हर्फ़-ओ-हिकायत: पंजाब के नये मुख्यमंत्री क्या इतिहास को चुनौती दे रहे हैं?


पंजाब के विधानसभा चुनाव से पहले नवजोत सिंह सिद्धू खतरनाक ढंग से शिरोमणि अकाली दल को निपटाने के लिए कमर कस चुके है। इस सिलसिले में उन्होंने बड़ी मेहनत से कैप्टन अमरिंदर सिंह को निपटा दिया, जो साढ़े चार साल तक कांग्रेस सरकार के मुख्यमंत्री बने रहे लेकिन पिछले तीन महीनों में सिद्धू की एक एक कर सजायी गयी फील्डिंग में फंस गए। आखिरकर उन्हें इस्तीफा देना पड़ा। इसके बाद कांग्रेस ने चरणजीत सिंह चन्नी को प्रदेश का मुख्यमंत्री चुना, जो दलित समुदाय से आते हैं।

सुखजिंदर सिंह रंधावा और किसी हिन्दू मुख्यमंत्री की बात चलते-चलते एक दलित को सीएम बनाया जाना केवल वोट का खेल नहीं है। बहरहाल, वर्तमान में सिखों की सबसे मजबूत संस्था अकाल तख्त के मुखिया ज्ञानी हरप्रीत सिंह दलित वर्ग से आते हैं और दूसरी बड़ी संस्था शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक समिति की अध्यक्ष बीबी जागीर कौर पिछड़े वर्ग से आती हैं। इन सबके बीच पंजाब के नये मुख्यमंत्री भी दलित नेता हैं। यहीं से यह सवाल उठता है कि आखिर पंजाब की राजनीति में हिन्दू, सिख और दलित का समीकरण क्या है। इसे समझने के लिए इतिहास को जानना जरूरी है।

दरअसल, पंजाब की सबसे बड़ी खासियत ये है कि यहां हिन्दू और दलित भी खुद को सिख ही मानते हैं, बाकायदे गुरुद्वारे जाते हैं, लंगर चखते हैं, गुरमुखी में लिखते-बोलते हैं। पंजाब की सांस्कृतिक आबोहवा में आप पता ही नहीं कर सकेंगे कि कौन दलित है, कौन सिख है। पगड़ी छोड़ दीजिए तो आप पहचान ही नहीं पाएंगे कि किसे सिख कहें और किसे हिन्दू। लेकिन चुनाव में वोट बंटते हैं। वहीं पता चलता है कि कौन कहां खड़ा है।

इस सबकी शुरूआत 1950 में हुई, जो 1947 में भारत के बंटवारे से उपजी परिस्थिति थी। पंजाब सूबा आंदोलन के तहत एक अलग राज्य की मांग की गयी ताकि सिखों की पहचान को संरक्षित किया जा सके, लेकिन केन्द्र सरकार ऐसा करने के पक्ष में नहीं थी क्योंकि ऐसा करने का मतलब था धार्मिक आधार पर राज्य का विभाजन। तब ऐसी मांग देश में कई क्षेत्रों में हो रही थी जिसे देखकर 1958 में राज्य पुनर्गठन आयोग बनाया गया। इधर पंजाब में हिन्दी को आधिकारिक भाषा घोषित करने की भी मांग चल पड़ी। कई अखबारों ने भी इसमें बड़ी भूमिका अदा की। तब हिन्दी को लेकर पूरे उत्तर भारत में बड़ा जोर था। आजादी के बाद उर्दू, फारसी के खिलाफ बड़ा माहौल तैयार हो चुका था। इसी की प्रतिक्रियास्वरूप दक्षिण में भाषाई आधार पर कई राज्य बने। 1966 में तत्कालीन प्रधानमंत्री ने पंजाब को हरियाणा, हिमाचल प्रदेश और केन्द्रशासित प्रदेश चंडीगढ़ में विभाजित कर दिया।

पंजाब सूबा आंदोलन के साथ अकाली दल राज्य में मजबूती से अपना आधार बढ़ाता चला गया जिससे पंथक और अन्य के राजनीतिक समीकरण तैयार होते चले गए। 1966 में राज्य बनने के साथ अकाली दल सत्ता में आ गया और गुरनाम सिंह पहले मुख्यमंत्री बने। पहले पांच साल में चार मुख्यमंत्री बने। ऐसी स्थिति में राज्य में राष्ट्रपति शासन लगता है और 1972 में हुए चुनाव में कांग्रेस वापसी करती है और ज्ञानी जैल सिंह मुख्यमंत्री बनते हैं। पंजाब में अकाली मूवमेंट तेजी से बढ़ रहा था जिसकी वजह से सरकारें अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पा रही थी. 1977 की इमरजेंसी के बाद हुए चुनाव में प्रकाश सिंह बादल दूसरी बार मुख्यमंत्री बनते हैं, लेकिन केन्द्र में जनता सरकार की विदाई के बाद केन्द्र में इंदिरा गांधी वापस आती हैं और बादल की सरकार को बर्खास्त कर राष्ट्रपति शासन लगता है। कुछ महीनों बाद इंदिरा गांधी के खासमखास दरबारा सिंह पंजाब के मुख्यमंत्री बनते हैं। इस बीच पंजाब की राजनीतिक तस्वीर बदल चुकी होती है। शिरोमणि अकाली दल और कांग्रेस ने अपने सियासी फायदे के लिए जो जाल बिछाया उसमें पंजाब का नुकसान हुआ।

अब तक गुरु ग्रंथ साहिब को गुरु न मानने वाले निरंकारियों और अकालियों में आमने-सामने की जंग शुरू हो चुकी थी. जरनैल सिंह भिंडरांवाले ने 200 लोगों के साथ निरंकारी मिशन के सत्संग पर हमला कर दिया। इस हमले में निरंकारी मिशन के बाबा गुरबचन सिंह तो बच गए लेकिन अकालियों के लीडर फौजा सिंह मारे गए। इस हिंसक झड़प में 15 लोगों की मौत हुई थी। 1978 में एक बार फिर निरंकारियों के सत्संग के दौरान ग्रेनेड हमला हुआ जिसमें 13 लोगों की मौत हो गयी, जिसके बाद तब के अकाल तख्त जत्‍थेदार साधु सिंह ने सभी सिखों को निरंकारियों से संबंध तोड़ने का फरमान सुनाया था।

निरंकारी मिशन की नींव तो 1929 में ही पड़ गयी थी लेकिन आजादी के बाद लोकतांत्रिक प्रक्रिया में उसे विस्तार मिला क्योंकि मजबूत सिखों के बनिस्बत कमजोर और दलित गुरु की तलाश में बाबा गुरबचन सिंह से जुड़ने लगे। ठीक ऐसा ही उभार पूरे पंजाब में देखने को मिलता है। सिख समाज में बढते ऊंच- नीच से कई डेरे अस्तित्व में आए। बाद में पंजाब की राजनीति में डेरों का प्रभाव बढ़ता चला गया। डेरा सच्चा सौदा, राधा स्वामी सत्संग ब्यास, डेरा सचखंड बल्लन, दिव्य ज्योति जागृति संस्थान जैसे तमाम डेरे हैं जिनका असर पंजाब की राजनीति में ही नहीं हरियाणा की राजनीति में भी सीधे तौर पर है। डेरा सच्चा सौदा के गुरु राम रहीम तो हाल फिलहाल अकाल तख्त को खुलेआम चुनौती देते रहे हैं।

आपको याद होगा कि 2017 के चुनाव में हर सर्वे में आम आदमी पार्टी को बढ़त दिखायी जा रही थी। उस वक्त ये हवा थी कि केजरीवाल की पार्टी पंजाब में सरकार बना लेगी लेकिन चुनाव से कुछ दिनों पहले ही खेल बदल गया। इसमें डेरों की अहम भूमिका रही। इस बार भी ज्यादातर डेरे बीजेपी से नाराज हैं, खासतौर पर डेरा सच्चा सौदा। डेरों के अनुयायी पिछड़े और दलित ज्यादा होते हैं। यही वजह है कि अकाली दल ने बीएसपी के साथ गठबंधन किया जबकि कांग्रेस ने दलित मुख्यमंत्री बनाकर डेरों को मजबूत संदेश दिया है।

डेरा सचखंड बल्लन की बात करें तो संत रविदास के मानने वाले इस डेरे का पंजाब और हरियाणा के दलितों के बीच गहरा असर है। जालंधर के गांव बल्लन में इसका मुख्यालय है। जालंधर को दलित लैं।ड भी बोला जाता है और ये पूरा इलाका पंजाब का दोआबा कहलाता है जिसमें दलित बहुलता है। इसी इलाके से सबसे ज्यादा लोग कनाडा और विदेश जाते हैं। पंजाब में दलित रैप कल्चर के गायक भी इसी इलाके में ज्यादा हैं। आजादी के बाद पंजाब में हिन्दी राजभाषा की मांग भी सबसे पहले जालंधर से शुरू हुई थी जिसके बाद से अकाली पंथक और दलितों में सामाजिक दूरी बढ़ती गयी जिसका सबसे ज्यादा फायदा डेरों ने उठाया।

पूरे देश में सबसे ज्यादा दलितों की आबादी पंजाब में ही है लेकिन विडंबना देखिए इन डेरों की वजह से बीएसपी या कोई और दलित पार्टी यहां कभी खड़ी नहीं हो सकी। दलित सिर्फ डेरा प्रमुख के आदेश पर वोट डालते रहे।



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