दिल्ली में अबकी आ कर उन यारों को न देखा…
हिन्दी समाज न जाने क्यों आर्थिक प्रश्नों पर बिलार के सामने पड़े कबूतर की तरह आँख मूँद लेता है जबकि हिंदी पट्टी की आबादी अधिक और विकास दर कम है। यह समाज अपने दारिद्र्य को लेकर चीखता-चिल्लाता भी रहा है। आर्थिक दारिद्र्य वैचारिक रूप से भी दरिद्र बना देता है क्या?
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