स्मृति शेष: बड़े भाईसाहब से कैसे साथी बने कॉमरेड केसरी सिंह

उनके ठीक होने की इच्छा, उनके अंतिम समय तक कुछ न कुछ सार्थक करने और सीखने का व्यक्तित्व हमेशा हमारी यादों में रहेगा। मौत तो सबको ही आती है लेकिन वे लोग मौत के बाद भी जीते हैं जो मौत के डर से जीते-जी हथियार नहीं डाल देते।

Read More

‘यूपी की सत्ता में बहुजन राजनीति का किला दोबारा खड़ा करना ही नेताजी को सच्ची श्रद्धांजलि’!

बाबरी मस्जिद के विध्वंस ने विध्वंसक राजनीति को उकसाया। उस दौर में कांशीराम-मुलायम सिंह के गठजोड़ ने इसे थोड़े वक़्त के लिए ही सही मुकाबला किया। तब नारे लगते थे ‘लोहा कटे लोहरे से सोना कटे सोनारे से, जब मुलायमा हाथ मिलाए कांशीराम से’।

Read More

प्रो. अली जावेद का निधन देश के प्रगतिशील सांस्कृतिक आंदोलन की बड़ी क्षति: PWA

प्रोफेसर अली जावेद के निधन पर जनवादी लेखक संघ, जन संस्कृति मंच, भारतीय जन नाट्य संघ (इप्टा), जन नाट्य मंच (जनम), दलित लेखक संघ, प्रतिरोध का सिनेमा आदि सांस्कृतिक संगठनों ने शोक व्यक्त किया है।

Read More

नाउम्मीदी के दौर में उम्मीद का दामन थामे रखने का संदेश देने वाले थे सौमित्र दा

रविन्द्र सदन से शुरू हुई उनकी अंतिम यात्रा में चाहने वालों की तीन किलोमीटर लंबी कतार और चिरनिद्रा में लीन सौमित्र दा को अजिक्ता बनर्जी की कविता “तुम एक जीवित नॉस्टल्जिया हो / तुम हारना नहीं जानते फेलूदा” भी उठा नहीं पायी।

Read More

स्मृतिशेष सौमित्र चटर्जी: वैचारिक भिन्नताओं से परे एक अभिनेता जिसके जाने का दुख सबको है

सौमित्र चटर्जी आखिरी सांस तक एक कम्‍युनिस्ट रहे, हालांकि आधिकारिक रूप से वे किसी पार्टी के कार्ड होल्डर अथवा सदस्य नहीं थे, किंतु वे अक्सर सीपीआइ के मुखपत्र ‘गणशक्ति’ में लिखा करते थे.

Read More

स्‍मृतिशेष: रघुवंश बाबू का जाना भारतीय राजनीति को रिक्त कर गया है

उनके घर में कभी भी कोई बिना रोकटोक के आ जा सकता था. इसका लाभ कुछ लोग अलग तरह से उठाने की कोशिश भी करते थे, लेकिन रघुवंश बाबू से इस तरह का लाभ लेना बहुत ही मुश्किल काम था.

Read More

“मैंने चितरंजन दा को हमेशा अपने अकेलेपन से लड़ते हुए पाया”!

यह सच है कि चितरंजन दा ने जनांदोलनों को लोकतांत्रिकता की नई दिशा दी। यह भी सच है कि उन्होंने मानवाधिकारों को कोर्ट-कचहरी की फाइलों से उठाकर साधारण आदमी की गरिमा का सवाल बनाया। यह भी सच है कि उन्होंने उन गली कूचों मोहल्लों टोलों तक अपनी पहुंच बनाई जहां व्हाटसएप, ट्विटर और फेसबुक आज भी नहीं पहुंचा है। मैं इसमें से किसी भी बात को दोहराना नहीं चाहता। एक मनुष्य अपनी सामाजिक पहचानों से ऊपर भी बहुत कुछ होता है। शायद उन पहचानों से बहुत-बहुत ज्यादा। अपने बहुत भीतर।

Read More

सुशांत सिंह राजपूत: डुबोया मुझ को होने ने…?

एक अच्छा-भला सफल सितारा! बहुत कम संघर्ष में जिसने सेलिब्रिटी का स्टेटस पा लिया था, जिसके जीवन से संघर्ष का दौर खत्म हो चुका था। सुशांत सिंह ‘राजपूत’! अपने घर …

Read More

स्मृतिशेष डॉ. श्याम बिहारी राय: वह अंतिम समय तक आंदोलनकारी की भूमिका में ही रहे

डॉ. श्याम बिहारी राय से मेरे पहली मुलाक़ात 1970 के दशक के शुरुआती वर्षों में किसी समय दिल्ली में हुई थी और तब से अंत तक उनके साथ जीवंत संबंध …

Read More