पोन्नीलन के उपन्यास ‘करिसल’ के अंग्रेजी अनुवाद का लोकार्पण उर्फ साहित्य का ‘भारत जोड़ो’ समारोह

उपन्यास में आंदोलन का वर्णन ऐसे है जैसे जमीन से अनाज पैदा होता है, वैसे ही शोषण से जनआंदोलन पैदा हो रहा है, आंदोलन के नेता पैदा हो रहे हैं, लेखक पैदा हो रहा। उपन्यासकार मामूली इंसानी जिंदगियों को, उनके अभावग्रस्त जीवन को, इस जीवन के खिलाफ संघर्ष को करुणा के माध्यम से उसके उदात्त स्वरूप तक ले जाता है।

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अन्नदाता, जागो और देखो, हल की जगह चलाये जा रहे हैं बुल्डोजर!

प्रेम ही आदमी को कवि बनाता है। कवि की ज़रूरत इसलिए होती है कि जब हवाओं में घृणा भरी हो, वह प्रेम का संगीत बाँटता है। वह सुंदरता से प्रेम करना सिखाता है और बताता है, क्या सुंदर है, क्या नहीं।

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औरंगज़ेब: अच्छे और बुरे के बीच फंसा एक बादशाह

संवाद प्रकाशन से आई 200 रुपये की यह किताब इस समय की साम्‍प्रदायिक राजनीति को समझने और 300 साल पहले मर चुके अपने दौर की दुनिया के सबसे ताक़तवर बादशाह के साथ न्याय करने के लिए एक जरूरी जरिया है

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हिन्दू पुनर्जागरण से अधूरे नवजागरण तक भारतीय चित्रकला के राजनीतिक सफर की कहानी

भारतीय चित्रकला का सच’ एक ऐसी पुस्तक है जो समाजशास्त्रीय नजरिये से लिखी गयी है और जिसमें एकेडमिक्स के लटकों झटकों से दूर एक ऐसे कलाकार की दृष्टि का परिचय मिलता है जो भारत जैसे वर्ग विभाजित समाज में उत्पीड़ित बहुमत के साथ खड़ा है।

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‘सीने में फांस की तरह’ फंसी कविताएं

कवि के सीने की फाँस है सेलेब्रिटी बनाम सामान्य मनुष्य। वह कहते हैं- सराहना में/खो जाते सामान्यजन स्वतः/अपने आप। लगभग सभी कविताओं में कवि ऐसे ही विचलित होता है और मानवता के पक्ष में अपनी आवाज उठाता है। ‘आदिवासी’ कविता में निमाड़, मालवा के आदिवासियों का संघर्ष, उनकी बेबसी, उनके दुख, गरीबी और पीड़ा की अभिव्यक्ति हुई है। ‘मिथ’ बड़े पृष्ठभूमि की कविता है जिसमें कवि ने अन्तर्विरोधों को रेखांकित किया है।

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पुस्तक समीक्षा: भारत का संविधान – महत्वपूर्ण तथ्य और तर्क

यह किताब संविधान की पृष्ठभूमि और इसके निर्माण की प्रक्रिया को समझने के लिए हिंदी में एक जरूरी दस्तावेज की तरह हैं जो महत्वपूर्ण तथ्यों के साथ-साथ संविधान के वजूद में आने के तर्कों को बहुत ही सटीकता के साथ प्रस्तुत करती है।

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धर्मनिरपेक्षता के संघर्ष में सरदार पटेल को सही नजरिये से समझने की कोशिश

, जब हम सेकुलरिज्म को पश्चिमी अवधारणा से देखते हैं जिसमें धर्म और राजनीति एक दूसरे से पर्याप्त दूरी बरतते हैं, तभी हमें सरदार हिंदुत्ववादी रुझान वाले दिखते हैं। किताब के परिचय में नानी पालखीवाला ने इस धारणा के लिए स्पष्ट तौर पर समाजवादियों जैसे जेपी, वामपंथियों के साथ ही आज़ाद को भी को ज़िम्मेदार ठहराया है।

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नागरिकता पर सवाल उठाता IPTA का नाटक “धीरेंद्र मजूमदार की मां”

देश में औपनिवेशिक आजादी के लिए चले जन संग्राम का परिणाम सांप्रदायिक आधार पर देश विभाजन के रूप में सामने आया। देश के बंटवारे का दंश अनेक स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों को भी भुगतना पड़ा था जो विभाजन नहीं चाहते थे। ऐसे ही लोगों में धीरेंद्र मजूमदार की मां शांति मजूमदार भी थी। वह मां जिसकी चार संतानों ने अंग्रेजों से हुई लड़ाई में शहादत दी और बाकी चार ने बांग्लादेश के लिए चले मुक्ति संघर्ष में अपनी जान गंवाई।

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‘पठान’ को मिल रहा समर्थन उसे मिले विरोध का विरोध है?

शाहरुख और दीपिका उस पुराने भारत का प्रतिनिधित्व करते हैं जहां कलाकारों को उनके हुनर से पहचाने जाने की रवायत रही है न कि उनकी जाति, धर्म या विचारधारा से। ऐसे में महज कुछ सेकेंड की एक क्लिप से बिना पूरी फ़िल्म देखे जिस कदर व्यापक विरोध हुआ और ऐसे असंवैधानिक विरोध होने दिये गए उससे यह स्पष्ट होता है कि इस आलोकतांत्रिक विरोध के पीछे केवल कुछ संगठन ही नहीं थे बल्कि नए भारत की परियोजना में शामिल पूरा तंत्र शामिल था।

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जीवन में संविधान: रोजमर्रा की कहानियों में संवैधानिक मूल्यों को आत्मसात करने की कोशिश

इस किताब में 76 लघु कहानियां हैं। ये महज कहानियां नहीं हैं बल्कि किसी न किसी के साथ हुई सच्ची घटनाएं हैं जिन्‍हें कहानी के माध्यम से किताब में बयां किया गया है। लेखक ने इन सभी घटनाओं को बहुत ही सरल भाषा में कहानी में ढाला है। इन कहानियों के जीवंत पात्र बच्चे हैं, महिलाएं हैं, किशोर/किशोरियां हैं, युवा हैं, बुजुर्ग हैं, दलित हैं, आदिवासी है, गरीब हैं, वंचित तबकों से हैं।

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