भारतीय आधुनिकता, स्वधर्म और लोक-संस्कृति के एक राजनीतिक मुहावरे की तलाश

इस कड़वे सच को स्वीकार करना होगा कि पिछले 25-30 साल की हार, खासतौर से राम जन्मभूमि के आंदोलन के बाद की हार, सिर्फ चुनाव की हार नहीं है, सत्ता की हार नहीं है, बल्कि संस्कृति की हार है। हम अपनी सांस्कृतिक राजनीति की कमजोरियों की वजह से हारे हैं।

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सांस्कृतिक विविधता का डर और संघर्ष

सभ्‍यताओं के टकराव या क्लैश ऑफ सिविलाइजेशन को आज के अंधराष्ट्रवाद का सहारा मिल गया है। राष्ट्रवाद के झंडे तले बहुसंख्यकों द्वारा अल्पसंख्यकों के दमन को वैध ठहराया जा रहा है।

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फ़ैसल खान की गिरफ़्तारी साझा संस्कृति के नये नारे की जरूरत को रेखांकित करती है

भारत के अन्दर तेजी से बदलता यह घटनाक्रम दरअसल सदिच्छा रखने वाले तमाम लोगों- जो तहेदिल से सांप्रदायिक सद्भाव कायम करना चाहते हैं, जहां सभी धर्मों के तथा नास्तिकजन भी मेलजोल के भाव से रह सकें- के विश्वदृष्टिकोण की सीमाओं को भी उजागर करता है।

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भारत के मुसलमान शिक्षा मंत्रियों के खिलाफ खुला नया मोर्चा इस्लामोफोबिया की उपज है

भारत पर अपने राज को मजबूती देने के लिए अंग्रेजों ने सांप्रदायिक चश्मे से इतिहास का लेखन करवाया और आगे चलकर इतिहास का यही संस्करण सांप्रदायिक राजनीति की नींव बना और उसने मुसलमानों के बारे में मिथ्या धारणाओं को बल दिया.

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