हिन्दी अखबारों में ब्राह्मण-बनिया गठजोड़ का संविधान-विरोधी और किसान-विरोधी चेहरा


आज (06 दिसंबर 2020) के हिन्दी अखबारों की हेडिंग लगभग पूर्ववत् ही है- समान्यतया किसान विरोधी व किसानों के लिए घृणा के भाव से भरी हुई। दस दिन से जारी किसान आंदोलन के अलावा आज अंबेडकर का परिनिर्वाण दिवस भी है लेकिन ऐसा लगता है कि अखबार में काम करने वालों के दिमाग पर हावी जातिवाद ने इसे जाने अनजाने भुला दिया है।

दैनिक हिन्दुस्तान ने किसान आंदोलन को लेकर थोड़ा संयम बरता है। लीड ख़बर का शीर्षक है- ‘किसान कानून रद्द करने पर अडिग’। अखबार के संपादकीय पेज पर प्रधान संपादक शशि शेखर का एक लेख भी है- ‘किसान आंदोलन और अधूरे ख्वाब’। इस लेख में शशि शेखर कुछ हद तक संतुलित लाइन लेने की कोशिश करते दिखायी देते हैं, हालांकि उनके लिखने का टोन मोटे तौर पर कॉरपोरेट के पक्ष में है। यद्यपि वह ज़रूर कहते हैं कि हर समस्या का समाधान निजीकरण नहीं है और इसके लिए वह चीनी मिल का उदाहरण देते हैं। किसानों से जुड़े दुग्‍ध उत्पाद का वह उदाहरण देते हुए बताते हैं कि सुधा या मदर डेयरी को छोड़कर बाकी पूरा का पूरा डेयरी उद्योग निजी क्षेत्र के हाथ में है जिसमें किसानों के पास एक से लेकर छह गाय तक है। पूरे लेख को पढ़ने के बाद कहा जा सकता है कि शशि शेखर आंख मूंदकर सरकार और कॉरपोरेट का समर्थन नहीं कर रहे हैं और न ही किसानों को विलेन बना रहे हैं।

हिंदुस्तान दैनिक की लीड खबर

आज के दैनिक जागरण अखबार ने नकारात्मकता की परकाष्ठा को छू लिया है। दैनिक जागरण और दैनिक भास्कर, ये दोनों अखबार आपस में लड़ते-उलझते रहते हैं कि दुनिया का सबसे बड़ा अखबार वे ही हैं परन्तु कंटेट के हिसाब से दैनिक जागरण से ज्यादा खराब अखबार मिलना मुश्किल है। दैनिक जागरण दलितों, पिछड़ों, अल्पसंख्यकों, गरीबों और बहुत हद तक महिलाओं के खिलाफ अभियान चलाकर रखता है। ऐसा नहीं है कि यह अखबार कभी बेहतर रहा है, लेकिन बीजेपी के सत्ता में आने के बाद जिस रूप में यह बेहयाई पर उतरा है वह अकल्पनीय है। पहले जब सपा या बसपा उत्तर प्रदेश में सत्ता में होती थी तो स्थानीय संतुलन को बनाये रखने के लिए अपने असली रूप को जागरण छुपाये रखता था। पिछले छह वर्षों में इस अखबार ने हर सीमा को पार कर लिया है।

उदाहरण के लिए आज के संपादकीय, संपादकीय पेज (यह हिन्दी का पहला अखबार है जहां इसके मालिक संजय गुप्ता संपादक की हैसियत से हर रविवार को कॉलम लिखते हैं) और ऑप-एड पेज ‘विमर्श’ पर छपे लेखों को देखें। वहां से जातिवाद की दुर्गंध भभका मारकर बाहर निकल रही है।

मालिक सह संपादक संजय गुप्ता के लिखे लेख का शीर्षक देखिएः कृषि सुधारों पर सस्ती सियासत। इसमें संजय गुप्ता अपनी बात कुछ इन पंक्तियों से शुरू करते हैं, “कृषि और किसानों के कल्याण के लिए लाए गए तीन नए कानूनों के विरोध में पंजाब और हरियाणा के कुछ किसानों का एक तरह से दिल्ली को घेरकर अपंग बना देना राजनीति के साथ कुछ समूहों की मनमानी का प्रत्यक्ष उदाहरण है।” गुप्ता अपनी प्रतिभा का विस्फोट करते हुए सभी सीमाओं को पार कर देते हैं और बताने से नहीं चूकते कि विरोधी दल बीजेपी अथवा प्रधानमंत्री मोदी का राजनीतिक रूप से सामना नहीं कर पा रहे हैं, ऐसे दल अपने अस्तित्व को बचाने के लिए किसी भी हद तक जाने के लिए तैयार नज़र आ रहे हैं।

मालिक सह संपादक गुप्‍ता आगे बताते हैं, “शाहीन बाग में धरने के जरिये राजधानी को जिस तरह महीनों अपंग बना दिया गया था वह सस्ती और स्वार्थी राजनीति का सबसे बड़ा उदाहरण था…। एक खास विचारधारा से प्रेरित लोगों ने मोदी सरकार के पहले कार्यकाल में पुरस्कार वापसी का अभियान छेड़कर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर देश की छवि धूमिल करने का प्रयास किया था।”

संजय गुप्ता इतने पर नहीं रुकते। वह अपनी ज्ञान की गंगा को आगे बहाते हुए और दूर ले जाते हैं और कृषि समस्या को कुछ इस रूप में परिभाषित करते हैं, “भारत में कृषि क्षेत्र में उत्पादकता दुनिया की तमाम बड़ी अर्थव्यवस्थाओं के मुकाबले कहीं पीछे है। अधिकांश किसानों की गरीबी का यह सबसे बड़ा कारण है। यह उत्पादकता तब तक नहीं बढ़ने वाली जबतक कृषि के आधुनिकीकरण के कदम नहीं उठाए जाएंगे। निजी क्षेत्र अगर कृषि में निवेश के लिए आगे आएगा तो इसके लिए कानूनों की आवश्यकता तो होगी ही।”

फिर वह अपनी विद्वता को स्थापित करते हुए बताते हैंः “जो लोग इस मामले में किसानों को बरगलाने का काम कर रहे हैं वे वामपंथी सोच से ग्रस्त हैं। यह वह सोच है जो सब कुछ सरकार से चाहने-मांगने पर भरोसा करती है। सच्चाई यह है कि जो देश विकास की होड़ में आगे हैं उन सभी ने मुक्त बाजार की अवधारणा पर ही आगे बढ़कर कामयाबी हासिल की है।”

दैनिक जागरण का “सही संदेश” देता संपादकीय

संजय गुप्ता के इस दिव्य ज्ञान के बाद दैनिक जागरण ने ‘सही संदेश की जरूरत’ शीर्षक से एक संपादकीय भी लिख मारा है। संपादकीय की पहली पंक्ति कुछ इन शब्दों से शुरू होती है, “नए कृषि कानूनों पर केन्द्र सरकार और किसानों के विभिन्न संगठनों के बीच जारी बातचीत चाहे जिस नतीजे पर पहुंचे, उसके जरिये देश को ऐसा कोई संदेश नहीं जाना चाहिए कि कुछ लोग अपनी बेजा मांगों को मनवाने में समर्थ हैं।”

अखबार के संपादकीय पेज पर दो संपादकीय, एक अग्रलेख, एक हास्य-व्यंग्य कॉलम, एक ‘ऊर्जा’ नामक कॉलम, एक इंफोग्राफिक्स व दो अन्य कॉलम भी हैं। इसमें सबसे बड़ी बेहयाई यह है कि सभी लेखों के लेखक ब्राह्मण हैं! ‘जिद पर अड़ा चिपकू वायरस’ नामक हास्य व्यंग्य के लेखक संतोष त्रिवेदी हैं, ‘ऊर्जा’ कॉलम के लेखक डॉ. प्रशांत अग्निहोत्री हैं, जिन्होंने ‘बीज, खेत और फल’ शीर्षक से लेख लिखा है जबकि ‘कोविड के खिलाफ नए विकल्प’ शीर्षक से लिखे लेख के लेखक मुकुल व्यास हैं। ‘राजरंग’ कॉलम में लेखक का नाम नहीं है इसलिए उसके लेखक पर टिप्पणी करना मुनासिब नहीं होगा।

उसके आगे का पेज का नाम ‘विमर्श’ है जिसमें पहला लेख अनंत विजय का है, जो जाति से भूमिहार हैं। उसके आगे का लेख आइचौक डॉट इन से साभार लिया गया है। रचनाकर्म कॉलम में प्रभात प्रकाशन से छपी डॉक्टर हेमन्तराजे गायकवाड़ की ‘’शिवाजी महाराज द ग्रेटेस्ट’’ का रिव्यू अमित तिवारी ने किया है। उसके बगल में प्रभात प्रकाशन से ही छपी स्वाति काले की किताब ‘’लव जिहाद’’ का रिव्यू कन्हैया झा ने किया है, जबकि हमारे महत्वपूर्ण कवि कुंवर नारायण पर ओम निश्चल द्वारा संपादित पुस्तक ‘’कवि का उत्तर जीवन’’ का रिव्यू यतीन्द्र मिश्र ने किया है, जो अयोध्‍या के राजघराने से ताल्‍लुक रखते हैं।

 

कुल मिलाकर पांच लेखों व समीक्षकों में जातिगत समीकरण को देखें तो एक भूमिहार व तीन ब्राह्मण हैं जबकि आइचौक से साभार लिए गए लेख में लेखक के नाम का जिक्र नहीं है। हमें यह भी याद रखना चाहिए कि भारत में सवर्णों की आबादी 15 फीसदी से कम है और आज के दिन हिन्दी अख़बार पढ़ने वाले ज्‍यादातर दलित, पिछड़े, आदिवासी व अल्पसंख्यक होते हैं न कि सवर्ण, लेकिन 85 फीसदी जनसंख्या को दैनिक जागरण के संपादकीय व विचार पेज पर कोई जगह नहीं मिलती है बल्कि उनके खिलाफ वे सारे सवर्ण मिल-बैठकर अभियान भी चलाते हैं!

इसीलिए यह संयोग नहीं है कि कुल दस लेखों में से सभी के लेखक ब्राह्मण-बनिया हैं। यह भी संयोग नहीं है कि आज अंबेडकर का परिनिर्वाण दिवस होते हुए दो पन्‍नों पर एक भी लेख अंबेडकर पर नहीं है। आम तौर से हिंदी अखबारों में पहले से ही विशेष अवसरों के लिए सामग्री जुटा ली जाती है, लेकिन ऐसा लगता है कि दैनिक जागरण के संपादकीय प्रबंधन का मानस इतना गहरे जातिवादी और संविधान-विरोधी है कि उसे संविधान निर्माता की ही याद नहीं रही।


जितेन्‍द्र कुमार वरिष्‍ठ पत्रकार हैं और जनपथ पर हर मंगलवार ‘राग दरबारी’ नाम से स्‍तम्‍भ लिखते हैं


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