अन्ततः कर्नाटक उच्च न्यायालय के न्यायाधीश कृष्णा दीक्षित को अपनी उस विवादास्पद टिप्पणी को हटाना पड़ा जो उन्होंने बलात्कार के एक मामले में संदिग्ध को ज़मानत देते हुए कही थी। अब संशोधित आदेश में कहा गया है कि ‘‘राज्य के अपील को ध्यान में रखते हुए तथा इसे लेकर याचिकाकर्ता के भी नो आब्जेक्शन कहने के बाद, मैं यह वाजिब समझता हूं कि 22 जून के मेरे फैसले में जो आखिर की चार लाइनें थीं, उन्हें हटा दिया जाए।’
आखिर ऐसी क्या बात थी कि दस दिन के भीतर ही न्यायाधीश महोदय को अपने ही फैसले को संशोधित करके रखना पड़ा?
ध्यान रहे कुछ दिन पहले 22 जून को कर्नाटक उच्च न्यायालय के न्यायाधीश जस्टिस कृष्णा दीक्षित ने बलात्कार के एक मामले में संदिग्ध को जमानत दी थी। दरअसल, राकेश बी. बनाम कर्नाटक राज्य के इस मुकदमे में न्यायाधीश महोदय ने बलात्कार के अभियुक्त को गिरफ्तारी पूर्व जमानत देते हुए कहा था कि शिकायतकर्ता उस कथित अपराध के बाद सो गयी थी ‘‘जो एक स्त्री के लिए अशोभनीय है; यह वह तरीका नहीं है जैसी कि हमारी महिलाएं व्यवहार करती हैं जब उन्हें प्रताडित किया जाता है।’’
अदालत ने इस बात पर भी सवाल उठाया कि वह अपने दफ्तर रात को 11 बजे क्यों गयी थी; उसने डिक्रस लेने से इन्कार क्यों नहीं किया और उसने देरी से अदालत का दरवाजा क्यों खटखटाया, आदि।
उनके इस वक्तव्य को लेकर पूरे सूबे में जबरदस्त हंगामा खड़ा हो गया था।
जनदबाव को मद्देनज़र रखते हुए खुद राज्य सरकार ने भी न्यायालय से अपील की कि वह उन टिप्पणियों पर पुनर्विचार करें वरना आने वाले दिनों में बलात्कार के मामले में न्याय करना मुश्किल होगा।
कर्नाटक उच्च न्यायालय के इस फैसले ने 70 के दशक में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा मथुरा काण्ड को लेकर दिए विवादास्पद फैसले की याद ताज़ा की थी, जिस केस में कुछ पुलिसकर्मियों ने 15 साल की आदिवासी लड़की मथुरा पर सामूहिक बलात्कार किया था। इस मामले में अदालत ने सत्र न्यायालय के इस निर्णय पर अपनी मुहर लगायी थी जिसमें पीड़िता की नैतिकता को प्रश्नांकित करते हुए तथा यह कहते हुए कि ‘‘वह यौन सहवासों की आदी थी’’ अभियुक्तों रिहा किया गया था। इस फैसले ने राष्ट्रव्यापी आक्रोश को जन्म दिया था।
1979 में जब मथुरा बलात्कार काण्ड का फैसला आया था तो उपेन्द्र बक्शी जैसे देश के चार अग्रणी न्यायविदों ने फैसले को चुनौती देते हुए सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के नाम एक खुला पत्रा लिखा था। यह एक अभूतपूर्व कदम था जिसे ‘अदालत की अवमानना’ की श्रेणी में भी शुमार किया जा सकता था, मगर इस पत्र ने एक देशव्यापी बहस और आन्दोलन को जन्म दिया, जिसकी वजह से सरकार को बलात्कार कानून में संशोधन के लिए मजबूर होना पड़ा था।
1983 में सामने आए संशोधनों के बाद जब नया कानून बनाया गया तो इसमें इन पहलुओं के प्रति पर्याप्त संवेदनशीलता बरती गयी। इसके अलावा हमारे पितृसत्तात्मक समाज में जिस तरह बलात्कार के बाद पीड़िता के ही सामाजिक बहिष्कार की स्थिति बनती दिखती है, उसे मद्देनज़र रखते हुए, सर्वोच्च न्यायालय ने पीड़िता की पहचान को गोपनीय रखने पर ही हमेशा जोर दिया था।
इसे महज संयोग कह सकते हैं कि न्यायाधीश दीक्षित के इस फैसले के खिलाफ तथा बलात्कार जैसी विकारग्रस्त हिंसा में न्याय को सुनिश्चित करने और न्यायपालिका के फैसलों से निःसृत होती नारीविरोधी भावना को रेखांकित करने के लिए जाने-माने जनबुद्धिजीवी रामचंद्र गुहा, अभिनेत्री एमडी पल्लवी और स्त्री जागृति समिति, महिला मुन्नादे, आल इंडिया प्रोग्रेसिव वूमेन्स एसोसिएशन, पीयूसीएल आदि द्वारा एक खुला पत्र कर्नाटक उच्च अदालत के नाम जारी किया था, जिसने इस बहस को नयी ऊंचाइयों तक पहुंचाया था।
खुले पत्र में लिखा गया था कि अदालत के इस आदेश ने ‘हम सभी को बेहद विचलित और निराश किया है जो विगत कई दशकों से हमारी सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था यहां तक कि हमारी न्यायपालिका में ही गहरे घर की हुई पितृसत्ता की भेदभावजनक संरचनाओं को जड़ से उखाड़ने के प्रयास में लगे हैं। विडम्बना ही है कि इन तमाम कोशिशों के बावजूद ऐसी स्त्रियां जो आज़ाद रहने का निर्णय लेती हैं और अपनी जिन्दगियों के बारे में खुद तय करती हैं, जिसमें उनके आत्मीय सम्बन्ध भी शामिल होते हैं, उन्हें ‘ढीली नैतिकता और चरित्र’’ की स्त्री के तौर पर देखा जाता है।’’
जनबुद्धिजीवियों के खुले पत्र ने इस बात को भी रेखांकित किया था कि यह आदेश निर्भया मामले में- जब पूरा मुल्क स्त्री-विरोधी हिंसा को सुनिश्चित करने के लिए उबल पड़ा था- जस्टिस वर्मा कमेटी ने जेण्डर के अनुकूल जिस न्यायप्रणाली को सुनिश्चित करने की बात की थी और कहा था कि ‘‘कार्यसंस्कृति को सुधारने के लिए हमें शासन की संस्थाओं में व्यवहारगत बदलाव लाने होंगे ताकि जेण्डर पूर्वाग्रहों की कमी को दूर किया जा सके तथा नागरिक समाज में भी सामाजिक नियमों को संविधान के ‘‘समानता’’ के वायदे में निहित ढाला जा सके’’!
हम सभी जानते हैं कि संविधान की धारा 15 और 15 (1) जो स्त्रियों और बच्चों की समानता को सुनिश्चित करने का वायदा करती है और संविधान की धारा 51(ए)ई जो कहती है कि हर नागरिक का यह कर्तव्य होगा कि वह स्त्रियों के लिए असम्मानजनक व्यवहारों का परित्याग करे बाईस जून के कर्नाटक उच्च अदालत का फैसला इस कड़वी सच्चाई को ही उजागर कर रहा था कि हम सभी इस वायदे से अभी कितने दूर खड़े हैं।
गनीमत है कि वक्त़ रहते अदालत ने अपने संशोधित फैसले को दिया है और एक तरह से कहें कि यह बात नए सिरे से साबित हुई है कि अगर हम अपना प्रतिरोध जारी रखें तो फिर कितनी भी बड़ी ताकत न हो, उसे झुकना ही पड़ता है।