तकनीक, समाज और राजनीति: जासूसी प्रकरण से उपजे कुछ बुनियादी सवाल


पेगासस जासूसी का मामला अप्रत्याशित नहीं है। सरकारों का (और विशेष रूप से हमारी वर्तमान सरकार का) यह स्वभाव रहा है कि वे अपनी रक्षा को देश की सुरक्षा के पर्यायवाची के रूप में प्रस्तुत करती हैं। स्वयं पर आए संकट को राष्ट्र पर संकट बताया जाता है। इस मनोदशा में यह स्वाभाविक ही है कि  सरकार के विरोधियों को राष्ट्रद्रोही के रूप में चित्रित किया जाए।

सरकार पेगासस के विषय में स्पष्ट उत्तर देने से अब तक बचती रही है। 2019 में पूर्व सूचना एवं सूचना प्रौद्योगिकी मंत्री दयानिधि मारन द्वारा लोकसभा में पेगासस के उपयोग के विषय में पूछे गए प्रश्न के उत्तर में तत्कालीन गृह राज्य मंत्री जी किशन रेड्डी ने बताया था कि आइटी एक्ट 2000 की धारा 69 के द्वारा केंद्र अथवा राज्य सरकार को किसी भी कंप्यूटर संसाधन में उत्पन्न, प्राप्त, भेजी गयी अथवा स्टोर की गयी किसी भी सूचना को इंटरसेप्ट, मॉनिटर या डिक्रिप्ट करने अधिकार प्राप्त है। पेगासस के बारे में वे मौन रहे जबकि वर्तमान संचार एवं सूचना प्रौद्योगिकी मंत्री अश्विनी वैष्णव ने लोकसभा को बताया कि लॉफुल इंटरसेप्शन एक कानूनी प्रक्रिया है और इंडियन टेलीग्राफ एक्ट की धारा 5(2) तथा आइटी एक्ट 2000 की धारा 69 में वर्णित नियमों और प्रक्रिया के अनुसार आवश्यकतानुसार लॉफुल इंटरसेप्शन किया जाता है। भारत सरकार द्वारा इजरायली कंपनी एनएसओ से पेगासस स्पाइवेयर की खरीद की गयी है या नहीं यह सवाल अब तक अनुत्तरित है।

ये जासूसी मामूली नहीं है! हमारे वजूद का अंतरंग अब चौराहे पर ला दिया गया है…

असहमत स्वरों को कुचलने के लिए उनकी जासूसी कराना घोर अनैतिक है, इसके बावजूद यदि सरकार के इस तर्क को स्वीकार भी कर लिया जाए कि इस प्रकार की निगरानी एक सामान्य प्रक्रिया है तब भी यह प्रश्न तो उठता ही है कि लॉफुल इंटरसेप्शन के लिए अधिकृत दस सरकारी एजेंसियों के पास क्या इतनी दक्षता नहीं थी कि निगरानी के लिए थर्ड पार्टी स्पाइवेयर को आउटसोर्स करना पड़ा? या फिर क्या सरकारी एजेंसियों की क्षमता और ईमानदारी पर खुद सरकार को विश्वास नहीं है? क्या इजरायल की एनएसओ कंपनी इतनी उच्चस्तरीय सुरक्षा एवं व्यावसायिक नैतिकता रखती है कि इस तरह अर्जित जानकारी को अन्य देशों के साथ साझा किए जाने की कोई आशंका ही नहीं है? यदि यह सब सरकार की जानकारी के बिना हो रहा है तो एनएसओ के विरुद्ध कार्रवाई क्यों नहीं हो रही है?

पेगासस मामले का सच तो शायद किसी निष्पक्ष और गहन जांच के बाद ही सामने आ पाएगा। वर्तमान सरकार से ऐसी किसी जांच की आशा करना भोली आशावादिता ही है। जब पूर्व सूचना प्रौद्योगिकी मंत्री रविशंकर प्रसाद प्रत्याक्रमण सा करते हुए यह पूछते हैं कि विश्व के पैंतालीस मुल्क पेगासस सॉफ्टवेयर का प्रयोग करते हैं तब हमारे देश में ही इस बात पर इतना शोर क्यों मचाया जा रहा है तो इस बात की आशंका बलवती हो जाती है कि सरकार बड़े गर्वीले ढंग से इस अनैतिक जासूसी को स्वीकार कर लेगी और यह कहा जाएगा कि हम देश की सुरक्षा से कोई समझौता नहीं कर सकते, यह सर्वश्रेष्ठ तकनीकी है जो उपलब्ध है, हम लोकापवाद और निंदा से नहीं डरते, हमारे लिए राष्ट्र प्रथम है।

यह समय ऐसा है जब कुछ प्रचलित और निर्विवाद रूप से सकारात्मक अर्थों में प्रयुक्त होने वाले शब्द नए और अनेक बार घातक अर्थ ग्रहण कर रहे हैं। राष्ट्रवाद तथा राष्ट्रीय सुरक्षा, राष्ट्रभक्ति आदि कुछ ऐसे ही शब्द हैं। इनका उपयोग बहुसंख्यक वर्चस्व की स्थापना, बहुलतावाद के अस्वीकार तथा नापसंद लोगों के प्रति हिंसक प्रतिशोध की कार्रवाई को जायज ठहराने हेतु किया जा रहा है। जासूसी के इस मामले को न्यायोचित ठहराने के लिए इन शब्दों का पुनः प्रयोग किया जा सकता है। ऐतिहासिक रूप से देखें तो अलग-अलग कालखण्ड में विभिन्न देशों में अधिनायकवाद और तानाशाही पर यकीन करने वाले शासकों ने इन शब्दों को बारम्बार अनुचित और मनमाने अर्थ दिए हैं। दार्शनिक सच्चाई यह है कि सत्ता नागरिकों के अधिकारों के दमन और उनकी नियंत्रण-निगरानी द्वारा स्वयं को सुरक्षित महसूस करती है यद्यपि यह उसका भ्रम ही होता है।

‘लोक’ सरकारी जवाब पर निबंध रच रहा है, ‘तंत्र’ खतरे के निशान से ऊपर बह रहा है!

पिछले कुछ वर्षों में मानवाधिकारों, नागरिक स्वतंत्रता तथा प्रेस की आजादी का आकलन करने वाले वैश्विक सूचकांकों में हम चिंताजनक रूप से निचले पायदानों पर रहे हैं। सरकार समर्थकों ने इस पर लज्जित होने के स्थान पर गर्व किया है और इसे एक मजबूत सरकार की विशेषता के रूप में रेखांकित करने की कोशिश की है। हमें धीरे-धीरे इस बात के लिए प्रशिक्षित किया जा रहा है कि हम नागरिक स्वतंत्रता के अपहरण और बहुलतावाद के नकार को राष्ट्रीय सुरक्षा एवं तीव्र गति के विकास की पहली शर्त मान लें। हम यह स्वीकार लें कुछ कम स्वतंत्र और कुछ कम लोकतांत्रिक होकर ही हम एक ताकतवर मुल्क बन सकते हैं। सरकार समर्थक मीडिया समूहों में उन देशों का प्रशंसात्मक उल्लेख बार बार दिखता है जहां नागरिकों का दमन होता है, तानाशाही है किंतु जो भौतिक समृद्धि तथा सैन्य शक्ति में हमसे आगे हैं। बार-बार इनकी प्रशंसा कर यह आशा की जाती है कि हम इन्हें रोल मॉडल मान लें। अनेक बार तो इन देशों की विचारधारा और धर्म भी सत्ताधारी दल की पसंद से मेल नहीं खाते फिर भी इन्हें उदाहरणस्वरूप प्रस्तुत करते हुए कहा जाता है कि हमारे देश के जम्हूरियत पसंद नेताओं और सहिष्णु बहुसंख्यक धर्मावलंबियों को इनसे प्रेरणा लेकर तानाशाही और हिंसक कट्टरता को अपना लेना चाहिए।

जासूसी अनादि काल से होती रही है। जब भी राजनीतिक, व्यापारिक, धार्मिक सत्ता का कोई शक्ति केंद्र असुरक्षित और भयभीत अनुभव करता है तब वह अपने विरोधियों (जिन्हें वह शत्रु के रूप में देखता है) की निगरानी के लिए गुप्तचर छोड़ देता है। कबीलाई समाजों और राजतंत्रात्मक व्यवस्था में तो यह नागरिकों के लिए बाध्यता थी कि वे सरदार या राजा के शत्रु को अपना शत्रु समझें किंतु अब इस लोकतंत्र के दौर में जनता को मीडिया के माध्यम से इस बात के लिए प्रशिक्षित किया जाता है। अनैतिक, प्रतिशोधी तथा हिंसक रणनीतियों से आनंदित होने के लिए अनुकूलित किया गया लोकतांत्रिक समाज किसी कबीलाई या राजतांत्रिक समाज से भी घातक होता है क्योंकि वहां तो दमन के विरुद्ध विद्रोह की गुंजाइश बची होती है लेकिन यहां तो दमन को ही आज़ादी मान लिया जाता है।

बताया जा रहा है कि पेगासस जासूसी प्रकरण में पत्रकार, बुद्धिजीवी, विपक्षी नेता और शायद सत्ता में सम्मिलित कुछ असहमत और महत्वाकांक्षी स्वर निशाने पर थे। यदि यह सही है तो यह वर्तमान सत्ता की कमजोरी, घबराहट और हताशा को दर्शाता है और यदि हम इसे सत्ता के पतन का संकेत न भी मानें तब भी क्षीण सी संभावना तो बनती ही है कि कुछ निर्णायक घटित होने वाला है।

भारत, पूंजीवाद, राष्ट्रवाद, साहित्य और राजनीति पर अरुंधति रॉय से सात सवाल

पेगासस मामले पर विपक्ष संसद में आक्रामक तेवर अपनाए हुए है। सत्ताधारी दल के प्रवक्ता कांग्रेस के शासनकाल में हुई जासूसी के अनगिनत मामलों की चर्चा कर रहे हैं। कांग्रेस समेत तमाम विपक्षी दल बड़ी आशा से मीडिया की ओर देख रहे हैं कि वह बोफोर्स मामले या फिर जनलोकपाल आंदोलन की भांति इस मामले को अहम चुनावी मुद्दा बना देगा और तब जैसे कांग्रेस को सत्ता गंवानी पड़ी थी अब भाजपा को कुर्सी छोड़नी होगी, किंतु सत्ता के साथ अठखेलियाँ करता मीडिया धार्मिक-साम्प्रदायिक एजेंडे को छोड़ने के लिए तैयार नहीं है।

बुनियादी सवाल चर्चा से बाहर हैं। हमने सुविधापूर्ण जीवन के लिए स्वयं को तकनीक के हवाले कर दिया है। यह तकनीक आज हमारी निजता के अपहरण हेतु प्रयुक्त हो रही है। हम स्वयं रोज अनगिनत मोबाइल ऐप्स को ऐसी परमिशन्स देते हैं कि वह हमारी कांटेक्ट लिस्ट, गैलरी, फोटो, मीडिया आदि तक पहुंच बना सकें और कॉल पर नजर रख सकें, ऑडियो रिकॉर्ड कर सकें। कहा जाता है कि इस प्रकार सेवा प्रदाता कंपनियां हमारी अभिरुचियों और आवश्यकताओं को जानकर अपनी सेवाओं और प्रोडक्ट्स को कस्टमाइज करती हैं तथा हमें पर्सनलाइज्ड एक्सपीरियंस प्रदान करती हैं। धीरे-धीरे विज्ञापन की यह रणनीति एक मानसिक आक्रमण में बदल जाती है। हमारी रुचियों के अनुरूप अपने प्रोडक्ट को ढालने के बजाय ये कंपनियां अपने प्रोडक्ट के अनुरूप हमारी पसंद को बदलने में लग जाती हैं।

राजनीतिक उत्प्रेरक के रूप में सांप्रदायिकता का इस्तेमाल और राष्ट्रीय आंदोलन से सबक

तकनीकी क्रांति के इस युग में राजनीतिक दलों का जनता से सीधा संपर्क धीरे-धीरे घटता जा रहा है। जनता के सुख दुःख में उसके साथ खड़े होने वाले, उसके कष्टों और अभावों को हरने वाले राजनीतिक दल अब नहीं दिखते। अब ज्यादा जोर जनता के मन पर कब्जा जमाने पर है। इसके लिए डिजिटल मीडिया को हथियार बनाया जा रहा है। राजनीतिक दलों के आइटी सेल काम वही कर रहे हैं जो विज्ञापन एजेंसियां करती हैं- जनता में अपने प्रोडक्ट की जरूरत पैदा करना, जनता को अपने प्रोडक्ट का आदी बनाना। जब एक देश के करोड़ों लोगों के जीवन को प्रभावित एवं उनके भविष्य को निर्धारित करने वाली किसी राजनीतिक विचारधारा का स्थान किसी राजनीतिक दल को फायदा पहुंचाने वाली हिंसक, भ्रामक और विभाजनकारी मार्केटिंग स्ट्रैटेजी ले लेती है तो संकट और गहरा हो जाता है। राजनीतिक विचारधारा का बाजारीकरण उसकी जनपक्षधरता को समाप्त कर देता है और वह वोट बटोरने वाले एक प्रोडक्ट में बदल दी जाती है। अब कुछ खास परोसे गए मुद्दों पर जनमतसंग्रह-नुमा चुनावों के लिए जनता को प्रशिक्षित करने का दौर है। लाभ और मुनाफे पर आधारित इस प्रक्रिया में अनीति ही नीति का रूप ले लेती है। तकनीकी ने आधुनिक लोकतांत्रिक समाजों का अनुकूलन कर के उन्हें वास्‍तविक संघर्ष से दूर ले जाने का कार्य किया है।

आज चाहे सत्ताधारी दल हो या विरोधी दल, सब इसी तकनीकी युद्ध में उलझे हुए हैं। जमीनी जन आंदोलन उत्तरोत्तर कम होते जा रहे हैं। चाहे वह सत्ता संघर्ष हो या फिर जन प्रतिरोध सभी में सफलता के लिए तकनीकी वर्चस्व जरूरी हो गया है। यही कारण है कि पेगासस जैसे स्पाइवेयर आवश्यक बन गए हैं और उन पर निर्भरता बढ़ी है।

क्‍या अब मूल्यहीन राजनीति के विकल्प के बारे में नहीं सोचना चाहिए?

यह विश्वास करना कठिन है कि यह गांधी का देश है जहां पिछले सौ वर्षों में कुछ ऐतिहासिक जन आंदोलन हुए हैं। इनमें आभासी कुछ भी नहीं था। लाखों करोड़ों लोग सशरीर सड़कों पर थे। ऐसे नेता थे जिन्हें जनता स्पर्श कर सकती थी, जिन पर जब अत्याचारी शासकों की लाठियां-गोलियां चलती थीं तो विशुद्ध रक्त निकलता था। खतरनाक गुप्तचर तब भी थे, किंतु गांधी जैसा नेता भी था जो उनका काम आसान कर देता था- कोई षड्यंत्र नहीं, कुछ भी छिपा नहीं- सब कुछ पारदर्शी। न गांधी को गुप्तचरों से कोई भय था न उन्हें गुप्तचरों की कोई आवश्यकता ही थी। गुप्तचर की आवश्यकता उसे ही होती है जिसके जीवन में भय, हिंसा और प्रतिशोध को अतिशय महत्व दिया जाता है। गांधी इनसे सर्वथा मुक्त थे। एक व्‍यक्ति के बतौर गांधी के सार्वजनिक जीवन का पुनर्पाठ उस राजनीतिक शुचिता, जवाबदेही और पारदर्शिता की ओर हमारी वापसी के लिए आवश्यक है जिसे हमने इतनी जल्दी भुला दिया है। एक विचारक के बतौर गांधी का विकेंद्रीकरण का सिद्धांत आज और प्रासंगिक लगता है। गांधी ने बहुत पहले ही भांप लिया था कि तकनीकी राजनीतिक, व्यापारिक और सामरिक शक्ति के केंद्रीकरण के लिए प्रयुक्त होगी और इसका उपयोग हिंसक वर्चस्व की स्थापना एवं शोषण हेतु होगा। यही कारण था कि उन्होंने राजनीतिक व्यवस्था और अर्थव्यवस्था के विकेंद्रीकरण पर बल दिया।

हमारे सामने विचार के लिए अनेक प्रश्न हैं। क्या पेगासस जैसे  प्रकरणों में तकनीकी के सम्पूर्ण नकार का संदेश निहित है? समय उस पुरानी अवधारणा पर भी सवाल उठाने का है जो यह विश्वास करती है कि तकनीकी अविष्कार निष्पक्ष, निरपेक्ष और स्वतंत्र होते हैं तथा मनुष्य अपनी प्रवृत्ति के अनुसार उनका अच्छा बुरा उपयोग करता है। अब ऐसी तकनीकी का अविष्कार हो रहा है जो लोगों पर वर्चस्व स्थापित करने के लिए ही तैयार की गयी है। यद्यपि यह भ्रम पैदा किया जाता है कि यह सबके लिए समान है किंतु यह अपने निर्माता के हितों की सिद्धि के लिए एकतरफा कार्य करती है। एक बड़ा प्रश्न यह भी है कि तकनीकी के वर्चस्व के खिलाफ लड़ाई क्या लोकतंत्र को बचाने का संघर्ष भी है?


लेखक छत्तीसगढ़ के रायगढ़ स्थित स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं


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