कितने लोगों ने डॉ. अम्बेडकर की अगुवाई में छेड़े गए पहले ‘दलित विद्रोह’ अर्थात महाड़ सत्याग्रह (1927) के बारे में पढ़ा होगा और यह जाना होगा कि किस तरह उसके पहले चरण में (19-20 मार्च) को महाड़ नामक जगह पर स्थित चवदार तालाब पर हजारों की तादाद में लोग पहुंचे थे और उन्होंने वहां पानी पीया था। जानवरों को भी जिस तालाब पर पानी पीने से रोका नहीं जाता था, उस तालाब पर दलितों को मनाही थी और इसी मनाही के खिलाफ इस सत्याग्रह ने बग़ावत का बिगुल फूंका था।
सत्याग्रह के दूसरे चरण में (25 दिसम्बर 1927) में उसी महाड में डॉ. अम्बेडकर ने मनुस्म्रति का दहन किया था और उनकी इस कार्रवाई की तुलना फ्रेंच इन्कलाब (1789) से की थी। इस दहन के पहले जिस प्रस्ताव को गंगाधर सहस्त्रबुद्धे नामक डॉ. अम्बेडकर के सहयोगी ने पढ़ा था- जो खुद पुरोहित जाति से सम्बद्ध थे, उसके शब्द इस प्रकार थे: “यह सम्मेलन इस मत का मजबूत हिमायती है कि मनुस्मृति, अगर हम उसके उन तमाम श्लोकों को देखें जिन्होंने शूद्र जाति को कम करके आंका है, उनकी प्रगति को अवरुद्ध किया है, और उनकी सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक गुलामी को स्थायी बनाया है… ऐसी किताब नहीं है जो एक धार्मिक या पवित्र किताब समझी जाए। और इस राय को अभिव्यक्ति प्रदान करने के लिए, यह सम्मेलन ऐसी धार्मिक किताब के दहन की कार्रवाई को अंजाम दे रहा है जो लोगों का विभाजन करती है और इन्सानियत को तबाह करने वाली है।“ ( Page 351, Mahad The Making of the First Dalit Revolt, Anand Teltumbde, Navayana, 2017)
इस ऐतिहासिक कार्रवाई के बाद समय-समय पर अपने लेखन और व्याख्यानों में डॉ. अम्बेडकर ने मनु के विश्व नज़रिये की लगातार मुखालिफत की थी। महाड सत्याग्रह के लगभग 23 साल बाद जब भारत के संविधान का ऐलान हो रहा था तब अम्बेडकर ने इस अवसर पर कहा था कि उसने ‘मनु के शासन को समाप्त किया है।’
निश्चित तौर पर उन्हें इस बात का कत्तई अनुमान रहा होगा कि भारत के ज्ञात इतिहास के इस महान अवसर- जब उसने एक व्यक्ति एक मत के आधार पर संविधान की घोषणा कर राजनीतिक जनतंत्र में कदम रखा और एक व्यक्ति और एक मूल्य के आधार पर सामाजिक जनतंत्र कायम करने का इरादा जाहिर किया; नस्ल, जाति, लिंग आदि आधारित शोषणों-उत्पीड़नों से मुक्ति की घोषणा की- के सत्तर साल बाद, आबादी का अच्छा खासा हिस्सा अभी भी मनु और उसके चिन्तन से सम्मोहित रहेगा और उसे इस बात पर भी कतई गुरेज नहीं होगा कि वह उनकी मूर्ति की स्थापना करें और उसको सम्मानित करे।
जार्ज फ्लायड नामक अश्वेत व्यक्ति की पुलिस के हाथों हत्या के बाद अमेरिका तथा यूरोप के तमाम इलाकों में ब्लैक लाइव्ज़ मैटर अर्थात ब्लैक जिन्दगियां भी अहमियत रखती हैं के बैनर तले जो व्यापक आन्दोलन शुरू हुआ है उसके तहत इन मुल्कों में खड़ी तमाम विवादास्पद व्यक्तियों की मूर्तियों को- जिनमें से कई गुलामों के मालिक थे और उनके व्यापार में मुब्तिला थे और उपनिवेशवादी, नस्लवादी थे- जनसमूहों द्वारा गिराया जा रहा है या प्रशासन द्वारा ही हटाने का निर्णय लिया जा रहा है। यहां तक कि कोलम्बस की मूर्ति को भी गिराया गया है, जिसके बारे में ‘वर्चस्वशाली’ पाठयक्रमों में दावा किया जाता रहा है कि उसने अमेरिका को ‘ढूंढ निकाला’ और यह सच्चाई छिपायी जाती रही है कि किस तरह कोलम्बस के वहां पहुंचने से पहले वहां आदिम लोगों की भारी आबादी थी- जिनके लिए ‘रेड इंडियन’ जैसा नस्लवादी सम्बोधन प्रयुक्त होता रहा है- और जिसका व्यापक पैमाने पर कत्लेआम हुआ था।
गौरतलब है कि विवादास्पद मूर्तियों को विस्थापित करने या विवादास्पद नामों से सुशोभित ऐतिहासिक स्मारकों, केन्द्रों के नामांतरण को लेकर चली यह बहस यहां भी शुरू होती दिख रही है। गुजरात के चर्चित दलित मानवाधिकार कार्यकर्ता मार्टिन मकवान ने कांग्रेस की अस्थायी अध्यक्ष सुश्री सोनिया गांधी को ख़त लिख कर यह मांग की है कि जयपुर के उच्च न्यायालय में स्थापित मनु की मूर्ति को वहां से हटाया जाए।
उनके पत्र के मुताबिक मनु की यह मूर्ति “भारत के संविधान और दलितों का अपमान है’ और वह डॉ. भीमराव अम्बेडकर के इस आवाहन को कमजोर करती है जिसमें उन्होंने कहा था कि अगर एक राष्ट्र के तौर पर हमें आगे बढ़ना है तो जाति का उन्मूलन करना होगा! यह मूर्ति न केवल दलित उत्पीड़न को प्रतिबिम्बित करती है, बल्कि वह महिलाओं और शूद्रों के उत्पीड़न का भी प्रतीक है। कुल मिला कर यह भारत की आबादी का 85 फीसदी हिस्सा है।“
ध्यान रहे ऐसी मांग रखने वाले वह अकेले नहीं हैं। जब से इस मूर्ति की यहां स्थापना हुई है तभी से इस मूर्ति को वहां से हटाने के लिए आवाज़ें बुलन्द होती रही हैं।
अब यह बात इतिहास हो चुकी है कि किस तरह भाजपा के शासन में (1989) स्थानीय बार एसोसिएशन से सम्बद्ध जनाब पदमकुमार जैन की पहल पर इस मूर्ति की स्थापना की गयी थी। गौरतलब है कि अपनी स्थापना के समय से ही यह मूर्ति विवादों में रही है और इसलिए 31 साल बाद भी उसका औपचारिक अनावरण नहीं हो सका है। दलितों, शूद्रों एवं स्त्रियों को अपमानित करने वाली इस मूर्ति को वहां से हटाने के लिए दलित मानवाधिकार कार्यकर्ताओं ने तत्काल अदालत का भी दरवाज़ा खटखटाया है, यहां तक कि याचिकाकर्ताओं की दलील को स्वीकारते हुए उच्च न्यायालय ने मूर्ति को हटाने के आदेश भी दिए, अलबत्ता एक हिन्दुत्ववादी नेता आचार्य धर्मेन्द द्वारा उसे चुनौती दी गयी और तबसे इस मामले में स्टे लगा हुआ है।
विगत इकतीस सालों में इस याचिका पर महज एक सुनवाई हुई है। (2015)
न्यायाधीश आते रहे और रिटायर होकर या तबादला होकर जाते रहे, लेकिन किसी ने इस याचिका को उठाने की कोशिश नहीं की। क्या जाति की समस्या के प्रति यह उन सभी की समाजशास्त्रीय दृष्टिहीनता का यह परिचायक था या यह उनके विश्व नज़रिये का प्रतिबिम्बन था जिसमें उनका चिन्तन मनु की मूर्ति रखने वालों के साथ सामंजस्यपूर्ण दिख रहा था, यह एक अलग अध्ययन का विषय है।
वर्ष 2015 में अर्थात याचिका अदालत के सामने आने के ठीक 26 साल बाद तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश की पहल पर इस याचिका को विचार के लिए लिया गया। सम्मानित जज महोदय को इस बात को कत्तई अंदाजा नहीं था कि उनकी इस कार्रवाई का कथित ऊंची जाति के वकीलों ने- जिनमें से अधिकतर ब्राहमण थे- जबरदस्त विरोध किया और उन्होंने याचिकाकर्ता के वकील को अपनी बात रखने तक का मौका नहीं दिया। अचानक हुए इस संगठित प्रतिरोध के चलते मुख्य न्यायाधीश ने फिर इस मामले को मुल्तवी कर दिया, जब उन्होंने देखा कि उनकी अपील पर भी वकील शांत होने को तैयार नहीं थे।
मूर्ति जब से स्थापित हुई है, उसे विस्थापित करने के लिए निरंतर जन गोलबन्दियां, मुहीम और व्यापक आधार पर गोलबंदी चलती रही है। दलितों के नेता रामदास अठावले, कांशीराम आदि लोग इस मसले को लेकर जयपुर आते रहे हैं। यहां तक कि नब्बे के दशक में मशहूर समाजवादी नेता डॉ. बाबा आढव के नेतृत्व में हजारों सामाजिक कार्यकर्ताओं ने महाराष्ट्र से आकर यहां धरना भी दिया था।
मनु की मूर्ति की स्थापना को लेकर लेखक, कलाकार, सामाजिक कार्यकर्ता और यहां तक कि आम जनसाधारण भी बहुत बेचैन रहे हैं और वह समय-समय पर सक्रियता के जरिये मांग बुलंद करते रहे हैं।
इस मूर्ति की स्थापना को लेकर एक प्रतीकात्मक कार्रवाई दो साल पहले भी सम्पन्न हुई थी जब महाराष्ट्र के अम्बेडकरवादी आन्दोलन से सम्बद्ध दो जुझारू महिलाओं ने- शीलाबाई पवापर, कांता रमेश अहिरे- इस मूर्ति पर काला रंग डाला था। (अक्टूबर 2018)
आज की तारीख में इस मूर्ति के इर्दगिर्द खड़ी हो रही बहस का सबसे विचलित करने वाला पक्ष है कि हमारे समाज का मुखर हिस्सा- जिनमें से अधिकतर ऊंची जाति से सम्बद्ध होते हैं – इतने दिनों बाद भी मनु के विश्व नज़रिये की विसंगतियों को समझने के बजाय, कैसे उसकी आचार संहिता ने व्यापक आबादी को मानवाधिकार से भी मरहूम किया था, वह इसी बात को प्रमाणित तथा प्रतिपादित करने में लगा है कि इस ‘मूल विधिनिर्माता’ के चिन्तन को प्रश्नांकित करने की जरूरत नहीं है। इतना ही नहीं, वह मनु की एक साफसुथरीकृत (सैनिटाइज्ड) छवि भी पेश करने में मुब्तिला हैं।
निश्चित तौर पर ऊंच-नीच सोपानक्रम पर टिकी संरचना के इन हिमायतियों ने जो सदियों से दृश्य और अदृश्य तरीकों से विशेषाधिकार हासिल किए हैं, उनसे फिलवक्त यह उम्मीद करना बेकार है कि वह आत्मपरीक्षण करने के लिए तैयार होंगे, जैसे कि सिलसिला अमेरिकी सर्वोच्च न्यायालय में हाल में चला था जब जार्ज फ्लायड की हत्या के बाद न्यायाधीशों ने अपने एक खुले पत्र के माध्यम से अपनी बात प्रकट की थी:
“ब्लैक जिन्दगियों का अवमूल्यन और अपमान कोई ताज़ी घटना नहीं है। इस देश की स्थापना के पहले से निरंतर चली आ रही यह संस्थागत प्रक्रिया है। लेकिन हाल की घटनाओं ने हमारे सामूहिक विवेक के सामने इस पीड़ादायी हक़ीकत को उजागर किया है कि हमारे तमाम नागरिकों के लिए यह सामान्य जानकारी है कि ब्लैक अमेरिकियों को जो अन्याय झेलना पड़ रहा है वह महज अतीत का अवशेष नहीं है… हम हमारी हर दिन की हर निजी कार्रवाइयों का एक सामूहिक उत्पाद है। हमारी अपनी कार्रवाइयों पर बेहद गंभीरता से सोचते हुए, उसके लिए व्यक्तिगत जिम्मेदारी लेते हुए ही, और निरंतर बेहतर करने की कोशिश करते हुए ही हम अपनी इस शर्मनाक विरासत को सम्बोधित कर सकते हैं। हम न्यायिक समुदाय के हर सदस्य से यह अपील करते हैं कि वह इस अवसर पर गंभीरता से सोचे और अपने आप से पूछे कि हम सब मिल कर नस्लवाद की समाप्ति के लिए क्या कर सकते हैं।“
अगर भारत की ओर लौटें तो मुखर कहे जाने वाले लोग अगर इस बात पर थोड़ा सोचने के लिए तैयार होते कि किस तरह मनु के विश्व नज़रिये ने भारतीय समाज को सदियों से कमजोर कर दिया है और किस तरह वह सामाजिक और सांस्कृतिक तौर पर वंचित, उत्पीड़ित तबकों की जिन्दगी में आज भी कहर बरपा कर रहा है और किस तरह आजादी के सत्तर साल बाद भी दलितों-आदिवासियों पर दैनंदिन अत्याचार होते रहते हैं। राष्ट्रीय अपराध नियंत्रण ब्यूरो की रिपोर्टों से उन्हें पता चलता कि हर सोलह मिनट पर एक दलित, गैरदलित के हाथों अत्याचार का शिकार होता है जिसमें हर दिन में चार बलात्कार, हर सप्ताह तेरह दलितों की हत्या आदि शामिल है। और किस तरह लोगों को निर्वस्त्र कर घुमाना, उन्हें मल खाने के लिए मजबूर करना, उनकी जमीनों पर कब्जा करना और उनका सामाजिक बहिष्कार करना बेहद आम है और उच्च शिक्षा संस्थान भी इससे अलग नहीं है।
दरअसल वर्चस्वशाली तबकों द्वारा या दक्षिणपंथी सियासत के हिमायतियों द्वारा हम मनु के साफसुथराकरण को, उनकी रिपैकेजिंग को कई स्तरों पर उद्घाटित होता देख सकते हैं।()
दक्षिणपंथी बुद्धिजीवी दरअसल दो बातों के लिए जमीन तैयार कर रहे हैं: एक, दलितों, स्त्रियों के साथ हिंसा में संलिप्तता के लिए अर्थात उसे वैचारिक आधार प्रदान करने के आरोपों से मनुस्मृति को मुक्त करना और दूसरा, जाति व्यवस्था और जाति सोपानक्रम से लोगों का ध्यान बंटा कर इस तमाम दुर्दशा के लिए बाहरी लोगों पर- अर्थात मुसलमानों पर- दोषारोपण करना।
महाड़ सत्याग्रह की नब्बेवीं सालगिरह के महज दो सप्ताह पहले, वर्ष 2017 के अंत में, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के विचारक इंद्रेश कुमार ने जयपुर में चाणक्य गण समिति द्वारा आयोजित एक कार्यक्रम में हिस्सेदारी की। इस कार्यक्रम में चर्चा का विषय था ‘आदि पुरूष मनु को पहचानें, मनुस्मृति को जानें।’
कार्यक्रम के निमंत्रण पत्र में बताया गया था कि मनुस्मृति ‘जातिभेद और जाति व्यवस्था’ के विरोध में थी। इंद्रेश कुमार ने अपने सम्बोधन में बताया कि मनु न केवल जाति व्यवस्था के खिलाफ थे बल्कि वह गैरबराबरी के भी विरूद्ध थे। उनका यह भी कहना था कि इतिहासकारों ने मनु के बारे में दिग्भ्रमित करने वाली छवि पेश की है। मनु, उनका कहना था, वह सामाजिक सद्भाव और सामाजिक न्याय के मामले में दुनिया का सबसे पहला न्यायविद था।
मनुस्मृति के सैनिटाइजेशन की यह कोशिश संघ से सम्बद्ध बुद्धिजीवियों की लम्बे समय से चली आ रही कोशिश है, भले ही इस साफसुथराकरण का मतलब हो ‘प्राचीन हिन्दू ग्रंथों का’ भी परिशोधन करना। वर्ष 2017 में अमीर चन्द, जो संस्कार भारती के नेता हैं, जो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का आनुषंगिक संगठन है, उन्होंने संस्कृति मंत्री महेश शर्मा से यह अपील की कि ऐसी गतिविधियों को प्रोत्साहित किया जाए ताकि ‘प्राचीन हिन्दू ग्रंथों की सही छवि’ लोगों के सामने प्रस्तुत की जा सके। अमीर चन्द इस बात से चिंतित थे कि यह ग्रंथ दलित विरोधी तथा स्त्रीविरोधी दिखते हैं। इन हिस्सों का नया रंगरोगन जरूरी था। मनुस्मृति की एक किस्म की रिब्राण्डिंग के लिए नये अनुसंधान की आवश्यकता थी।
फिलवक्त़ इस बात का अनुमान लगाना कठिन है कि मनु को लेकर वैकल्पिक आख्यान- जो समता, स्वतंत्रता और बंधुता पर आधारित हो- कब मजबूत बन कर उभरेगा? निश्चित ही यह स्थिति तब तक असंभव है जब तक भारतीय समाज में जबरदस्त मंथन न हो और उसमें यह एहसास गहरा न हो कि उसमें आमूलचूल सामाजिक सुधार की जरूरत है।
अपनी बहुचर्चित रचना “द अनटचेबल्स एण्ड पैक्स ब्रिटानिका”, 1931 में डॉ. अम्बेडकर ने ऐसे बदलाव के रास्ते में खड़ी चुनौतियों को मद्देनज़र रखते हुए सर टी. माधव राव को उद्धृत करते हुए लिखा था जिन्होंने अपने वक्त़ के हिन्दू समाज के बारे में कहा था:
“अपने लंबे जीवनकाल में मनुष्य जब चीजों का अवलोकन करता है और सोचता है, तब उतनी ही गहराई से उसे यह महसूस होता है कि पृथ्वी पर हिंदू समुदाय जैसा और कोई समुदाय नहीं है जो राजनीतिक बुराइयों से कम और स्वतःदंडित, स्वतःस्वीकृत या स्वतःनिर्मित और टाले जाने योग्य बुराइयों से कहीं अधिक परेशान रहता है। यह नज़रिया बिल्कुल सटीक है और बिना किसी अतिशयोक्ति के हिंदू समाज में समाज सुधार की जरूरत को अभिव्यक्त करता है। सबसे पहले समाज सुधारक गौतम बुद्ध थे। समाज सुधार का कोई भी इतिहास उनसे ही शुरू होना चाहिए और भारत में समाज सुधार का कोई भी इतिहास उनके बिना पूरा नहीं हो सकता जो उनकी महान उपलब्धियों की अनदेखी करता है।“
मनु को इतिहास तक सीमित करने का सवाल निश्चित ही व्यापक उत्पीड़ित समुदायों के लिए ही नहीं बल्कि अमन और इन्साफ के हर हिमायती के लिए बेहद जरूरी और मौजूं सवाल लग सकता है, लेकिन जिस तरह यह समाज ‘राजनीतिक बुराइयों से कम और स्वतःदंडित, स्वतःस्वीकृत या स्वतःनिर्मित और टाले जाने योग्य बुराइयों से कहीं अधिक परेशान रहता है उसे देखते हुए इस लक्ष्य की तरफ बढ़ने के लिए हमें कैसे दुर्धर्ष संघर्षों के रास्ते से गुजरना पड़ेगा, इसके लिए आज से तैयारी जरूरी है।