाजपा के टिकट से लड़ा और पहली बार मध्य प्रदेश विधानसभा में पहुंचा। मैंने 1990 के लोकसभा चुनाव में पार्टी का विरोध किया। पार्टी ने स्थानीय के बदले बाहरी व्यक्ति को अपना उम्मीदवार बनाया। जब पार्टी ने मेरी बात अनसुनी कर दी; तब मैंने बागी प्रत्याशी के रूप में वर्ष 1990-91 में जांजगीर-चापा लोकसभा क्षेत्र से भाजपा के खिलाफ चुनाव लड़ा, लेकिन हार का सामना करना पड़ा।

आप गोंडवाना आंदोलन से कब और कैसे जुड़े?

जब मैं वर्ष 1980 में विधायकी का चुनाव हार गया था, तब एक काम से मेरा नागपुर जाना हुआ। वहाँ मुझे नागपुर के गोंडवाना क्लब में जाने का मौका मिला। वहाँ पर पहली बार मैंने गोंडवाना के बारे में जाना। मैंने देखा कि वहाँ सभी लोग गोंडवाना प्रदेश के थे। वहीं मेरी मुलाकात पहली बार गोंडवाना सभ्यता और परंपराओं के महान अध्येता मोती रावण कंगाली(2 फरवरी 1949 – 30 अक्टूबर 2015) से हुई। वे बैंक में अधिकारी होते हुए भी अपना काफी समय गोंडवाना आंदोलन को दे रहे थे।  इसी दौरान मेरी मुलाक़ात गोंडवाना में काम करने वाले सुन्हेरसिंह ताराम((4 अप्रैल, 1942 – 7 नवंबर 2018)) और अन्य जुझारू एवं कर्मठ लोगों से हुई। वर्ष 1984 हम पांच लोगों ने कचारगढ़ जतरा की शुरुआत की, जिसमें से बी.एल. कोराम, सुन्हेरसिंह ताराम, शीतल मरकाम, मोती रावण कंगाली और स्वयं मैं था। आज आप देख सकते हैं कि वह जतरा आज कितना विस्तृत हो चुका है।

वर्ष 1986 में जब मैं विधायक बना तब गोंडी भाषा के साहित्यकार और चिंतक सुन्हेरसिंह ताराम अपनी पत्रिका के संदर्भ में मिलने भोपाल आए। जो गोंडवाना सगा नामक पत्रिका निकालते थे। मैंने उन्हे भोपाल बुलाकर गोंडवाना दर्शन पत्रिका निकालने का आग्रह किया। इसके लिए मैंने उन्हें आर्थिक मदद के साथ साथ बहुत सारी किताबें और लाइब्रेरी की सुविधा भी उपलब्ध करवाई। यहीं से गोंडवाना आंदोलन की नींव रखी जानी शुरू हुई।

अमरकंटक के मेले के कुछ अनुभव बताइए।

जैसे-जैसे मेरी रुचि गोंडवाना धर्म, दर्शन, साहित्य में बढ़ती गयी वैसे-वैसे मुझे इन क्षेत्रों में काम करने की ज़रूरत महसूस होने लगी और ऐसा लगने लगा कि गोंडवाना आंदोलन बिना अपने गोंडी धर्म, संस्कृति और परंपराओं को संरक्षित किये आगे नहीं  बढ़ सकता। इसी क्रम में एक बार जब अमरकंटक जाना हुआ, तब वहीं ठुन्नू राम मरकाम से मुलाक़ात हुई, जो एक प्रसिद्ध वैद्य थे। उनके सहयोग से 2005 में उनके घर के बगल में फड़ापेन ठाना की स्थापना की। तब से आज तक लगातार 14 वर्षों से वहाँ पर भव्य कार्यक्रम का आयोजन हो आ रहा है जहां लाखों कोइतूर अपनी संस्कृति और परंपराओं को जानने-समझने दूर-दूर से आते हैं। इसी तरह मोती रावण कंगाली, सुन्हेर सिंह ताराम और अन्य साथियों के साथ मिलकर कचारगढ़ में भी पहल की। अब वह कारवां बहुत आगे बढ़ गया है।

गोंडवाना आंदोलन को बढ़ाने के लिए अमरकंटक में मोती रावण कंगाली और सुन्हेर सिंह ताराम की मदद से गोंडवाना विकास मण्डल की नीव डाली गयी। वहाँ जमीन भी खरीदी गयी। आज वहां भव्य गोंडवाना भवन है। सुन्हेर सिंह ताराम भोपाल से गोंडवाना दर्शन पत्रिका निकालने लगे। हालांकि बाद में उन्होने राजनन्दगाँव जिले से भी प्रकाशित किया। बाद में ताराम साहब ने पत्रिका का संपादन व प्रकाशन नागपुर से करना शुरू कर दिया। इस तरह गोंडवाना मूवमेंट का साहित्य सेक्शन ताराम जी और धर्म-संस्कृति का सेक्शन कंगाली जी देखते थे। बी.एल कोराम जी भी बहुत साहित्यिक अभिरुचि वाले व्यक्ति थे और वे काफी अध्ययन करते थे।

आखिर क्या वजह रही कि आपका जोर चुनावी राजनीति से अधिक गोंड साहित्य, संस्कृति और परंपराओं पर रहा?

इसका पीछे का मुख्य कारण था एक शिक्षक के रूप में मेरा जीवन। गोंड संस्कृति के बारे में तब हम कुछ नहीं जानते थे। परंतु कंगाली जी के साथ में यह सब जानने-समझने का अवसर मिला। कंगाली जी ने लार्ड मैकाले के बारे में बताया और उनका 1882 का भाषण पढ़ने को दिया जिसमें उसने यहाँ की धार्मिक और सांस्कृतिक ताने-बाने का महत्व बताया था। हालांकि वह अंग्रेज हमारी संस्कृति और धर्म को खत्म कर देना चाहता था। तो मैंने सोचा कि क्यूँ न अपनी संस्कृति और सभ्यता को बचाते हुए राजनीति की जाय। उस समय भी ब्राह्मणवाद चरम पर था और मुझे समझ आ गया था कि ब्राह्मणवाद का मुकाबला केवल राजनीति से नहीं किया जा सकता है।

इस तरह की राजनीति करने का एक और कारण था। ढोकल सिंह मरकाम और कंगला माँजी के आंदोलनों से गोंडवाना समाज पूरी तरह टूट गया था और और गोंडवाना अपनी सांस्कृतिक विरासत को खो रहा था। कंगला मांझी गोंड़ समाज को कांग्रेस के हाथों बेच चुके थे।

दूसरी तरफ मंगरू ऊईके और ढोकल सिंह मरकाम लोकसभा चुनाव में एक दूसरे के आमने-सामने थे। तब मंगरू सिंह ऊईके ने ढोकल सिंह मरकाम को धर्म गुरु बनने की सलाह दी जिसके बाद ढोकल सिंह मरकाम ने  राम वंशी गोंड़ और रावण वंशी गोंड लोगों की वंशावली निकाली और उसका विस्तार उत्तर प्रदेश तक पहुँच गया, जिसके फलस्वरूप पूरा गोंड़ समुदाय कई सारे गुटों में बंट गया। यहां तक कि गोंड समाज के लोगों का जनेऊ संस्कार करवाना शुरु कर दिया गया। गाँवों के लोग भाग्य और भगवान के चक्कर में अपनी ज़मीनें खो रहे थे और कर्ज में डूबते जा रहे थे। उस समय पूरा समाज विषम स्थिति में था। तब ऐसे विषम समय में मैंने गोंडी धर्म-संस्कृति का आंदोलन शुरू किया।

कोया पुनेम दर्शन के बारे में बताएं।

कोया पुनेम की व्यवस्था पारी कुपार लिंगो ने दी। उनसे पहले समाज में गोत्र की व्यवस्था और धर्म की व्यवस्था का अभाव था। लिंगो जी ने जंगो दाई के साथ मिलकर कछारगढ़ में कली कंकाली के 33 बच्चों को संस्कार देकर कर उन्हें धर्म के प्रचार की जिम्मेवारी दी। आज भी यह संस्कृति जीवित है और इसकी वजह यह है कि गांवों के लोग इस संस्कृति को मानते हैं। एक खास बात बताता हूँ कि नागपुर के आसपास जिस लिंगो की चर्चा होती है, बस्तर वाले उस लिंगो की चर्चा नहीं करते। बस्तर के लोग अंतागढ़ के सेमलगाँव  में उसेह मुदिया के छोटे भाई लिंगो को मानते हैं।

गोंडवाना गणतन्त्र पार्टी का गठन कब और कैसे हुआ?

नब्बे के दशक में जब पूरा गोंडवाना प्रदेश बहुजन समाज पार्टी और कांशीराम के प्रभाव में था और गोंडी संस्कृति-धर्म को बचाने का कोई उपाय नहीं दिख रहा था। तब ऐसी स्थिति में गोंडवाना गणतन्त्र पार्टी बनाने का विचार आया। गोंडवाना गणतन्त्र पार्टी की नींव तो दिसंबर 1990 में ही पड़ गयी थे, लेकिन 13 जनवरी 1991 को आधिकारिक रूप से इसकी घोषणा हुई। वर्ष 1995  में गोंडवाना गणतन्त्र पार्टी के टिकट पर मैंने छत्तीसगढ़ की तानाखार विधानसभा से मध्यावधि चुनाव लड़ा और जीतकर दुबारा विधानसभा पहुंचा। वर्ष 2003 के विधान सभा चुनाव में हमारे तीन विधायक दरबू सिंह उईके, राम गुलाम उईके और मनमोहन वट्टी विधानसभा पहुंचे।

गोंड सभ्यता, संस्कृति और लोगों के सवालों को लेकर जो राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक आंदोलन आपने आगे बढ़ाया, अब भी वह उसी दिशा में आगे बढ़ रहा है या नहीं? 

देखिए, मैं मानता हूं कि आंदोलन अब पहले वाली स्थिति में नहीं है। मैं इसके लिए किसी और को दोष नहीं दे रहा। मुझमें राजनीतिक दक्षता की कमी थी। मगर अब हम सामाजिक और आर्थिक आंदोलन चलाकर लोगों को सक्षम बनाएंगे। गोंडवाना गणतंत्र पार्टी को फिर से खड़ा करेंगे। हमारे पास गोंडवाना की संस्कृति है। अब हमारा गोंडवाना गणतन्त्र गोटुल (पाठशाला) चलेगा। अंग्रेजी मीडियम स्कूल चलेगा और इस तरह से हमारे पास कार्यकर्ताओं का आभाव नहीं होगा। अब हम जिएंगे तो गोंडवाना के लिए और मरेंगे तो गोंडवाना के लिए।

मैं सीधा और खुले विचार का आदमी हूं। मैंने जिन लोगों पर विश्वास किया और जिनसे मुझे उम्मीद थी कि वे पार्टी को आगे बढ़ाएंगे, उन्होंने पार्टी का हित करने के बजाय अहित कर दिया। वर्ष 2018 में मैंने मनमोहन शाह बट्टी को छिंदवाड़ा से गोंडवाना गणतन्त्र पार्टी से टिकट दिया था और मेरा खयाल है चुनाव में उनकी काफी अच्छी पोजीशन पर रहे। परंतु, कमलनाथ ने छिंदवाड़ा के हमारे कई प्रभावकारी कार्यकर्ताओं को खरीद लिया और हम पीछे रह गए। लेकिन मैंने कभी भी किसी को नहीं निकाला। मैं तो कहता हूँ कि आप सब पुराने लोग आइये। प्रेम से रहिए और काम करिए। गोंडवाना आंदोलन को मजबूत करिए।

मैं यह फिर स्वीकार करता हूं कि मुझमें राजनीतिक दक्षता की कमी थी। मैंने किसानों की हालत को नहीं समझा। खेत गाँव में हैं, श्रम शक्ति गाँव में है, विकास की राह गाँव से निकलती है। कोई कागज के नोट खाकर जिंदा नहीं रहेगा। गाँव से न जुड़ना भी एक महत्त्वपूर्ण कारण था गोंडवाना आंदोलन के कमजोर होने का। इसलिए अब गाँव से आंदोलन को पुनः खड़ा करना होगा। किसी का नाम नहीं लूँगा, लेकिन कुछ लोगों की अति महत्वाकांक्षा ने भी गोंडवाना आंदोलन को नुकसान पहुंचाया है।

गोंडवाना समग्र विकास आंदोलन में आपकी क्या भूमिका रही है?

नहीं, इससे मेरा कोई संबंध नहीं। मेरे आंदोलन का नाम गोंडवाना समग्र विकास आंदोलन क्रांति है। हम आर्थिक आंदोलन चला रहे हैं और गरीब हो चुके गांवों को फिर से समृद्ध  बनाना चाहते हैं।

हमारे कोइतूर समाज की मुख्य समस्याएँ क्या हैं?

हमारे समाज की पांच मुख्य समस्याएँ हैं। 1. भय 2. भूख 3. भ्रष्टाचार 4. भगवान व भाग्य और 5. भटकाव। ग्रंथ और गुरु के अभाव में सारा गोंडवाना भटक गया है। वैसे ग्रंथ तो कंगाली जी ने बहुत सारा लिख कर दे दिया। हमें लिंगो गुरु को स्थापित करके उनके कोया पुनेम दर्शन का प्रसार-प्रचार करना होगा। हम गोंडवाना के लोगों का लंबा जीवन चाहते हैं। पुनेम माने सच्चा मार्ग है। यानि सच्चे मार्ग से चलकर इन परेशानियों से निजात पायी जा सकती और एक निडर, समृद्ध, खुशहाल, स्वस्थ गोंडवाना समाज को फिर से खड़ा किया जा सकता है।

ब्राह्मणवादी शक्तियाँ बहुत तेजी से गोंडवाना में पाँव पसार रही हैं, उनको रोकने के लिए क्या किया जा सकता है?

लोगों को व्यक्तिगत रूप से समझाना होगा। इंसान का बच्चा इंसान ही होता है भगवान नहीं होता। आप अपने कार्यकर्ता को समझा दीजिये वो अपने गाँव में अपने घर को समझा दे और वो 10 लोगों को समझा देगा। हम भी पहले बहुत बड़े अखंड रामायणी थे और 1964 से पहले हमसे बड़ा कोई टीकाकार नहीं था। ब्राह्मण लोग हमें मानते थे। हम भी उस समय हम भी बिगड़े रईस थे। परंतु, वर्ष 1980 में चुनाव हारने बाद जब मैं नागपुर गया तो मुझे गोंडवाना का साहित्य पढ़ने को मिला और धीरे-धीरे गोंडवाना के धर्म और संस्कृति को समझा।

हिन्दू मिथकों के बारे में आप क्या कहेंगे?

क्या है कि जिनको साहित्यिक ज्ञान नहीं है, वे लोग ही ऐसी बात करते हैं। मैंने कंगाली जी से इस बारे में कई बार चर्चा की थी। अब हमारे जितने लोग हैं वे सब जय सेवा-जय फड़ापेन (जल, अग्नि, वायु, आकाश और पृथ्वी को सामूहिक रूप से गोंडी में फड़ापेन) बोलते हैं। एक उदाहरण देता हूँ कि अमरकंटक के आसपास एक उड़िया (उड़ीसावासी) आकर गाँव के लोगों से राधे-राधे कहलवाता था। मैंने बस थोड़ा सा परिवर्तन करके सेवा-सेवा कहलवाना शुरू किया। अब वह उड़ीसावासी और उसका राधे-राधे गायब हो गया। युवाओं की चिंता मत करिए जब उन्हे लोक संस्कृति का ज्ञान होगा तो वे स्वयं समझ सकेंगे कि हमारा कोया पुनेम दर्शन कितना महत्वपूर्ण है।

आपकी भविष्य की क्या योजनाएँ हैं?

हम आने वाले दिनों में बुनियादी स्तर पर गाँवों में गोंडवाना गणतन्त्र गोटुल की स्थापना करना चाहते हैं। आशा करते हैं कि हम ऐसे कम से कम दस गोटुल स्थापित कर सकेंगे।

आज की पीढ़ी को क्या संदेश देना चाहेंगे?

जितने पढे़-लिखे लोग हैं, वे ही गरीबों को लूटते हैं। गरीब लोगों को पुजारी लूट रहा है। कुछ लोग धर्म का प्रवक्ता बन कर लोग अपने लोगों को ही लूट रहे हैं। इसलिए गोटुल की स्थापना जरूरी है। लोगों को आधुनिक शिक्षा देकर उनको जीवन का उद्देश्य श्रम सेवा बनाना चाहिए। संपत्ति बहुत जरूरी है बिना संपत्ति के मनुष्य की कोई कीमत नहीं होती है। मैं तो कहता हूँ कि ‘स्वयं जियो और हजारों लाखों को जीवन दो’। बिना पीछे मुड़े युवा पीढ़ी आगे चलती रहे। शोषणविहीन समाज की रचना में सहभागी बनें।


About जनपथ

जनपथ हिंदी जगत के शुरुआती ब्लॉगों में है जिसे 2006 में शुरू किया गया था। शुरुआत में निजी ब्लॉग के रूप में इसकी शक्ल थी, जिसे बाद में चुनिंदा लेखों, ख़बरों, संस्मरणों और साक्षात्कारों तक विस्तृत किया गया। अपने दस साल इस ब्लॉग ने 2016 में पूरे किए, लेकिन संयोग से कुछ तकनीकी दिक्कत के चलते इसके डोमेन का नवीनीकरण नहीं हो सका। जनपथ को मौजूदा पता दोबारा 2019 में मिला, जिसके बाद कुछ समानधर्मा लेखकों और पत्रकारों के सुझाव से इसे एक वेबसाइट में तब्दील करने की दिशा में प्रयास किया गया। इसके पीछे सोच वही रही जो बरसों पहले ब्लॉग शुरू करते वक्त थी, कि स्वतंत्र रूप से लिखने वालों के लिए अखबारों में स्पेस कम हो रही है। ऐसी सूरत में जनपथ की कोशिश है कि वैचारिक टिप्पणियों, संस्मरणों, विश्लेषणों, अनूदित लेखों और साक्षात्कारों के माध्यम से एक दबावमुक्त सामुदायिक मंच का निर्माण किया जाए जहां किसी के छपने पर, कुछ भी छपने पर, पाबंदी न हो। शर्त बस एक हैः जो भी छपे, वह जन-हित में हो। व्यापक जन-सरोकारों से प्रेरित हो। व्यावसायिक लालसा से मुक्त हो क्योंकि जनपथ विशुद्ध अव्यावसायिक मंच है और कहीं किसी भी रूप में किसी संस्थान के तौर पर पंजीकृत नहीं है।

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