चुनाव से पहले किए जाने वाले लोकप्रिय वादों और दावों पर रोक का जटिल सवाल

उच्चतम न्यायालय ने एक याचिका की सुनवाई के दौरान राजस्थान और मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्रियों द्वारा लगातार की जा रही घोषणाओं पर संबन्धित राज्य सरकारों, केंद्र सरकार तथा चुनाव आयोग को नोटिस देकर अपना पक्ष रखने को कहा है।

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क्या नये भारत में राज्य की इच्छा ही न्याय है?

अंतरराष्ट्रीय संधियों की बाध्यता को आधार बनाकर अपनी सुविधानुसार सत्ता नागरिक अधिकारों में कटौती कर रही है जबकि अंतरराष्ट्रीय कानून के उन उदार अंशों को रद्दी की टोकरी में डाला जा रहा है जो शरणार्थियों एवं अल्पसंख्यकों के अधिकारों से संबंधित हैं। ऐसे समय में मानवाधिकारों की रक्षा के लिए सुप्रीम कोर्ट से उम्मीद लगाये आम आदमी की हताशा स्वाभाविक ही है।

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गांधी बनाम मोदी: लोकतंत्र में सियासी जंग का आखिरी मोर्चा सज चुका है!

भाजपा को अपने इस अभियान को सफल करना है तो गांधी परिवार को राजनैतिक रास्ते से हटाना होगा क्योंकि गांधी परिवार ने दंडवत होने से या रास्ता छोड़ देने से इनकार कर दिया है। सत्ता के चारों हथियार साम, दाम, दंड, भेद गांधियों को झुकाने में नाकाम रहे हैं।

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भारत क्या है? राज्यों का संघ या एक राष्ट्र?

आधुनिक युग में सामान्य रूप से राष्ट्र शब्द इंग्लिश शब्द नेशन का हिंदी रूपांतर माना जाता है। राष्ट्र, राज्य, राष्ट्रीयता, संघ सब अलग-अलग शब्द हैं, उनके अलग-अलग अर्थ हैं और उनकी अलग-अलग व्याख्याएं हैं, यह सभी समानार्थी नहीं हैं। सामान्यतया राष्ट्र और राज्य को एक मान लिया जाता है, जबकि दोनों अलग-अलग हैं।

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बुलडोजर संस्कृति का राजनीतिक अर्थशास्त्र और असमानता की जटिल गुत्थी

जब असमानता को समझना इतना जटिल है तो उसे अपने सत्ता सुख के लिए बढ़ाना कहां से न्यायोचित है? यह देश ऐसा है जहां दो समुदायों के बीच द्वेष न हो इसलिए शिव ने हलाहल पान किया है। जिसे हम सुप्रीम सैक्रिफाइस कहते हैं वह महादेव ने किया। क्या हम उनके बलिदान को व्यर्थ जाने देंगे? मत भूलिए, इन्‍हीं सत्तानवीसों से मुक्ति के लिए कृष्ण ने इंद्र पूजा पर रोक लगायी और लोकतंत्र की स्थापना की थी। आप कृष्ण भक्त होकर कृष्ण का तिरस्कार मत कीजिए।

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बात बोलेगी: जेहि ‘विधि’ राखे राम ताहि ‘विधि’…

जब विधि का बल परास्त होता दिख रहा है तो वह करार भी टूटता नज़र आ रहा है जो सभी तरह के बलधारकों और निर्बलों को एक सफ़ में खड़ा करता था। विधि के बल के रीतने से हमारे बीच का नागरिक रीत रहा है; नागरिक समाज के बीच का करार रीत रहा है; और ये सब रीतने से हमारे बीच का मनुष्य रीत रहा है।

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संवैधानिक मूल्यों पर चलता संवेदनशून्य राजनीति का बुलडोज़र

देश का संविधान अपने स्वरूप में पूरी तरह से “राष्ट्रवादी” है जिसके पालन में ही देश का भविष्य है। किसी भी राजनीतिक दल का समर्थक या विरोधी हुआ जा सकता है, लेकिन यह भी याद रखने की जरूरत है कि जनता से राजनीतिक पार्टियों का वजूद तय होता है, न कि राजनीतिक पार्टियों से जनता का अस्तित्व।

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अनुभव, कल्पना और न्याय: एक समतापूर्ण समाज के निर्माण पर औपनिवेशिक छायाएं

समाज की नेतृत्वकारी भूमिकाओं और शक्ति-संरचना को नियंत्रित करने वाले दायरों में जब नए समूह जैसे दस्तकार, अछूत, महिलाएँ, छोटे किसान और श्रमिक शामिल हुए तो उन्होंने उस दुनिया पर सवाल उठाए जिसके बारे में कहा जा रहा था, इसे बदला नहीं जा सकता। उन्होंने ईश्वर के द्वारा बनायी गयी दुनिया और उसकी व्याख्या में अपने अनुभवों के वृत्तांतों से धक्का मार दिया।

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पूंजीवाद और लोकतंत्र के ऐतिहासिक रिश्तों के आईने में संवैधानिक मूल्यों की परख

चिली से यह नवउदारवाद शुरू हुआ था। आज वहां शिक्षा के व्यावसायीकरण के खिलाफ चलने वाले आन्दोलन का छात्र नेता राष्ट्रपति चुना गया है। चक्र पूरा हो चुका है। अलेंदे को हटा कर पिनोचे को बैठा कर जो प्रयोग किया गया, पूरी दुनिया में जिसे फैलाया गया वह वहीं अपनी पुरानी जगह फिर पहुँच गया। जिन मुल्कों में 30 साल पहले नवउदारवादी नीतियां और सुधार लागू किये गये उन सभी मुल्कों में सत्र पूरा होने की घंटी बज रही है।

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बात बोलेगी: फिर आया लोकतंत्र के कर्मकांड का मौसम…

पहले जब राज्यों में चुनाव हुआ करते थे तो राज्य सरकारों की ही शक्तियां चुनाव आयोग को हस्तांतरित हुआ करती थीं। इधर कुछ वर्षों में, विशेष रूप से जब से भारतीय जनता पार्टी मौज में आयी है, तब से चुनाव भले ही घाना या नाइजर या टोगो में हों लेकिन सबसे पहले स्थगित होती है केंद्र की सरकार।

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