रफ़्तार: पिता दिवस पर एक लघुकथा


“कोई इंसान खुशी को लगातार कितनी देर बर्दाश्त कर सकता है?”

उनको देखकर मेरे मन में यह प्रश्न उठा। एक हद के बाद तो रोता हुआ इंसान भी सिसकियाँ लेते-लेते खामोश हो जाता है पर खुशी की अपारता को देखने का यह मेरा पहला अनुभव था।

ट्रेन अपनी गति पकड़ चुकी थी। अब तक मुझे अपनी सीट नहीं मिल पायी थी। जो सीट मेरे लिए मुकर्रिर थी वो दूसरे कोच में थी। स्टेशन पर जब तक गाड़ी खड़ी रही मैं अपनी उसी सीट पर बैठा था। कुछ देर बाद एक बूढ़ा दंपत्ति मेरे पास आया और बताया कि उनकी एक सीट दूसरे बगल वाले कोच में है पर वो ज़ाहिर है एक साथ बैठना चाहते हैं। ऐसे में अगर मुझे कोई तकलीफ न हो तो मैं उन्हें अपनी सीट दे दूँ और दूसरे कोच में उनकी सीट पर चला जाऊँ। मुझे ऐसा करने में कोई तकलीफ नहीं हुई और अब मैं दूसरे कोच में उनकी बताई सीट के पास खड़ा था।

मेरे इस तरह मान जाने पर वो दोनों बहुत प्रसन्न हुए थे और मुझे सदा सुखी रहने का आशीर्वाद दिया था।

जब मैं अपनी इस बदली हुई सीट पर पहुंचा तो वहां पहले से ही एक बुजुर्ग बैठे थे। मैं अपने कंधे से अपना बैग उतारने लगा तो उन्होंने पूछा– “इज़ इट योर सीट?” मैंने हाँ कहने के लिए अपना सिर झुकाया।

उनका अगला वाक्य काफी लंबा था जो उन्होंने अँग्रेजी में बोला और जिसका मतलब यह था कि “उनका ट्रेन टिकट कहीं खो गया है। वो आज शाम को ही सीधा अमेरिका से भारत आए हैं। उनकी फ्लाइट किसी तकनीकी खराबी के कारण रद्द हो गयी थी और उन्हें एक रात साइन फ्रान्सेस्को में रुकना पड़ा था। उसी एयरलाइंस ने सभी यात्रियों के लिए एक बड़े से होटल में रुकने का प्रबंध किया था। अगली सुबह उनकी फ्लाइट ने उड़ान भारी। उन्हें याद नहीं कि शायद उसी होटल में कहीं उनका ट्रेन टिकट छूट गया था”। अभी बात जारी थी।

उन्होंने बताया कि उनका बेटा अमेरिका में ही बस गया है। करीब पंद्रह साल पहले वो अमेरिका गया था। फिर वहीं बहन को बुला लिया था और एक सम्पन्न भारतवंशी लड़का देखकर उसकी शादी करवा दी थी। अब उनकी बेटी भी अमेरिका में ही बस गयी है। दस साल हो गए उसकी शादी को तब से पहली बार ये अपनी बेटी से मिले थे। दोनों भाई बहिन वहां बहुत खुश हैं। दोनों के परिवार हैं। खूब कमाई है। अपना घर, अपनी गाड़ी, सब कुछ है वहाँ उनके पास”। उनकी बात जैसे ही खत्म हुई मैं किसी तरह जगह बनाकर बैठ गया।

उनकी उम्र कम से कम 75 साल तो होगी। आँखों पर मोटे फ्रेम का भारी चश्मा, बाल फक्क सफ़ेद, हाफ आस्तीन की सफ़ेद शर्ट और उन्हीं की तौल का बड़ा-सा बैग और होंठों पर अमेरिका। इतनी देर तक उनसे मुखातिब होने पर जो कुछ मुझे उनके बारे में उल्लेखनीय लगा, बस यही था। मेरे बैठते ही उन्होंने फिर बताना शुरू किया कि “जिस होटल में उन्हें ठहराया गया था वो कितना भव्य और विशाल था। कितने तो फ्लोर थे। बाथरूम की साइज़ कितना बड़ी थी। सर्विस के मामले में तो कहना ही क्या? बहुत अच्छी सर्विस… वो मेरी तरफ बहुत गौर से देख रहे थे पर मैं कुछ बोल ही नहीं सका। अब होटल की भव्यता को लेकर मुझे पता नहीं लोकाचार कैसे निभाया जाता है इसलिए मैं अपने मोबाइल में झाँकने लगा। कोई बढ़िया फनी टाइप मैसेज था जिसे पढ़कर मैं थोड़ा मुस्कुराया।

उन्होंने तत्काल कहा- “तुम बिलकुल मेरे बेटे की तरह मुस्कुराते हो। मेरा बेटा बहुत जीनियस है। कभी फेल नहीं हुआ। आज एक बड़ी कंपनी में मैनेजर है। पंद्रह साल पहले अमेरिका चला गया था, अब वहीं बस गया है। भारत आने को कहा मैंने, तो कहने लगा कि वहां उसके लायक कोई कंपनी ही नहीं है। बहुत मेहनती रहा है वो”। अब वो फिर से बिना रुके बोले जा रहे थे।

मैं उन्हें इस तरह बोलते हुए देख रहा था और सोच रहा था कि इनका ट्रेन टिकट गुम हो गया है, न कोच का पता है न सीट का फिर भी कितने निश्चिंत हैं और अपने बेटे और अमेरिका को याद किए जा रहे हैं। मुझे थोड़ी झुंझलाहटट भी हो रही थी अब, लेकिन वो इतना खुश थे कि कुछ किया नहीं जा सकता था, वैसे भी बुजुर्ग थे उनका दिल क्यों दुखाता…।

“अभी टीटी आने वाले होंगे, उनसे आपकी सीट का पता चल जाएगा”, मैंने कहा, तो जैसे वो लॉस-एजेंल्स से भारत वापिस आए। उन्होंने अपना चेहरा मेरी तरफ घुमाया ज़रूर पर मेरी तरफ देखा नहीं और एकदम निर्लिप्त भाव से कहा- “हाँ टीटी आ जाता तो ठीक रहता”।

उन्होंने फिर बात शुरू की। मुझसे पूछा- “तुम कहाँ जाओगे? मुझे कोटा जाना है।“ सवाल मुझ से पूछकर खुद जवाब देते हुए बताने लगे कि “मैं कोटा में पिछले पच्चीस साल से हूं। यहीं के शासकीय महाविद्यालय में प्रिंसिपल रहा हूं। बाद में अपना घर भी वहीं बना लिया। मेरे बेटे ने कोटा से ही आइआइटी की प्रवेश परीक्षा के लिए तैयारी की थी। आज देखो अमेरिका में बस गया है। खूब पैसा कमा रहा है। बहुत होनहार निकला। उसके साथ के दूसरे बच्चे आज भी यहीं शहर में भटक रहे हैं। ऐसा नहीं है कि वो सब भी पढ़ते लिखते नहीं थे या पढ़ना नहीं चाहते थे पर जिस तरह की बुद्धि आज आगे बढ़ने के लिए चाहिए वो नहीं थी उनके पास। हमेशा अव्वल। परीक्षा की कॉपियों में मानो प्रश्नों के उत्तर नहीं बल्कि अपना परिणाम लिखता था। वो हमेशा फालतू की यारी-दोस्तियों से दूर रहा, नाच गाना,खेल कूद से कभी वास्ता न रखा बल्कि अपनी धुन का पक्का केवल सफलता की तरफ दौड़ता रहा और एक के बाद एक सफलता की कई सीढ़ियाँ चढ़ता गया। अब तो वो अमेरिका में ही बस गया। आज भी वही स्वभाव, कभी किसी की दो-चार में नहीं पड़ता। कितनी बार तो उसे कंपनी में बेस्ट एम्प्लोई माना गया”।

“बगल वाले के यहां क्या हो रहा है उसे इससे कभी मतलब नहीं रहा, बस अपने काम से काम। अब तो खैर और ज़्यादा एकाग्रचित्त हुआ है। फोन पर भी केवल काम की बात करता है- टू द पॉइंट। टीवी पर भी केवल बिज़नेस न्यूज़ देखता है। बहुत होनहार। अमेरिका से ही अपने लैपटॉप से मेरा टिकट कर दिया था उसने पर पता नहीं कहीं खो गया।“ यह कहकर जैसे वो थोड़ा चिंता में आए।

“आपके पास कोई फोटो पहचान पत्र तो है न?” मैंने उनसे पूछा, मुझे चिंता हो रही थी। मेरी बात को अनसुना करते हुए वो फिर बताने लगे– “एयरपोर्ट तक छोड़ने आया था मेरा बेटा। अंदर तक नहीं आया था, उसे किसी ज़रूरी बिजनेस मीटिंग में जाना था, एयरपोर्ट रास्ते में ही पड़ता था तो मुझे छोडता गया था। अंदर पहुँचकर पता चला कि हमारी फ्लाइट रद्द हो गयी है तो मैंने उसको फोन किया पर बात नहीं हो पायी, शायद वो किसी मीटिंग में रहा होगा। खैर जानता तो है कि मैं भी प्राचार्य रहा हूँ, कहीं भटकूंगा थोड़े ही।“

मेरी तरफ देखते हुए थोड़ा गर्व से बोले- “बेटा, अगर अँग्रेजी पर कमाण्ड हो तो दुनिया में कुछ भी करना मुश्किल नहीं है। यह भी जानता है मेरा बेटा कि मुझे अँग्रेजी बढ़िया आती है, आखिर मुझ से ही तो उसने भी सीखी है अँग्रेजी। खैर अब तो कोटा पहुँच कर ही बात करूंगा उससे। मेरा मोबाइल भी काम नहीं कर रहा है।“

“कोटा तो रात को एक बजे आयेगा?” मैंने थोड़ी चिंता के साथ पूछा। लगा जैसे वो पहली बार अब थोड़ा परेशान हुए हैं। “आपके पास इतना बड़ा बैग भी है”, कहते हुए मैंने बैग की तरफ देखा। तभी टीटी आ गए। टीटी के सामने भी उन्होंने वही सब दोहराया जो मुझे बता चुके थे। हर तीसरे वाक्य में अमेरिका और हर दूसरी बात में उनका बेटा।

टीटी ने जब उनसे उनका फोटो पहचान पत्र मांगा तो वो अपने हैंड बैग की चैन खोलने लगे। मैंने गौर किया कि उनका एक हाथ लगभग शून्य था और दूसरा हाथ इतना काँप रहा था कि उनसे चैन खोलते नहीं बन रही थी। मैंने उनकी मदद की। इतना देर साथ बैठे और उनकी बातें सुनते रहने के कारण शायद उन्हें मुझ पर भरोसा-सा हो गया था। उन्होंने अपना बैग मुझे दे दिया और बताया कि कौन सी जेब में होगा। मैंने टीटी को उनका पहचान पत्र दिखाकर वापिस उनके बैग में रख दिया और बैग उन्हें वापिस कर दिया।

उन्होंने बहुत आत्मीय स्वर में मुझे निहारते हुए कहा- “लाइक माइ सन! वो भी जब तुम्हारी उम्र का था मुझे छोटे छोटे कामों में इसी तरह मदद कर दिया करता था। अब तो खैर वो अमेरिका में बस गया है। मैं उससे बहुत खुश हूं।“

परिचय पत्र के साथ ही उनका खोया हुआ टिकट भी मिल गया था। उनकी सीट मेरी सीट के सामने ही थी। वो अनजाने ही सही जगह आकर बैठ गए थे। अभी रात के नौ बज रहे थे। मैंने उनसे पूछा– “आप खाना खाएँगे?” उन्होंने फिर अमेरिका से अपनी बात शुरू करते हुए यह बताया कि उन्हें भूख नहीं है, रात के सफर में वो कम ही खाते हैं।

“हां, एक बोतल पानी चाहिए अगर कुछ इंतजाम हो सके तो?” इस बार उनकी आवाज़ में हल्की सी बेबसी दिखी। मैंने ध्यान दिया कि उन्होंने पिछले तीन घंटों से पानी नहीं पिया जबकि मैं दो बोतल खाली कर चुका हूं। संभव है उनके पास पानी नहीं था और वो संकोच में थे। मुझे अफसोस हुआ कि इनसे पानी के लिए पहले ही पूछा जा सकता था।

मैं पेंट्री कार से पानी लेकर लौटा तो देखा वो अपनी बर्थ पर चादर बिछाने की कोशिश कर रहे हैं लेकिन एक हाथ शून्य होने और दूसरे हाथ में कंपन की वजह से वो कुछ कर नहीं पा रहे थे। मैंने उनसे चादर लेकर अच्छे से बिछा दिया। उन्होंने कृतज्ञता से मेरी तरफ देखा और होठों में कुछ बुदबुदाये जो मुझे समझ में नहीं आया।

मैंने उनसे कहा- “मुझे जल्दी नींद नहीं आती और एक बजे तक तो आसानी से जागता रह सकता हूं। आदत है। एक अच्छा उपन्यास पढ़ रहा हूँ तो जल्दी सोने का सवाल ही नहीं है। आप आराम से सो जाइए। थके होंगे। इतना लंबा सफर करके आए हैं। मैं आपको कोटा आने पर जागा दूंगा और आपको आपके सामान के साथ उतारने में मदद कर दूंगा।“

उन्होंने पहली दफा गंभीरता से मेरी बात को सुना और बहुत ही धीमे स्वर में कहा- “नहीं बेटा, तुम मेरे लिए अपनी नींद खराब मत करना। मैं अपने आप जाग जाऊंगा। कोटा आने पर उतर जाऊंगा और अपना सामान भी उतार लूँगा। अब तो अकेले ही सब कुछ करने की आदत हो गयी है। जब तक तुम्हारी आंटी थीं तब मैं घर और बाहर दोनों जगह प्राचार्य बनकर रहता था पर अब तो पंद्रह साल हो गए, अपना सब काम खुद कर लेता हूं।“

उन्होंने लंबी सांस छोड़ते हुए मेरी तरफ देखा। थोड़ी देर की चुप्पी के बाद मुझसे कहा- “तुम सो जाओ बेटा। आज की ज़िंदगी बहुत तेज़ है। जब भी आराम करने का मौका मिले, आराम करो। देखा है मैंने अपने बेटे को, कितना व्यस्त रहता है वो। दो महीने रहा अमेरिका में, उसके साथ, उसके घर पर दो घंटे भी बात नहीं हो सकी। मेरे भारत लौटने के चार दिन पहले ही किसी दूसरे देश निकल गया था। आते समय भी नहीं मिल पाया। मैंने रोका भी था कि चार दिन बाद चले जाना पर उसने मुझसे साफ-साफ कह दिया था कि इस दुनिया की रफ़्तार को आप नहीं समझोगे, मुझे जाना ही होगा, कंपनी की एक बड़ी डील फाइनल होना है।“

इतना कहकर वे फफक-फफक कर रोने लगे। उनकी इस स्थिति पर मुझे भी रोना आया लेकिन किसी तरह ज़ब्त कर गया। जब वो थोड़ा शांत हुए तो मेरा नाम पूछा, फिर बोले- “बेटा, तुम्हें आशीर्वाद नहीं दूंगा कि खूब तरक्की करो… जब से तुम मुझे मिले हो कई बार अपने बेटे जैसे लगे हो…!”

मैं अब उनका सामना करने की स्थिति में नहीं था, सो खिड़की की तरफ मुंह करके चुपचाप लेट गया… ।


लेखक सामाजिक कार्यकर्ता हैं और जनपथ के स्तंभकार हैं


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10 Comments on “रफ़्तार: पिता दिवस पर एक लघुकथा”

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