रामनवमी पर आयोजित भव्य शोभायात्राओं ने आनंदित कम चिंतित अधिक किया। इनके विषय में लिखने से पहले गहन आत्मचिंतन करना पड़ा। स्वयं पर नकारात्मक, निन्दाप्रिय और छिद्रान्वेषी होने का आरोप लगाया। मित्रों, शुभचिंतकों और बुद्धिजीवियों के अनेक कथनों पर गंभीरता से विचार भी किया। दरअसल अहिंसा, सहिष्णुता और उदारता जैसे मूल्यों पर विश्वास करने वाले मुझ जैसे लोग इतने अल्पसंख्यक हो गए हैं कि अनेक बार स्वयं पर और शायद इन मूल्यों की शक्ति पर भी संदेह सा होता है।
रामनवमी के इस आयोजन पर जिन प्रतिक्रियाओं की चर्चा आवश्यक लगती है वे इस प्रकार हैं- ‘रामनवमी की यह शोभायात्रा हिन्दू नवजागरण का उद्घोष है। हिंदुओं ने पहली बार अपनी असली ताकत दिखाई है। इस रामनवमी की यात्रा ने यह संकेत दे दिया है कि जो राम के साथ नहीं है उसके लिए भारत में कोई स्थान नहीं है। इस रामनवमी पर अपने शौर्य का प्रदर्शन कर हमने हिंदुओं पर लगे कायरता के कलंक को धोने की शुरुआत कर दी है।’
प्रकारांतर से कुछ ऐसे ही विचार सोशल मीडिया पर भी पढ़ने को मिले। एक बुद्धिजीवी मित्र की फेसबुक वॉल पर रामनवमी के संदर्भ में पोस्ट किए गए एक कथन ने चौंकाया- “यदि भविष्य में हिंदुत्व का अस्तित्व बचाना चाहते हैं तो साधारण हिन्दू नहीं, कट्टर हिन्दू बनें। यही वर्तमान समय की मांग है।” मैंने उनसे पूछा कि 2014 के बाद से ऐसा क्या बदला है कि हमारी प्राचीन संस्कृति संकट में आ गई है। उनसे हिंदुत्व शब्द के उद्गम और अर्थ पर भी सवाल किया। वे कोई उत्तर नहीं दे पाए पर अपने मत पर दृढ़ रहे। उनकी नाराजगी का खतरा उठाकर मैंने उनसे कहा- हमारी गौरवशाली संस्कृति निश्चित ही खतरे में है और उसे संकट में डालने वाले हिंदुत्व शब्द को गढ़ने और उसके लिए उन्माद पैदा करने वाले लोग ही हैं।
इन भव्य शोभायात्राओं में बहुत कुछ ऐसा था जो खटकने वाला था लेकिन हिंसा को स्वीकार्य बनाने के लिए कट्टरपंथी शक्तियों द्वारा संचालित मानसिक प्रशिक्षण कार्यक्रम शायद पूर्ण हो चुका है और हममें से अधिकांश संभवतः इसमें ए प्लस ग्रेड भी अर्जित कर चुके हैं इसलिए इन शोभायात्राओं का हिंसक, अराजक, आक्रामक और प्रदर्शनप्रिय स्वरूप भी हमें आनंददायी लगा।
यह शोभायात्राएं पूरे देश में निकलीं। इनका पैटर्न इतना मिलता-जुलता था कि इसे हिन्दू समाज के स्वतः स्फूर्त उत्साह और अपने प्रभु राम के प्रति उसकी श्रद्धा की सहज अभिव्यक्ति के रूप में देखना अतिशय भोलापन ही कहा जाएगा। इनके आयोजन की तैयारी किसी चुनावी रैली की भांति की गई थी। हम जानते हैं कि चुनावी रैलियों के “प्रबंधन” की शुरुआत धर्म और नीति को कूड़ेदान में डालने से होती है। स्थानीय राजनेता इन शोभा यात्राओं के “प्रबंधन” में बढ़-चढ़ कर हिस्सा ले रहे थे। समाज के संपन्न और अग्रणी लोगों के पास अपनी धार्मिक आस्था का प्रदर्शन करने के लिए अवकाश भी होता है एवं संसाधन भी इसलिए ऐसे हर आयोजन में उनकी सक्रियता दिखती ही है। हर चुनाव और हर सामाजिक-धार्मिक कार्यक्रम की सफलता में किशोर और युवा वर्ग की भागीदारी भी होती ही है।
बिना पेट्रोल खर्च की चिंता किए तेज मोटरसाइकिल दौड़ाने का अवसर, नई पोशाकों में सजना, विशाल ध्वजों के साथ संतुलन बनाना, जेब खर्च मिलने का आश्वासन और उस नेता की हौसलाअफजाई करती धौल जिससे बात करना भी सपने जैसा लगता है- किसी भी निम्न मध्यमवर्गीय युवा को पागल बना सकते हैं। इसके साथ अब तो युवा जोश और आक्रोश को एक आसान एवं निरीह शिकार भी दे दिया गया है। उसे अल्पसंख्यक वर्ग को उसकी औकात बताने के राष्ट्रीय कर्त्तव्य में लगा दिया गया है।
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लगभग हर प्रदेश में- और आश्चर्यजनक रूप से कांग्रेस तथा अन्य विपक्षी दलों द्वारा शासित प्रदेशों में भी- इन शोभायात्राओं का स्वरूप एक जैसा था- उकसाने, भड़काने और डराने वाला। इन शोभायात्राओं को मुस्लिम-बहुल इलाकों तथा मुस्लिम धर्मस्थलों के निकट से गुजरने की इजाजत निरपवाद रूप से लगभग हर जिले में दी गई। जहाँ कट्टरता का जहर अभी फैल नहीं पाया है वहां मुस्लिम समुदाय ने इन शोभायात्राओं का भरपूर स्वागत-सत्कार किया और कौमी एकता की मिसाल कायम की। अनेक स्थानों पर शोभायात्रा का स्वागत करते मुस्लिम बंधुओं के चेहरे पर भय, सतर्कता और चिंता को स्पष्ट रूप से पढ़ा जा सकता था।
जिन प्रदेशों में कांग्रेस और अन्य विपक्षी दलों की सरकारें हैं वहां उनके पास यह अवसर था कि वह अपने प्रदेश में राम के वास्तविक स्वरूप को प्रकट कर उनके आदर्शों की स्थापना करते गरिमामय आयोजनों को बढ़ावा देते किंतु जिस तरह वे कट्टर हिंदुत्व के समर्थकों के साथ खड़े नजर आए वह चौंकाने वाला और निराशाजनक था। यदि रामनवमी का यह घटनाक्रम कट्टर हिंदुत्व की बढ़ती जनस्वीकृति के आगे हताश कांग्रेस के शरणागत होने का परिचायक है तब तो कांग्रेस के उत्साहवर्धन के लिए कुछ शब्द कहे जा सकते हैं किंतु अगर कांग्रेस साम्प्रदायिकता के रंग में रंगे जाने के लिए लालायित है और रामनवमी के इन आयोजनों में उसे कट्टरता को अपनाने का स्वर्ण अवसर नजर आया है तो यह अक्षम्य है।
देश में अनेक स्थान ऐसे हैं जहां साम्प्रदायिक वैमनस्य और हिंसा का इतिहास रहा है। कट्टरपंथी शक्तियों के अथक प्रयासों से इन ज्ञात और चिह्नित साम्प्रदायिक स्थानों के अतिरिक्त बहुत सारे ऐसे शहर अस्तित्व में आए हैं जहां सतह के नीचे पनप रहे साम्प्रदायिक वैमनस्य को अपना सर उठाने के लिए ऐसे ही किसी भड़काऊ अवसर की तलाश थी। इन स्थानों पर दोनों समुदायों के लोगों में तनाव उत्पन्न हुआ और कानून व्यवस्था की स्थिति बिगड़ी।
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राम शब्द का उच्चारण होते ही जिस शांति, स्थिरता, धैर्य, आश्वासन और अनुशासन का अनुभव होता है उसकी तलाश इन शोभायात्राओं में व्यर्थ थी। राम संकीर्तन की सुदीर्घ परंपरा में अनेक ऐसी पारंपरिक और आधुनिक संगीत रचनाएं हैं जो अपनी कोमलता और मृदुलता के लिए विख्यात हैं और जिनका श्रवण आत्मा के ताप हर लेता है। किंतु इन शोभायात्राओं में किसी देशव्यापी अलिखित अज्ञात सहमति से कुछ निहायत ही ओछे और भड़काऊ नारे लगाए जा रहे थे। यह तय कर पाना कठिन था कि डीजे का शोर अधिक कर्ण कटु और भयानक था या इन नारों के बोल- बहरहाल दोनों का सामंजस्य उस भय को पैदा करने में अवश्य सफल हो रहा था जिसकी उत्पत्ति इन शोभायात्राओं का अभीष्ट थी। यह ध्वनि प्रहार इतना भीषण था कि तुलसी मानस के मर्मज्ञ उन सैकड़ों चौपाइयों और दोहों को क्षतविक्षत पा रहे थे जिन्होंने- “सब नर करहिं परस्पर प्रीति। चलहिं स्वधर्म निरत श्रुति नीति” – के मंत्र को हमारे सामाजिक जीवन का मूल राग बनाने में अहम भूमिका निभाई है।
इन शोभायात्राओं के आक्रामक तेवर के साथ भगवा रंग को संयोजित किया गया था। त्याग, बलिदान, शांति, सेवा एवं ज्ञान जैसी उदात्त अभिव्यक्तियों को स्वयं में समाहित करने वाले भगवा रंग को- “राजतिलक की करो तैयारी, आ रहे हैं भगवाधारी”- जैसे चुनावी नारे में रिड्यूस होते देखकर आश्चर्यचकित होने वाले लोगों को इस पवित्र भगवा रंग के साथ भविष्य में होने वाले हादसों के लिए तैयार रहना चाहिए।
राम की व्यापकता, लोकप्रियता और स्वीकार्यता ने हमेशा इस प्रश्न को गौण बनाया है कि वे इतिहास पुरुष थे या नहीं। राम यदि मॉरिशस, वेस्टइंडीज, अमेरिका, यूरोप, रूस, चीन, जापान, ईरान, इराक, सीरिया, इंडोनेशिया, नेपाल, लाओस, थाईलैंड, वियतनाम, कंबोडिया, मलेशिया और श्रीलंका जैसे देशों में सम्मान एवं श्रद्धा अर्जित करते हैं तो इसका एकमात्र कारण यही है कि राम ने हर देश को अवसर दिया है कि वह उन्हें अपने रंग में रंग ले, अपनी लोक संस्कृति में- अपनी धर्म परंपरा में समाहित कर ले। मंचित और मुद्रित रामकथाओं का वैविध्य असाधारण एवं चमत्कृत करने वाला है और ऐसा केवल इस कारण है कि राम ने स्वयं को सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की संकीर्णता में कभी नहीं बांधा। वे जिस देश में पहुंचते हैं वहीं के होकर रह जाते हैं। बल्कि यह कहना उचित होगा कि हर देश प्रेरणा और आश्वासन के लिए अपना राम गढ़ लेता है। कितनी ही भाषाओं के कवि राम से प्रेरित हुए हैं, कितनी ही भाषाओं में रामकथा रची और गाई गई है, हर कवि ने राम को अपने ढंग से गढ़ा-समझा है। ऐसे व्यापक और उदार राम पर कोई संगठन, दल, विचारधारा या संप्रदाय अपना ठप्पा लगाने की चेष्टा करेगा तो यह निश्चित जानिए कि वह राम का रामत्व छीन रहा है। वह उन्हें किसी जन्म भूमि, किसी मंदिर, किसी रंग में बांधना चाहता है।
बंधुत्व एवं मैत्री के पोषक शांतिप्रिय राम का उपयोग हिंसा के लिए करना शर्मनाक, अशोभनीय और निंदनीय है। पता नहीं हिंसक नारे लगा रहे नवयुवकों ने रामचरित मानस को हाथ भी लगाया है या नहीं लेकिन इतना तो तय है कि उन्होंने हिंसा के लिए अनिच्छुक राम को जरा भी नहीं समझा है। हमेशा संवाद और शांति के हर प्रयत्न के विफल होने के बाद ही राम विवश होकर शस्त्र उठाते हैं। वे युद्धप्रिय नहीं हैं, युद्ध उन पर थोपा गया है। जो राम को शत्रु समझ रहा है उसके प्रति भी राम के मन में करुणा है।
हमारे देश में राम की आलोचना-समालोचना कम नहीं हुई है। अनीश्वरवादियों और तर्कवादियों ने उन्हें सामंतवाद के प्रतिनिधि और वर्ण व्यवस्था के पोषक के रूप में चित्रित किया है। दलित, आदिवासी और स्त्री विमर्श से जुड़े अनेक अध्येता राम के चरित्र को कभी अपना आदर्श स्वीकार नहीं कर पाए। किंतु राम के इन आलोचकों ने भी राम को तलवार के जोर पर अपने धर्म को सर्वश्रेष्ठ सिद्ध करने वाले युद्धोन्मादी के रूप में चित्रित नहीं किया क्योंकि राम का चरित्र ऐसा है ही नहीं। लेकिन यह कार्य उनके कथित भक्तों ने बहुत निर्लज्जतापूर्वक कर दिखाया है।
पूरे देश में निकली राम शोभा यात्राओं में एक दृश्य समान था- प्रत्येक समाज की टोली का नेतृत्व तलवारें लहराती महिलाएं और किशोर-किशोरियां कर रहे थे। वीर और वीरांगनाओं की मुद्रा में तलवार के साथ सेल्फी लेना निश्चित ही रोमांचक रहा होगा, लेकिन हम सब यह भूल रहे हैं कि तलवार जब चलती है तो एक जीवन समाप्त हो जाता है, कोई माँ अपना बच्चा खो देती है, कोई स्त्री विधवा हो जाती है, कोई बच्चा अनाथ हो जाता है, कोई परिवार उजड़ जाता है। विनम्रता राम के व्यक्तित्व का आभूषण था। तलवार लहराते हुए अल्पसंख्यक समुदाय को धमकी देने वाली भीड़ को देखकर राम निश्चित ही आहत हुए होंगे।
बाबरी मस्जिद, राम मंदिर और हिन्दी समाज: आनंद स्वरूप वर्मा से लंबी बातचीत
आपसे बहुत कुछ छीना जा चुका है। गांधी, सुभाष, आंबेडकर, पटेल, भगत सिंह सबके सब भव्य मूर्तियों और स्मारकों में कैद किए जा चुके हैं। इनके विचारों की हत्या की जा रही है। इन पर अब विचारधारा विशेष के अनुयायियों का पेटेंट और कॉपीराइट है।
अब बारी मर्यादा पुरुषोत्तम राम की है। अमर्यादित हिंसा के समर्थक और नफरत के सौदागर आपसे आपके राम को छीनना चाहते हैं। अभी देर नहीं हुई है। अपने पूजाघरों में करुणामय नेत्रों और आश्वासनदायी सस्मित मुस्कान वाली राम की छवि को तलाशिए। विशाल धार्मिक साम्राज्य के संचालक धर्मगुरुओं की बातों पर भरोसा मत कीजिए। उनके आर्थिक हित और राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं उन्हें मजबूर कर रही हैं कि वे सत्ता के राम को ही असली राम के रूप में प्रस्तुत करें। राम से मिलने के लिए किसी बिचौलिये या मध्यस्थ की आवश्यकता नहीं है। वह आपके निकट ही हैं; जब भी आप अराजक, उच्छृंखल, हिंसक और युद्धोन्मादी होने की ओर बढ़ते हैं तब आपके अंदर बैठे राम शील, शालीनता, विनम्रता, प्रेम, दया, करुणा और क्षमा का संदेश देते हैं। उनके स्वर को अनसुना मत करिए।
लेखक छत्तीसगढ़ के रायगढ़ स्थित स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं