यहां मैं बस इस एंगल पर ही कुछ बातें रखूंगा। भगत सिंह की विचारधारा आदि पर नहीं। गांधी की विचारधारा आदि पर भी नहीं। निश्चित ही, मेरा झुकाव गांधी की तरफ रहेगा। इसका कारण यह है कि मुझे अपनी सीमित बौद्धिक क्षमता से लगता है कि हर बात पर बैलेंस बनाने की कोशिश हमें निरर्थक प्रलाप की ओर ले जाती है।
गांधी पर हमला करने के लिए कुछ सूत्र वाक्य जो बोल दिए जाते हैं उसमें एक यह भी है कि अगर गांधी चाहते तो भगत सिंह की फांसी टल/रुक सकती थी। ऐसा गांधी को बुरा/बदनाम साबित करने के लिए कहा जाता रहा है।
गांधी, क्रांति/अंग्रेजी राज को उखाड़ने/सामाजिक बदलाव, के लिए हिंसा आधारित चिंतन के बहुत पहले से विरोधी हो गए थे। वह यह बात भलीभांति समझ चुके थे कि हिंसा के रास्ते कुछ सकारात्मक हो सकना भारत में लगभग असम्भव है। हिंसा मतलब जिसमें अस्त्र-शस्त्र का प्रयोग करके विरोधी को मार देना। हिन्द स्वराज में गांधी सार्वजनिक जीवन मे हिंसा को छूट देने वाले स्कूल (विचार) को ही खारिज करते हैं और इसीलिए वह पुस्तिका लिखी थी। भारत आकर भी गांधी ने हिंसा स्कूल के खिलाफ गहन वैचारिक संघर्ष चलाया। कोई भावुक जैनी मानवता आधारित नहीं बल्कि ठोस तथ्यात्मक व व्यवहारिक ढंग से।
भगत सिंह की सोच कभी भी व्यवस्थित हिंसक स्कूल वाली नहीं थी लेकिन कार्य के स्तर पर उसमें हिंसा थी। तो एक तरह से भगत सिंह की रणनीति (जो उन्होंने किया उस लिहाज से) गांधी की रणनीति से अलग बल्कि विरोध में थी। कहने का मतलब यह है कि भगत सिंह के कार्यों को सही ठहराने की जिम्मेदारी कम से कम गांधी की नहीं थी। और साफ कहूं तो गांधी पर भगत सिंह को बचाने की कोई नैतिक जिम्मेदारी भी नहीं थी। न ही भगत सिंह ने गांधी की जानकारी में या गांधी से पूछकर अपनी राजनीतिक हिंसा की कार्यवाहियां की थीं। तो गांधी पर भगत सिंह को बचाने का नैतिक उत्तरदायित्व कहां से आ जाता है?
अब दूसरी बात यह है कि राजनीति में कोई भी नेतृत्व अपनी रणनीति पर समझौता नहीं कर सकता। ब्रिटिश औपनिवेशिक नेतृत्व एक मजबूत व कठोर प्रशासनिक ढांचे पर टिका था। उस ढांचे को भगत सिंह के कार्य ने शारीरिक हिंसा से क्षति पहुंचायी थी। भगत सिंह को छोड़ देने का मतलब होता कि ब्रिटिश सरकार उस डाल को ही काट देती जिस पर वह बैठी थी। वह भगत सिंह को छोड़ ही नहीं सकती थी क्योंकि इससे उसके इकबाल को बट्टा लग जाता।
एक गुंजाइश थी कि भगत सिंह माफीनामा लिख देते तो ब्रिटिश हुकूमत को एक तर्क मिल जाता छोड़ने का, पर भगत सिंह सच्चे क्रांतिकारी थे तो माफी का सवाल ही कहां था। अपने किये कार्य की जिम्मेदारी लेना हर सच्चे इंसान की पहचान होती है। भगत सिंह सच्चे इंसान थे, कोई ढोंगी नही। तो ब्रिटिश सरकार के पास भगत सिंह को माफ करने का राजनीतिक/प्रशासनिक विकल्प ही मौजूद नहीं था।
गांधी ने भगत सिंह को फांसी से बचाने की निजी कोशिश की। उन्होंने वायसराय को हर तरह से समझाने की कोशिश की कि भगत सिंह की सजा को कम कर दिया जाए, लेकिन गांधी इस बात को केवल निजी तौर पर ही कह सकते थे न कि इसको एक आंदोलन की धमकी की तरह। हिंसक स्कूल की किसी भी कार्यवाही के लिए उसे सजा से बचाने के लिए अंग्रेज हुकूमत पर आंदोलन का दबाव बनाना गांधी की रणनीति के खिलाफ था। कोई भी नेता अपनी रणनीति नही छोड़ सकता। गांधी भी भगत सिंह को बचाने के लिए अपनी रणनीति दांव पर नहीं लगा सकते थे। कहने का आशय यह है कि गांधी के सामने भगत सिंह को किसी भी तरह से बचाने का विकल्प ही मौजूद नहीं था। वह एक राजनेता के रूप में इस मसले को हल ही नहीं कर सकते थे। निजी तौर पर जितना कर सकते थे उससे ज्यादा ही उन्होंने किया।
भगत सिंह पूरे देश में बहुत लोकप्रिय थे और फांसी के बाद तो बहुत ही लोकप्रिय हो गए थे। गांधी उनकी फांसी के कारण लोगों की आलोचना के केंद्र में आ गए। सबको लगता था कि गांधी जो चाहें कर सकते हैं और उन्होंने जान-बूझ कर भगत सिंह को नहीं बचाया। खासकर युवाओं में बड़ा रोष था। उसी समय कराची में कांग्रेस का अधिवेशन था। पंजाब और आसपास के इलाकों में तो सबसे ज्यादा गुस्सा था। गांधी सबके निशाने पर थे। कुछ लोगों ने अधिवेशन को टालने तक की बात कही कि कहीं कोई अप्रिय घटना न घट जाए। विरोध प्रदर्शन भी हो रहे थे, लेकिन गांधी ट्रेन से कराची गए और हर विरोध प्रदर्शन का सामना किया।
कराची रेलवे स्टेशन पर भारी संख्या में युवा गांधी का विरोध करने के लिए जमा थे। गांधी ने निहत्थे अविचलित रहकर बिना सुरक्षा उन युवाओं के गुस्से का सामना किया। काले फूल माला दिए गए, उन्होंने स्वीकार किया। धक्कामुक्की भी हुई। गांधी ने खुद को भगत सिंह की फांसी के दर्द में शामिल किया और सच में वह भी देश के तमाम लोगों की तरह बहुत दुखी थे लेकिन वे मजबूर भी थे कि भगत सिंह को बचाने के लिए जो उन्होंने किया उससे ज्यादा वो कर ही नहीं सकते थे।
गांधी की राजनीति/रणनीति का एक खास पहलू था- जो करो उसकी जिम्मेदारी खुद लो, दूसरों पर जिम्मेदारी मत थोपो, अपने कार्य से जो फल निकले उसे सहर्ष स्वीकार करो, दूसरे के कंधे पर बंदूक मत रखो। गांधी ने असीम साहस और खुलेपन से भगत सिंह की फांसी से उपजी स्थितियों का सामना किया। उन्होंने साफ-साफ कहा कि भगत सिंह एक महान क्रांतिकारी व सच्चे देशभक्त थे, लेकिन उनका रास्ता गलत था।
इसलिए भगत सिंह की फांसी सही थी या गलत, इस पर तमाम बातें हो सकती हैं, लेकिन भगत सिंह की फांसी के लिए गांधी कहीं से जिम्मेदार नहीं थे। गांधी पर निरर्थक आक्रमण करने के लिए उन्हें जिम्मेदार साबित करने की कोशिश की जाती है।



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