हाल ही में हमें पता चला कि बाबरी मस्जिद को किसी ने नहीं गिराया था, वह खुद ही गिर गयी थी। इसलिए सभी आरोपी बरी हो गए।
दो दिन पहले सुप्रीम कोर्ट ने नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ दिल्ली के शाहीन बाग में हुए विरोध-प्रदर्शन को लेकर स्पष्ट शब्दों में कहा कि विरोध-प्रदर्शनों के लिए शाहीन बाग जैसे सार्वजनिक स्थलों पर कब्जा करना स्वीकार्य नहीं है।
सर्वोच्च अदालत ने अपने फ़ैसले में कहा कि कोई भी व्यक्ति विरोध प्रदर्शन के मक़सद से किसी सार्वजनिक स्थान या रास्ते को नहीं रोक सकता। अदालत ने यह भी स्पष्ट किया कि सार्वजनिक स्थानों पर अनिश्तिचकालीन धरना या प्रदर्शन स्वीकार्य नहीं है और ऐसे मामलों में सम्बन्धित अधिकारियों को इससे निबटना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट ने कहा, “शाहीन बाग़ को खाली कराना दिल्ली पुलिस की ज़िम्मेदारी थी।‘’
किसी भी लोकतंत्र में अदालतें शोषित और पीड़ितों के लिए न्याय की अंतिम उम्मीद होती हैं। जब वही अदालतें दमनकारी सत्ता की भाषा में जनविरोधी फैसलें सुनाने लगें या किसी पीड़ित की अपील को सुनने से मना कर दें और जज किसी मामले की सुनवाई से खुद को अलग कर लें, तो उस लोकतंत्र में लोकतंत्र कितना बचा रहता है?
यह सवाल उतना ही महत्वपूर्ण है जितना कि अच्छी फसल के लिए मानसून। जिस तरह भारतीय किसान की उम्मीद मानसून पर होती है हर साल, ठीक उसी तरह एक आम नागरिक की उम्मीद अदालत और देश की न्याय व्यवस्था से होती है। मानसून पर इन्सान का वश नहीं है, किन्तु अदालतें इन्सान यानी न्यायाधीशों के सहारे चलती हैं।
भारतीय संविधान में किसी जातिगत, धार्मिक, लैंगिक और समुदाय के आधार पर भेद किये बिना सबके लिए उचित न्याय की बात कही गयी है। अदालत स्वतंत्र संवैधानिक संस्था है। उसके पास पर्याप्त शक्तियां भी हैं, किंतु क्या सबको यहां न्याय मिलता है?
जनवरी 2018 को इतिहास में पहली बार सुप्रीम कोर्ट के चार वरिष्ठतम न्यायाधीशों ने शीर्ष अदालत की समस्याओं को सूचीबद्ध करते हुए तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश के ख़िलाफ़ बग़ावत जैसा क़दम उठाकर सभी को चौंका दिया था। उन्होंने ‘चयनात्मक तरीके से’ मामलों के आवंटन और कुछ न्यायिक आदेशों पर सवाल उठाए थे।
सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश जस्टिस जे. चेलमेश्वर के साथ दूसरे वरिष्ठ न्यायाधीशों ने नयी दिल्ली में प्रेस कॉन्फ्रेंस करके भारत के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस दीपक मिश्रा की कार्यप्रणाली पर गंभीर सवाल उठाए थे। क्यों?
अदालत सर्वोच्च है और अदालतों के फैसलों पर टिप्पणी करना अदालत की अवमानना है। सवाल है कि यदि कोई ऐसा फैसला आता है जहां यह महसूस होने लगे कि शायद न्याय नहीं हुआ है, उस अवस्था में क्या किया जाए?
हाशिमपुरा नरसंहार पर अदालत का जो फैसला आया था, याद होगा आपको। छोड़िए, पहलू खान की हत्या पर अदालत का फैसला याद कीजिए। क्या लगता है? ऐसे कई मामले हैं जहां अदालतों के फैसलों पर हैरानी होती है। हैरानी के सिवा कोई चारा भी नहीं है।
आखिर क्या कारण होते हैं जब कोई न्यायाधीश किसी याचिकाकर्ता की याचिका पर सुनवाई करने से खुद को अलग कर लेते हैं?
हाल ही हमने सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता प्रशांत भूषण पर अवमानना का केस देखा। क्या इस मामले से हमारी न्यायप्रणाली की छवि को कोई नुकसान हुआ है? यदि हां, तो क्यों और दोषी कौन?
एक पूर्व केन्द्रीय मंत्री जिस पर गंभीर आरोप हैं, उनको स्वास्थ्य के आधार पर जमानत मिल जाती है, किन्तु एक महिला सामाजिक कार्यकर्ता की जमानत याचिका ख़ारिज हो जाती है अदालत में! क्यों?
दर्जनों मजदूर सरकार के गलत फैसले के कारण सड़कों पर पैदल चलते हुए मारे जाते हैं। अदालतों में ख़ामोशी छायी रहती है।
पिछले दिनों देश के सर्वोच्च न्यायालय के कुछ फैसले बहुत चौंकाने वाले रहे हैं। दिल्ली के रेल पटरियों के आसपास बसी करीब 48 हजार झुग्गियों को उजाड़ने का आदेश उनमें से एक है। क्या इस फैसले से इन झुग्गीवासियों के नागरिक और संवैधानिक अधिकार पर चोट लगी है? यदि लगी है, तो इलाज क्या है?
अदालतों और न्याय व्यवस्था की विश्वसनीयता को कायम रखने की जिम्मेदारी किसकी है? एक चीफ़ जस्टिस, जिन पर गंभीर आरोप लगा हो, रिटायरमेंट के तुरंत बाद राज्यसभा के सदस्य नियुक्त किये जाते हैं। क्या इस पर सवाल करना कोई अवमानना है क्या?
लेखक दिल्ली स्थित पत्रकार और कवि हैं