जीवन में संविधान: रोजमर्रा की कहानियों में संवैधानिक मूल्यों को आत्मसात करने की कोशिश


किसी भी देश का संविधान उस देश की आत्मा होती है। इसी के अनुरूप देश की शासन व्यवस्था संचालित होती है। जिस तरह ध्रुव तारे को देख कर यात्री अपना मार्ग तय करते हैं उसी तरह संविधान भी हमेशा देश के संचालन में मार्गदर्शन करता है। यह विधायि‍का, न्यायपालिका, कार्यपालिका के गठन, कार्य, शक्ति, जवाबदेही, जिम्मेदारि‍यों को निर्धारित करता है। साथ ही नागरिकों के अधिकारों और कर्तव्यों को सुनिश्चित करता है।

15 अगस्त 1947 को जब देश आजाद हुआ था तब देश के नेतृत्व के सामने सबसे बड़ा प्रश्न खड़ा था कि यह देश कैसे चलेगा, किस दिशा में आगे बढ़ेगा, कौन से नियम-कायदे होंगे, क्या अधिकार-जिम्मेदारियां होंगी, देश को आगे बढ़ाने के लिए धनराशि की व्यवस्था, पड़ोसी मुल्कों के साथ सम्बन्ध-व्यवहार किस तरह किया जाएगा, समाज और नागरिक किन मापदंडों पर चलेंगे। इन सवालों के जवाब के लिए भारतीय संविधान सभा का गठन किया गया और संविधान निर्माण की जिम्मेदारी सौंपी गयी। सभा की प्रारूप समिति (अध्यक्ष डॉ. भीमराव आंबेडकर) द्वारा भारत के संविधान का मसौदा तैयार किया गया जिस पर विस्तृत चर्चा, बहस, विचार-विमर्श करते हुए संविधान को देश में 26 जनवरी 1950 से लागू किया गया।

हमारे संविधान का सार उसकी उद्देशिका में है, जिसमें भारत को सम्पूर्ण प्रभुत्व-संपन्न, समाजवादी, पंथ-निरपेक्ष, लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने का सपना है। वही देश के सभी नागरिकों के लिए सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक न्याय, समानता, गरिमा-सम्मान, एकता-अखण्डता, समरसता, बंधुत्व, कर्तव्य की बात करता है। साथ ही हर नागरिक को विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता भी प्रदान करता है। संविधान ही यह बतलाता है कि समाज कैसे व्यवहार करेगा, प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य होगा कि वह देश के सभी व्यक्तियों के मान-सम्मान या भावना का ख्याल रखे। अपने व्यवहार द्वारा किसी के अधिकारों का हनन या तकलीफ न हो। डॉ. भीमराव आंबेडकर ने कहा भी था, “संविधान केवल वकीलों का दस्तावेज नहीं है, बल्कि जीवन जीने का एक माध्यम है।”

लेखक सचिन कुमार जैन की किताब जीवन में संविधान में यही बताया गया है कि संविधान में इंगित ये सभी केवल शब्द नहीं हैं बल्कि हमारे जीवन के हर पहलू में शामिल हैं। उन्होंने इस किताब के माध्यम से यह बताने का प्रयास किया है कि संविधान में वर्णित हर शब्द जीवन के कितने अन्दर तक समाहित है। इस किताब में 76 लघु कहानियां हैं। ये महज कहानियां नहीं हैं बल्कि किसी न किसी के साथ हुई सच्ची घटनाएं हैं जिन्‍हें कहानी के माध्यम से किताब में बयां किया गया है। लेखक ने इन सभी घटनाओं को बहुत ही सरल भाषा में कहानी में ढाला है। इन कहानियों के जीवंत पात्र बच्चे हैं, महिलाएं हैं, किशोर/किशोरियां हैं, युवा हैं, बुजुर्ग हैं, दलित हैं, आदिवासी है, गरीब हैं, वंचित तबकों से हैं।

जब आप इन कहानियों को पढ़ते हैं तो पाते हैं कि हर कहानी में कहीं न कहीं संविधान में प्रदत्‍त किसी न किसी मूल्य का उल्लंघन हुआ है। कई कहानियों में सरकार द्वारा बनाये गए कानूनों का स्पष्ट उल्लेख किया गया है और उनकी अवमानना पर बात की गयी है। जब आप किसी कहानी को पढ़ते हैं और जैसे-जैसे कहानी में आगे बढ़ते जाते हैं वैसे-वैसे वो आपको झंझोड़ती है, अपने अन्दर झाँकने को प्रेरित करती है।  

प्रत्येक कहानी का अंत लेखक द्वारा सवालों के साथ किया गया है। इन सवालों का जवाब हम सभी भारत के नागरिकों को ही देना होगा। किताब में गरिमापूर्ण जीवन, स्वतंत्रता, भाईचारे, हिंसा, छुआछूत, धर्म, असमानता, बंधुत्व, स्त्री स्वतंत्रता, राइट टु चॉयस, आर्थिक विषमता, जेंडर आदि विषयों से घटित सच्ची घटनाओं को उठाया गया है।

आजादी के इतने साल बाद भी संविधान के मूल्यों को समाज के द्वारा आत्मसात नहीं किया गया है। अब भी हमारे देश में जाति, लिंग, धर्म और आर्थिक आधार पर भेदभाव है, जो जीवन के रोजमर्रा के मामलों में परिलक्षित होता है। जैसे, एक कहानी में दलित व्यक्ति बर्तन में रखे पीने के पानी को स्वयं से निकालने की हिम्मत नहीं कर पाता है, या एक अन्य कहानी में जब दलित व्यक्ति कमरे से गुजरता है तो चप्पल पहन कर नहीं अपने हाथ में लेकर कमरा पार करता है। इस तरह की घटनाएं आये दिन हमारे सामने घटती हैं।

एक और कहानी है जिसमें धर्म के आधार पर भेदभाव को रेखांकित किया गया है। इसमें मुस्लिम डिलिवरी बॉय के साथ इस तरह का वाकया हुआ था। हम देख रहे हैं कि पिछले कुछ साल से धार्मिक भेदभाव और नफरत ख़त्म होने के बदले बढ़ी है। आज अंतरधार्मिक विवाह को लव जिहाद के रूप में परिभाषित किया जा रहा है। किताब की एक कहानी इसे उजागर करती है। इसी तरह महिलाओं की स्वतंत्रता, रुढ़िवादी परम्पराओं जैसे बाल विवाह, झगड़ा तोड़ो प्रथा आदि को लेकर भी आये दिन होने वाली घटनाओं का जिक्र है।

यह बड़ी विडंबना है कि आजादी के इतने साल गुजर जाने के बाद भी वंचित तबकों की मूलभूत आवश्कताओं, जैसे शिक्षा, स्वास्थ्य तक पहुँच नहीं हो पा रही है। एक कहानी मध्यप्रदेश के सतना जिले के गांव की एक गर्भवती महिला की स्वास्थ्य सेवाओं की सुविधा न मिलने के कारण सड़क पर ही प्रसव हो जाने की है। बच्चे शिक्षा के बदले बाल मजदूरी की तरफ धकेल दिये जा रहे हैं। एक कहानी में हिंसा के बढ़ते मामले और असुरक्षित माहौल के चलते लड़कियों की पढाई अधूरी रह जाने को इंगित किया गया है। जहां एक ओर ये सभी व्याकुल करने वाली कहानियां हैं तो वही लोगों के संघर्ष की भी दास्तानें हैं, हार न मानने वाले लोगों की कहानियां हैं, बेहतर समाज और स्थितियों के सपने देखने और प्रयास करने वाले लोगों की भी कथाएं शामिल हैं।

‘जीवन में संविधान’ किताब के लेखक सचिन कुमार जैन पिछले 25 साल से समाज के मूलभूत विषयों पर सामाजिक संस्थाओं के साथ मिलकर शिक्षण-प्रशिक्षण, शोध, लेखन और मैदानी काम करते आ रहे हैं। वर्तमान में वे सामाजिक नागरिक संस्था ‘विकास संवाद’ के संस्थापक सचिव के रूप में कार्यरत हैं। उनकी अभी तक 67 पुस्तक-पुस्तिकाएं, मार्गदर्शिकाएं प्रकाशित हो चुकी हैं। विगत कई वर्षों से वे संविधान के मूल्यों के प्रचार-प्रसार के लिए लगातार प्रयत्न कर रहे हैं और इसके विभिन्न पहलुओं पर लिखते आ रहे हैं। संविधान पर उनकी पूर्व में दो किताबें ‘भारतीय संविधान की विकास गाथा’ और ‘संविधान और हम’ प्रकाशित हो चुकी है। इस किताब को अवश्य पढ़ा जाना चाहिए क्योंकि यह असंवेदनशील होते समाज/लोगों में संवेदनशीलता जगाती है और अपने आप को उन लोगों की जगह पर रखकर सोचने को मजबूर करती है जिनके अधिकारों का लगातार हनन होता आ रहा है। इस किताब को अंतिका प्रकाशन, गाजियाबाद द्वारा प्रकाशित किया गया है। इसका मूल्य 250 रुपये है।



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