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रफ़्तार: पिता दिवस पर एक लघुकथा
ट्रेन अपनी गति पकड़ चुकी थी। अब तक मुझे अपनी सीट नहीं मिल पायी थी। जो सीट मेरे लिए मुकर्रिर थी वो दूसरे कोच में थी। स्टेशन पर जब तक गाड़ी खड़ी रही मैं अपनी उसी सीट पर बैठा था। कुछ देर बाद एक बूढ़ा दंपत्ति मेरे पास आया…
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