सीएसडीएस द्वारा उपलब्ध कराये गए आंकड़ों के मुताबिक उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव-2022 में ज्यादातर (लगभग 90%) ब्राह्मण वोटर ने भाजपा को वोट किया है। हालांकि, समाजवादी पार्टी भी हिंदुत्व की सियासी लाइन पर चल रही थी लेकिन इसके बाद भी यह ब्राह्मण समुदाय का वोट नहीं पा सकी। सवाल यह है कि आखिर क्यों? मेरी समझ में इसके कुछ गंभीर कारण हैं।
मेरी समझ में ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि समाजवादी पार्टी ने हिंदुत्व की जो दुकान सजायी थी वह भाजपा की हिंदुत्व की दुकान के मुकाबले बहुत छोटी थी। जिसे हिंदुत्व प्रोडक्ट ही खरीदना है वह बड़े मॉल से बीजेपी के हिंदुत्व को खरीदेगा, सपा की गुमटी से नहीं। अखिलेश यादव का पहला फेल्योर यहीं हो गया।
दूसरी बात यह कि ब्राह्मण समुदाय एक जाति के बतौर उत्तर प्रदेश के यादव समुदाय की अराजकता से बहुत चिढ़ता है। वह समाजवादी पार्टी के पुराने दौर की जातिगत दादागिरी की किसी संभावित वापसी से ही डरा हुआ था। ब्राह्मण समुदाय को डर था कि कहीं सपा की वापसी से उस पुराने दौर की वापसी ना हो जाए। अखिलेश यादव इस समुदाय को पुराने दौर की वापसी की आशंका से आश्वस्त नहीं कर पाए।
तीसरी बात कि परशुराम को देवता बनाने, उनका राम के समानांतर सियासी उपयोग का प्रयास और ब्राह्मण अस्मिता से जोड़ने की सपा की कोशिश को ब्राह्मणों ने नकार दिया। जिनके आराध्य राम हों वह उनसे कम ताकत (अंश) वाले देवता परशुराम की शरण में क्यों जाएंगे? यह बात साबित करती है कि हिंदू धर्म के प्रतीकों के बारे में अखिलेश का अध्ययन बहुत कच्चा है। ब्राह्मणों के बीच में परशुराम का चरित्र लोकप्रिय नहीं है। उन्हें बहुत गुस्सैल और प्रतिशोधी माना जाता है जिसे ब्राह्मण पसंद नहीं करते।
चौथी बात यह कि सपा सुप्रीमो अखिलेश यादव द्वारा मुसलमानों से दूरी बनाने के बाद भी सपा को ब्राह्मणों ने वोट नहीं दिया। मतलब यह है कि ब्राह्मणों को मुसलमानों से कोई समस्या नहीं है। फिर असल समस्या ब्राह्मणों को क्या थी- इसे अखिलेश यादव भी नहीं भांप पाए। अगर ब्राह्मणों को मुसलमानों से कोई समस्या होती तब मुसलमानों से दूरी बनाने के बाद अखिलेश यादव को ब्राह्मणों ने वोट दिया होता जबकि ऐसा कुछ नहीं हुआ। जाहिर सी बात है अखिलेश यादव ब्राह्मणों का मूड समझने में चूक गए। ब्राह्मण समुदाय को मुसलमान विरोधी साबित करने की एक असफल कोशिश अखिलेश यादव ने की है।
पांचवीं और अंतिम बात यह है कि उत्तर प्रदेश का ब्राह्मण समुदाय भारत के हिंदुत्वपंथी बनने की प्रक्रिया को अभी डिरेल करने की स्थिति में नहीं है। अखिलेश यादव भ्रम के शिकार थे। वह न हिंदू बनने की राजनीति कर पा रहे थे ना अ-हिंदू बनने की राजनीति कर पा रहे थे। उन्हें लगता था कि हम केवल जातियों को जोड़कर उनके नेताओं को अपने पाले में करके सत्ता पा जाएंगे। ऐसा नहीं हो पाया। वह यह भूल चुके थे कि 2014 के बाद ब्राह्मण समुदाय ही सत्ता का केंद्र बन चुका है और जब तक ब्राह्मण आपके साथ नहीं जाएगा आप सत्ता का हिस्सा नहीं बन सकते। दरअसल, मंडल की पूरी राजनीति का यही सिद्धांत है कि ब्राह्मण और ब्राह्मणवाद में पिछड़ों को जगह मिले, जिसे अखिलेश यादव भी समझ नहीं पाए।
कुल मिलाकर, समाजवादी पार्टी द्वारा ब्राह्मणों का वोट नहीं पाने की मुख्य बात के पीछे वर्ण व्यवस्था से प्रभावित ब्राह्मणों का अलोकतांत्रिक माइंडसेट है। इस माइंडसेट को बीजेपी न केवल संतुष्ट कर रही है बल्कि उसे मजबूत करके आगे भी बढ़ा रही है। अखिलेश यादव जिस नरम माइंड सेट हिंदुत्व के झुकाव वाली बातें कर रहे थे उस पर ब्राह्मणों ने कोई ध्यान नहीं दिया। इस तरह नर्म हिंदुत्व ने भी सपा का नुकसान कर दिया।
ब्राह्मणों ने अखिलेश यादव को इसलिए भी वोट नहीं दिया क्योंकि उन्हें उनके जातिगत आधार के सामाजिक और राजनीतिक विकास की विस्तारवादी चाल से दिक्कत है। वर्ण व्यवस्था को ईश्वरीय व्यवस्था मानने वाला माइंडसेट यह कैसे स्वीकार कर सकता है कि उसका नेता कोई यादव हो? भाजपा ने वर्ण व्यवस्था को स्वीकार करने वाले इसी माइंडसेट को मजबूत किया है और लोकतंत्र के भीतर वैधता दी है। अब इस माइंडसेट में किसी अखिलेश या मायावती के लिए कोई जगह नहीं है।
मेरे कहने का कुल मतलब यह है कि अब अखिलेश यादव, मायावती या फिर पिछड़ों के सामाजिक न्याय, दलित भागीदारी की राजनीति करने वाले लोगों को ब्राह्मण समुदाय से वोट की आकांक्षा को त्याग देना चाहिए। अगले दस साल ऐसा कुछ होने नहीं जा रहा है जो सपा-बसपा टाइप की राजनीति करने वालों को ब्राह्मणों का वोट दिलवा सके। और ऐसा करने की कोशिश सियासी तौर पर दलित और पिछड़ी अस्मिता की राजनीति करने वालों को खत्म कर देगी।
लेकिन, क्या सामाजिक न्याय की राजनीति करने वाले लोग, दलित भागीदारी की बात करने वाले लोग, ब्राह्मणों का वोट पाने की लालसा का त्याग करने की हिम्मत करेंगे?
हरे राम मिश्र उत्तर प्रदेश कांग्रेस कमेटी में RTI विभाग के प्रदेश संयोजक हैं