औरंगज़ेब और उसके बहाने मुगलों पर बहस भले इतिहास के बहाने होती हो लेकिन उसका एक विषय के बतौर इतिहास से कोई लेना-देना नहीं होता। इसीलिए अक्सर उन लोगों को औरंगज़ेब पर शोर मचाते देखा जाता है जिनका इतिहास से दूर-दूर तक का कोई वास्ता नहीं होता।। यह पूरी कवायद एक राजनीतिक स्पेस पैदा करती है जिसकी बायनरी पहले से समर्थक और विरोधी में खिंची होती है। या तो आप औरंगज़ेब के विरोधी होते हैं या समर्थक होते हैं, जो इस धारणा का मुखौटा होता है कि आप मुगल विरोधी हैं या समर्थक। और आसान शब्दों में कहें तो, या तो आप मुस्लिम विरोधी होते हैं या समर्थक। इस बायनरी के बीच फंसे औरंगजेब को थोड़ा इतिहास के नज़रिये से समझने के लिए ऑड्रे ट्रश्के की ‘औरंगज़ेब: सच्चाई और गल्प’ एक जरूरी किताब हो जाती है।
मसलन, हाल के वर्षों में औरंगजेब की छवि एक कट्टरपंथी मुस्लिम शासक की बनाई गई है, जिसके लिए उसे शरिया के हिसाब से शासन करने वाला भी बताया जाता है, लेकिन औरंगज़ेब किसी भी अन्य शासक की तरह सिर्फ एक शासक था जिसका मकसद ज़्यादा से ज्यादा भूखंड पर शासन करना था। इसके लिए अन्य शासकों की तरह उसने भी अपने पिता शाहजहां को उसके अंतिम दिनों में क़ैद कर गद्दी हासिल की। विरासत की जंग में अपने भाइयों को मारा, लेकिन इस्लामी धार्मिक जगत ने उसके इस हरकत को धर्म की बुनियाद पर खारिज किया। मक्का के शरीफ़ ने औरंगज़ेब को असल बादशाह मानने से इनकार कर दिया और बाप के साथ ऐसी बदसलूकी करने के एवज़ में सालों तक उसके तोहफ़े ठुकराता रहा। सफ़वी बादशाह शाह सुलेमान ने उसे एक करारा खत लिखा कि उसने अपना उपनाम गलती से ‘आलमगीर’ रख लिया। वह दुनिया को क़ाबू करने वाली ‘आलमगीरी’ नहीं सिर्फ़ बाप को क़ाबू करने वाली ‘पीदारगीरी’ जानता है (पेज 54)। यानी उसके इस कृत्य को खुद इस्लामिक निज़ाम ने खारिज़ किया। वहीं अपने भाई दारा शिकोह की हत्या को भी सांप्रदायिक नज़रिये से प्रचारित करने वालों को यह समझना चाहिए कि यह प्रचलन तब आम था। अगर औरंगज़ेब दारा को नहीं मारता तो दारा उसे मार देता। दारा का सर क़लम किए जाने वाले दिन औरंगज़ेब ने उससे पूछा था कि अगर मेरी जगह तुम होते और तुम्हारी जगह मैं तो तुम क्या करते? दारा का जवाब था मैं तुम्हारे चार टुकड़े करके दिल्ली के चारों दरवाजों पर लटकवा देता। बड़े भाई की इस गहरी नफ़रत के मुकाबले औरंगज़ेब ने जो किया वह संजीदा रहते किया। उसके हुक्म के मुताबिक उसे हुमायूँ के मकबरे में दफना दिया गया।
दरअसल, इतिहास को आधुनिक मानकों से देखना ही एक अनैऐतिहासिक नजरिया है। तब विरोधियों के मान सम्मान को ध्वस्त करना एक आम राजनीतिक व्यवहार था। इसका धर्म से कोई लेना-देना नहीं था। मसलन, औरंगज़ेब द्वारा लाहौर में बनवायी गई बादशाही मस्जिद उस दौर की दुनिया की सबसे बड़ी मस्जिद थी जिसमें एक साथ 60 हज़ार लोग नमाज़ पढ़ सकते थे। बाद में सिख साम्राज्य के संस्थापक रणजीत सिंह ने इसे हथियारों के गोदाम की तरह इस्तेमाल किया। (पेज 66)
इसी तरह औरंगज़ेब के चौथे बेटे शहज़ादा अकबर ने बगावत करके खुद को 1681 में बादशाह घोषित कर दिया। जब औरंगज़ेब ने उसकी बगावत को कुचलने के लिए सेना भेजी तो वो अपने बाप के कट्टर दुश्मन शिवाजी के बेटे संभाजी के दरबार में भाग गया। बाद में वो फ़ारस भाग गया जहां 1704 में उसकी मृत्यु हो गई। (पेज 71)
सिखों के नौवें गुरु तेगबहादुर की हत्या का उदाहरण देखा जाना ज़रूरी होगा जिसे मुग़ल हुकूमत ने पंजाब में उथल-पुथल मचाने के एवज में मरवा दिया। वह उस समय के लिए एक आम घटना थी और इसका ज़िक्र औरंगज़ेब के वक़्त के किसी भी फ़ारसी ग्रन्थ में नहीं है। यह बहुत बाद की निर्मिति है कि तेगबहादुर कश्मीरी पंडितों के धर्मांतरण का विरोध कर रहे थे और इस वजह से उनकी हत्या हुई। दस्तावेज़ी तथ्य इसे प्रमाणित नहीं करते। (पेज 74)
दरअसल औरंगज़ेब को हिंदुत्ववादी नज़रिये से प्रचारित करने के कारण उसे मुसलमानों के एक हिस्से में भी अनैऐतिहासिक नज़रिये से देखने का प्रचलन बढ़ा और उसके इर्द-गिर्द कई बेबुनियाद धारणाएं विकसित होती गईं, जिसमें एक यह भी है कि औरंगज़ेब संगीत विरोधी था। जबकि तथ्य यह है कि उसके दौर में इतने संगीत विषयक ग्रंथ लिखे गए जितने उससे पहले के पांच सौ साल में भी नहीं लिखे गए थे। चित्रकारी के साथ भी ऐसा ही था। संस्कृत और फ़ारसी शायरी भी ऊंचाइयों पर थी। औरंगज़ेब की बेटी ज़ेबुन्निसा फ़ारसी में शायरी करती थी तो उसका मामा शाइस्ता खां खुद संस्कृत में कविताएं लिखता था। उसकी रचनाएं ‘रसकल्पद्रुम’ (रसों का कल्पवृक्ष) में सहेजी हुई हैं।
1690 के शुरुआती दिनों में चंद्रमन नाम के एक शायर ने नरगिस्तान नाम से रामायण का फ़ारसी संस्करण लिखा और औरंगज़ेब को समर्पित किया। इसी तरह 1705 में अमर सिंह ने रामायण का फ़ारसी में गद्य संस्करण जिसका नाम ‘अमरप्रकाश’ था, औरंगज़ेब को समर्पित किया। अपने पुरखों और हिंदू पुराकथा के नायक राम के बीच के रिश्ते को उसने नहीं तोड़ा। (पेज 67) गौरतलब है कि अकबर महान ने अपने शासन के 50 साल पूरे होने पर राम और सीता की तस्वीर वाला सिक्का 1604-05 में जारी किया था।
हिंदू राजाओं से संबंध
जब औरंगज़ेब और दारा शिकोह के बीच शाहजहां की विरासत पर दावेदारी की जंग शुरू हुई तो ज्यादातर राजपूतों ने दारा का साथ दिया। वहीं ज़्यादातर मराठों ने औरंगज़ेब का साथ दिया। औरंगज़ेब के शासन में हिंदू अमीरों की संख्या किसी भी पूर्ववर्ती मुग़ल बादशाह से बढ़कर 31।6 प्रतिशत हो गई। (पेज 75)। वहीं हिंदू अफसरों की तादाद 50 फीसदी तक हो गई थी।
धर्म और राजनीति के घालमेल पर औरंगज़ेब का नजरिया आप इस उदाहरण से समझ सकते हैं। एक बार बुखारा के एक अफसर ने उससे दरख्वास्त की कि वो फ़ारसी लोगों को शाही ओहदों पर तरक़्क़ी न दे क्योंकि वो सुन्नी नहीं शिया हैं। औरंगज़ेब का जवाब था, ‘ भला इन दुनियावी मसलों के बीच मज़हब कहां से चला आया और हुकूमत की मुलाजिमत करने वालों को मज़हबी कट्टरता में दखलंदाजी करने का हक़ कहां से मिल गया? (पेज 78)
शिवाजी और औरंगज़ेब की सिर्फ़ एक बार मुलाक़ात हुई थी। 1666 में शिवाजी मुग़ल दरबार पहुंचे और जैसा कि हालिया दुश्मन को दरबार में अमीर बनने पर करना चाहिए उन्होंने भी बादशाह को तोहफ़े दिए। लेकिन शिवाजी को दरबार में बेइज्जती महसूस हुई क्योंकि उन्हें निचले दर्जे के अमीरों की लाइन में खड़ा होने को बोल दिया गया था। इस पर इतिहासकार भीमसेन सक्सेना ने बताया है कि उसने बेसिर-पैर की बातें करनी शुरू कर दीं और यूं बैठ गया मानो उसपर पागलपन सवार हो गया हो। औरंगज़ेब को दरबार के कायदों का ऐसा बिगाड़ बर्दाश्त नहीं हुआ और उसने उसको क़ैद करवाकर नज़रबन्द करा दिया।
दरअसल, राजपूतों के उलट शिवाजी दरबारी रस्म और क़ायदों से अंजान था। उस दौर के बहुत से राजपूतों की नजर में वो गंवार और नया नया नवाब था, जिसके पिता बीजापुर की आदिलशाही सल्तनत में अमीर थे लेकिन उसकी परवरिश दरबारी छाप से दूर उसकी मां जीजा बाई ने किया था। शायद इस पृष्ठभूमि के कारण वो राजपूतों की तरह अमीर के तौर पर खुद को सहज महसूस नहीं पाया और बगावत की राह चुनी। (पेज 80)
औरंगज़ेब सत्ता पर पकड़ के मामले में कोई समझौता नहीं करता था। चाहे इसके लिए उलेमाओं से ही टकराव क्यों न मोल लेना पड़े। उसने बीजापुर और गोलकुंडा जैसी इस्लामी सल्तनतों पर हमला कर तख्ता पलट देने और बहुत से मुसलमानों की हत्या करने के मुग़ल दावपेच को मंजूरी देने से इनकार करने पर अपने क़ाज़ी को निकाल दिया। (पेज 86)
सैकड़ों हिंदू मन्दिरों को तोड़ने के दावों के बरअक्स यह तथ्य है कि बमुश्किल आधा दर्जन मन्दिर इस फेहरिस्त में आते हैं और इससे कई गुना ज़्यादा मन्दिरों को संरक्षण देने के प्रमाण हैं। जो तोड़े वो शुद्ध राजनीतिक कारण से तोड़े। 1666 में शिवाजी को आगरा से भागने में मथुरा के ब्राह्मणों ने मदद पहुंचाने के शक में मथुरा के कटरा केशव देव मन्दिर को मिटा देने का फरमान जारी किया था। इससे भी बड़ा तथ्य यह है कि इस मन्दिर को उसके भाई दारा शिकोह का संरक्षण प्राप्त था।
सबसे अहम कि उसने जिन मन्दिरों को निशाना बनाया वो सभी उत्तर भारत में थे जबकि अपने अंतिम 30 साल उसने दक्षिण भारत में गुज़ारे जहां ज़्यादा और अहम हिंदू मन्दिर थे, मगर उसकी फौजी दृष्टि सिर्फ किलों और सरहदों पर केंद्रित रही। (पेज 96 से107)
दरअसल, औरंगज़ेब को लेकर सबसे ज़्यादा गलत धारणाएं हिंदुत्ववादी रुझान वाले इतिहासकार जदुनाथ सरकार ने बनाई हैं जिन्होंने फ़ारसी स्रोतों के गलत अनुवाद परोसे जिसे इस किताब के लेखक ने दुरुस्त करने की कोशिश की है।
संवाद प्रकाशन से आई 200 रुपये की यह किताब इस समय की साम्प्रदायिक राजनीति को समझने और 300 साल पहले मर चुके अपने दौर की दुनिया के सबसे ताक़तवर बादशाह के साथ न्याय करने के लिए एक जरूरी जरिया है।