अफगानिस्तान मामले की सामरिक और कूटनीतिक जटिलताओं से एकदम अलग स्त्री विमर्श पर आधारित इसका पाठ है। आश्चर्यजनक रूप से यह पाठ एकदम सरल है। यह पाठ दरअसल सदियों पुरानी एक हौलनाक दास्तान है जो प्रकारांतर से हर युग में, हर मुल्क में थोड़े बहुत समयानुकूल परिवर्तनों के साथ दुहरायी जाती है। इस दास्तान में कुछ धर्मांध शासक हैं जो सदियों पुराने धार्मिक कानूनों के आधार पर राज्य चला रहे हैं। देश की आधी आबादी इनकी भोगलिप्सा और कुंठाओं की पूर्ति के लिए बंधक बनाकर रखी गयी है। जब वे जीत का जश्न मनाते हैं तो औरतों से बर्बरता करते हैं; जब वे हार का शोक मनाते हैं तो औरतों पर जुल्म ढाते हैं; जब वे मित्रता करते हैं तो भोगने के लिए औरतों को उपहार में देते हैं; जब वे शत्रुता करते हैं तो औरतों को नोचते-खसोटते, मारते-काटते हैं; जब वे अपने धर्म का पालन करते हैं तो औरतों को आज्ञापालक गुलामों की भांति बंधक बनाकर रखते हैं। समय के साथ इनके नाम बदल जाते हैं।
जैसे आजकल जिस मुल्क में ऐसे हालात हैं उसका नाम अफगानिस्तान है जहां के कट्टरपंथी शासक तालिबान कहे जाते हैं। यह आधुनिक युग है। इसलिए यूएनओ और सार्क जैसे संगठन हैं, नारी स्वतंत्रता एवं मानवाधिकारों की लड़ाई लड़ने वाली ढेर सारी संस्थाएं हैं, उत्तरोत्तर उदार और प्रजातांत्रिक होते विश्व के लोकप्रिय और शक्तिशाली सत्ता प्रमुख हैं किंतु जो बात अपरिवर्तित है वह है अफगान महिलाओं की नारकीय स्थिति। क्या यह स्थिति अपरिवर्तनीय भी है?
तालिबानी शासन का पिछला दौर महिलाओं के लिए भयानक रहा था। यूएस डिपार्टमेंट ऑफ स्टेट द्वारा 2001 में जारी रिपोर्ट ऑन द तालिबान्स वॉर अगेंस्ट वीमेन के अनुसार 1977 में अफगानिस्तानी विधायिका में महिलाओं की हिस्सेदारी 15 प्रतिशत थी। एक अनुमान के अनुसार नब्बे के दशक के प्रारंभिक वर्षों में 70 प्रतिशत स्कूल शिक्षक, 50 प्रतिशत शासकीय कर्मचारी एवं विश्वविद्यालयों के विद्यार्थी तथा 40 प्रतिशत डॉक्टर महिलाएं ही थीं। तालिबान जब 1996 में निर्णायक रूप से सत्ता में आया तो कथित पश्चिमी प्रभाव को समाप्त करने के लिए उसे महिलाओं की स्वतंत्रता पर प्रहार करना एवं उनके मानव अधिकारों को छीनना सबसे जरूरी लगा। इस प्रकार महिलाएं तालिबान का पहला और आसान शिकार बनीं।
1996 से 2001 के बीच अफगानी महिलाएं पढ़ाई और काम नहीं कर सकती थीं। वे बिना परिवार के पुरुष सदस्य के बाहर नहीं निकल सकती थीं। वे राजनीति में हिस्सा नहीं ले सकती थीं। वे सार्वजनिक रूप से श्रोताओं के सम्मुख भाषण भी नहीं दे सकती थीं। वे स्वास्थ्य सुविधाओं से वंचित कर दी गयी थीं। यहां तक कि उनके लिए सार्वजनिक तौर पर अपनी त्वचा का प्रदर्शन करना भी प्रतिबंधित था। इन पाबंदियों का उल्लंघन करने पर कोड़े मारने और पत्थर मार-मार कर हत्या कर देने जैसी सजाओं का प्रावधान था।
रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने नवम्बर 2001 में अमेरिका की अपनी यात्रा के दौरान टेक्सास के छात्रों को संबोधित करते हुए कहा था कि दरअसल अफगानिस्तान में महिलाओं के साथ मनुष्यों जैसा बर्ताव नहीं होता। दिसंबर 2001 में जब जॉर्ज डब्लू बुश ने अफगानी महिलाओं और बच्चों की सहायता के लिए फण्ड स्वीकृत किए थे तब लारा बुश का कथन था कि आतंकवाद के विरुद्ध लड़ाई महिलाओं के अधिकारों और उनकी गरिमा की रक्षा के लिए संघर्ष भी है। किंतु अब जैसा जाहिर हो रहा है कि विश्व की इन महाशक्तियों की प्रतिबद्धता अपने सामरिक-कूटनीतिक हितों के प्रति हमेशा ही रही है। अफगानी स्त्रियों की स्थिति में सुधार लाने के इनके प्रयास सदैव एक आनुषंगिक रणनीति का भाग मात्र रहे हैं।
यूएन वीमेन इन अफगानिस्तान की उपप्रमुख डेविडियन के अनुसार वर्तमान तालिबानी शासन स्त्रियों के प्रति उदार होने के अपने तमाम वादों के बावजूद 1990 के दशक की याद दिलाता है जब महिलाओं को काम करने से रोका गया था और उन्हें शिक्षा से वंचित किया गया था। अपनी नयी पारी में तालिबानी हुक्मरानों के तेवर बदले नहीं हैं। आतंकवादियों से निर्मित तालिबान कैबिनेट में न तो कोई महिला सदस्य है न ही महिलाओं के लिए कोई मंत्रालय। महिलाएं केवल पुरुष रिश्तेदार के साथ ही निकल सकती हैं। अनेक सूबों में महिलाओं को काम पर जाने से रोका जा रहा है। हिंसा की शिकार महिलाओं के लिए बनाए गए सुरक्षा केंद्रों तथा महिला मानवाधिकार कार्यकर्त्ताओं के लिए निर्मित सुरक्षित आवासों को निशाना बनाया जा रहा है। अंतरराष्ट्रीय संगठनों के साथ सहयोग करने वाली स्थानीय महिला एक्टिविस्ट और मानवाधिकार कार्यकर्त्ता खास तौर पर तालिबानियों के रडार पर हैं। महिलाओं के क्रिकेट और अन्य खेलों में हिस्सा लेने पर पाबंदी लगायी जा रही है क्योंकि यह तालिबानी शासकों के अनुसार गैर-जरूरी है और इसके लिए महिलाओं को ऐसे कपड़े पहनने पड़ेंगे जिससे उनका शरीर दिखायी देगा।
यदि वर्ष के प्रथम छह महीनों को आधार बनाया जाए तो 2021 के पहले छह महीनों में अफगानिस्तान में हताहत महिलाओं और बच्चों की संख्या 2009 के बाद से किसी वर्ष हेतु अधिकतम संख्या है। यूएन रिफ्यूजी एजेंसी के अनुसार 2021 में अब तक लगभग 3 लाख 30 हजार अफगानी युद्ध के कारण विस्थापित हुए हैं और चौंकाने वाली बात यह है कि पलायन करने वालों में 80 प्रतिशत महिलाएं हैं जिनके साथ उनके अबोध और मासूम शिशु भी हैं। कोआर्डिनेशन कमेटी ऑफ यूएन स्पेशल प्रोसीजर्स की प्रमुख अनीता रामाशास्त्री के अनुसार इस तरह की बहुत सारी महिलाएं छुपी हुई हैं। तालिबानी उन्हें घर-घर तलाश कर रहे हैं। इस बात की जायज आशंका है कि इस तलाश की परिणति प्रतिशोधात्मक कार्रवाई में होगी।
अफगान महिलाओं की एक पूरी पीढ़ी स्वतंत्र वातावरण में पली बढ़ी है। उसे तालिबान के अत्याचारों का अनुभव नहीं है। यह महिलाएं चिकित्सक, शिक्षक, अधिवक्ता, स्थानीय प्रशासक और कानून निर्माताओं की भूमिका निभाती रही हैं। इनके लिए तालिबानी शासन एक अप्रत्याशित आघात की भांति है। जब वे देखती हैं कि तालिबानी अपने लड़ाकों की यौन परितुष्टि के लिए बारह से पैंतालीस वर्ष की आयु की महिलाओं की सूची बना रहे हैं, अचानक महिलाओं को खास तरह की पोशाक पहनने के लिए बाध्य किया जा रहा है, बिना पुरुष संरक्षक के उनके अकेले निकलने पर पाबंदी लगायी जा रही है और उन्हें नेतृत्वकारी स्थिति से हटाकर छोटी और महत्वहीन भूमिकाएं दी जा रही हैं तो उन्हें ऐसा लगता है कि जो कुछ थोड़ी बहुत स्वतंत्रता उन्होंने हासिल की है वह न केवल छीनी जा रही है बल्कि इस स्वतंत्रता के अब तक किए उपभोग का दंड उनकी प्रतीक्षा कर रहा है।
टोलो न्यूज़ द्वारा ट्विटर पर पोस्ट किये गए एक वीडियो में काबुल के शोमाल सराय इलाके में शरण लेने वाली दर्जनों महिलाओं को चीख-चीख कर अपनी दुःख भरी दास्तान कहते देखा जा सकता है। इनके परिजनों की हत्या कर दी गयी है और इनके घरों को नष्ट कर दिया गया है। अफगानी महिला पत्रकार शाहीन मोहम्मदी के अनुसार अपने अधिकारों की मांग करती महिलाओं पर तालिबानी बर्बरता कर रहे हैं।
यद्यपि 17 अगस्त 2021 को तालिबान के प्रवक्ता जबीउल्लाह मुजाहिद ने कहा- ”शरीया कानून के मुताबिक हम महिलाओं को काम की इजाजत देंगे। महिलाएं समाज का एक महत्वपूर्ण अंग हैं और हम उनका सम्मान करते हैं। जीवन के सभी क्षेत्रों में- जहां भी उनकी आवश्यकता होगी- उनकी सक्रिय उपस्थिति होगी।” किंतु तालिबान जिस शरीया कानून का पालन करता है वह विश्व के अन्य मुस्लिम देशों को भी स्वीकार्य नहीं है और इसमें महिलाओं के लिए जो कुछ है वह केवल अनुशासनात्मक और दंडात्मक है। कठोर प्रतिबंध और इनका पालन करने में असफल रहने पर क्रूर एवं अमानवीय दंड इसका मूल भाव है।
महिलाओं के लिए सबसे भयानक परिस्थिति यौन दासता की होगी। लड़ाकों को तालिबान के प्रति आकर्षित करने के लिए उन्हें महिलाएं भेंट की जाती रही हैं, हालांकि इसे शादी का नाम दिया जाता है लेकिन यह है प्रच्छन्न यौन दासता ही। तालिबानियों द्वारा महिलाओं का यौन शोषण जिनेवा कन्वेंशन के अनुच्छेद 27 का खुला उल्लंघन है। वर्ष 2008 में संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद द्वारा प्रस्ताव 1820 के माध्यम से बलात्कार और अन्य प्रकार की यौन हिंसा को युद्ध अपराध तथा मानवता के विरुद्ध कृत्य का दर्जा दिया गया है किंतु शायद कबीलाई मानसिकता से संचालित तालिबान के लिए अंतरराष्ट्रीय दबाव बहुत अधिक मायने नहीं रखता।
ह्यूमन राइट्स वाच की एसोसिएट एशिया डायरेक्टर पैट्रिशिया गॉसमैन अंतरराष्ट्रीय समुदाय से हस्तक्षेप की अपील करते हुए कहती हैं कि एलिमिनेशन ऑफ वायलेंस अगेंस्ट वीमेन कानून को सख्ती से लागू कराने के लिए विश्व के सभी देशों को अफगानिस्तान की सरकार पर दबाव बनाना चाहिए। अफगानिस्तान से विदेशी सेनाओं के हटने का एक परिणाम यह भी होगा कि अफगानिस्तान को मिलने वाली सहायता में कमी आएगी और अंतरराष्ट्रीय समुदाय की रुचि इस मुल्क के प्रति घटेगी। इसका सर्वाधिक प्रभाव महिलाओं पर पड़ेगा क्योंकि उनकी आवाज़ को मिलने वाला अंतरराष्ट्रीय समर्थन अब उपलब्ध नहीं होगा।
संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद की प्रमुख मिशेल बचेलेट ने अगस्त 2021 में परिषद के आपात अधिवेशन को संबोधित करते हुए नए तालिबानी शासकों को चेतावनी भरे लहजे में कहा कि महिलाओं और लड़कियों के साथ किया जाने वाला व्यवहार वह आधारभूत लक्ष्मण रेखा है जिसका उल्लंघन करने पर तालिबानियों को गंभीर दुष्परिणाम भुगतने होंगे, लेकिन यह कठोर भाषा आचरण में परिवर्तित होती नहीं दिखती। अफगानिस्तान इंडिपेंडेंट ह्यूमन राइट्स कमीशन की प्रमुख शहरज़ाद अकबर के अनुसार अफगानिस्तान अपने सबसे बुरे दौर में है और उसे अंतरराष्ट्रीय समुदाय की सहायता की जैसी जरूरत अब है वैसी पहले कभी न थी। उन्होंने संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद के मसौदा प्रस्ताव को हास्यास्पद बताया।
एशिया सोसाइटी का 2019 का एक सर्वेक्षण यह बताता है कि 85.1 प्रतिशत अफगानी ऐसे हैं जिन्हें तालिबानियों से कोई सहानुभूति नहीं है। इसके बावजूद तालिबान सत्ता पर काबिज हो चुके हैं। अफगानिस्तान गृह युद्ध की ओर बढ़ रहा है। अंतरराष्ट्रीय समुदाय चिंताजनक रूप से अफगानिस्तान की आधी आबादी की करुण पुकार को अनुसना कर रहा है। चंद औपचारिक चेतावनियों और प्रस्तावों के अतिरिक्त कुछ ठोस होता नहीं दिखता। दुनिया के ताकतवर देशों के लिए अपने कूटनीतिक लक्ष्य अधिक महत्वपूर्ण हैं। उनका ध्यान इस बात पर अधिक है कि विस्फोटक, विनाशक और अराजक तालिबान को अपने फायदे के लिए किस तरह इस्तेमाल किया जाए। विश्व व्यवस्था का पितृसत्तात्मक चरित्र खुलकर सामने आ रहा है।
अफगानिस्तान के मौजूदा हालात उन लोगों के लिए एक सबक हैं जो धर्म को सत्ता संचालन का आधार बनाना चाहते हैं। परिस्थितियां ऐसी बन रही हैं कि धार्मिक कट्टरता को परास्त कर समानतामूलक लोकतांत्रिक समाज की स्थापना के लिए भावी निर्णायक संघर्ष का नेतृत्व शायद अब महिलाओं को ही संभालना पड़ेगा। महिलाओं की अपनी मुक्ति शायद पितृसत्तात्मक शोषण तंत्र का शिकार होने वाले करोड़ों लोगों की आज़ादी का मार्ग भी प्रशस्त कर सके।
लेखक छत्तीसगढ़ के रायगढ़ स्थित स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं