फ़ैसल खान की गिरफ़्तारी साझा संस्कृति के नये नारे की जरूरत को रेखांकित करती है


कैसे कैसे मंज़र सामने आने लगे हैं
गाते गाते लोग चिल्लाने लगे हैं 
अब तो इस तालाब का पानी बदल दो
यहां के फूल अब कुम्हलाने लगे हैं

दुष्यंत कुमार

सत्तर के दशक के मध्य में गुज़र गए जाने-माने कवि और गज़लकार दुष्यंत की यह रचना नए सिरे से मौजूं हो उठी है। ताज़ा मसला चर्चित गांधीवादी कार्यकर्ता फैसल खान की गिरफ्तारी का है, जो खुदाई खिदमतगार नामक संगठन के संस्थापक सदस्य हैं और जिन्होंने अनोखे तरीके से अपनी जिन्दगी का अच्छा-खासा हिस्सा साम्प्रदायिक सद्भाव को बढ़ावा देने में लगाया है। ख़बरों के मुताबिक उन्हें समुदायों में दुर्भावना को बढ़ावा देने तथा ‘धार्मिक भावनाएं आहत करने’ के लिए गिरफ्तार किया गया है। न केवल फैसल, बल्कि उनके तीन साथियों पर भारतीय दंड संहिता की धारा 153ए, धारा 295 और धारा 505 के तहत मुकदमा दर्ज किया गया है।

यह गिरफ्तारी दिल्ली के जामिया नगर में स्थित ‘सबका घर’- जो खुद फैसल खान द्वारा स्थापित सांप्रदायिक सद्भाव केन्द्र है जहां विभिन्न आस्थाओं, धर्मों के लोग साथ रहते हैं तथा अपने-अपने त्यौहारों को पूरे जोशोखरोश के साथ मिल कर मनाते हैं- से यूपी पुलिस ने की है।

आज़ादी के पहले सीमांत गांधी नाम से मशहूर खान अब्दुल गफ्फार खान द्वारा स्थापित संगठन ‘खुदाई खिदमतगार’ को एक तरह से पुनर्जीवित करने वाले फैसल खान की इस गिरफ्तारी की व्यापक निंदा हुई है। ‘प्यार और भाईचारे के संदेशवाहकों का स्थान जेल नहीं होता’ इस बात को रेखांकित करते हुए ‘जनांदोलनों के राष्ट्रीय समन्वय’ की तरफ से जारी बयान में उनके खिलाफ जारी ‘दुर्भावनापूर्ण तथा पूर्वाग्रहप्रेरित एफआइआर’ वापस लेने की मांग की गयी है। इस बयान में यह भी जोड़ा गया है कि किस तरह यह गिरफ्तारी 25 से 29 अक्‍टूबर के दरमियान मथुरा के ब्रज इलाके में इस समूह द्वारा की गयी चौरासी कोसी परिक्रमा के अन्त में की गयी है। इस परिक्रमा का मकसद सांप्रदायिक सद्भाव को ही बढ़ावा देना था। यह एक ऐसी यात्रा थी जब फैसल खान तथा उनके साथियों के दस्ते ने रास्ते में आने वाले प्रार्थनास्थलों को भेंट दी, स्थानीय संतों और पुरोहितों से आशीर्वाद मांगें, उनके साथ धर्म के मसले पर बातचीत की।

ऐसा प्रतीत होता है कि उनके खिलाफ जिन लोगों ने प्रथम सूचना रिपोर्ट दायर की, उन्हें यात्रा के अंत में टीम द्वारा की गयी नंदबाला मंदिर की यात्रा नागवार गुज़री, जहां फैसल खान तथा उनके सहयोगियों ने ‘सभी धर्मों का एक ही संदेश’ के मसले पर मंदिर के पुरोहित से गुफ्तगू की और उन्हीं के आग्रह पर कथित तौर पर मंदिर परिसर में नमाज़ अदा की थी, जैसा कि इस प्रसंग का वायरल वीडियो स्पष्ट करता है।

उम्मीद की जानी चाहिए कि न्यायपालिका इस मसले पर अधिक सहानुभूतिपूर्वक ढंग से विचार करेगी, अलग-अलग समुदायों के बीच आपसी संवाद कायम करने हेतु फैसल खान द्वारा किए जा रहे तमाम प्रयासों पर गौर करेगी। आज के विघटन के समय में संविधान के सिद्धांतों एवं मूल्यों की हिफाज़त के लिए चल रही इन कोशिशों की अहमियत को समझेगी। इतना ही नहीं, वह पुलिस द्वारा दायर आरोपों में मौजूद अंतर्विरोधों को भी रेखांकित करेगी जहां सांप्रदायिक सद्भाव तथा अमन के लिए 84 किलोमीटर परिक्रमा पर निकले लोग किसी की धार्मिक भावनाओं को आहत करने के लिए जिम्मेदार बताये जा रहे हैं। वह फैसल खान के जीवन एवं संघर्षों पर भी गौर करेगी जिन्होंने अपनी कोशिशों से दक्षिण एशिया के इस हिस्से में अपनी अलग पहचान कायम की है। वह न केवल अलग-अलग धर्मों की ‘पवित्र किताबों’ के ज्ञान के लिए जाने जाते हैं, बल्कि भारत के अन्दर ही नहीं पाकिस्तान के दरमियान भी तमाम रैलियों के आयोजन के लिए जाने जाते हैं ताकि समुदायों, समूहों, मुल्कों के बीच आपसी सद्भाव बढ़े। वह तथा उनकी टीम के सदस्य प्राकृतिक आपदाओं के बाद या सांप्रदायिक हिंसा की घटनाओं के बाद वहां राहत कार्य करने के लिए भी जाने जाते हैं। घरेलू कामगारों की समस्याओं पर जूझने से लेकर कूड़ा बीनने वाले कामगारों की समस्याओं पर भी वह संघर्षरत रहे हैं।

संभव है कि न्यायपालिका सर्वोच्च न्यायालय के दो साल पहले आए एक अहम फैसले को भी मद्देनज़र रखेगी जिसके तहत मशहूर क्रिकेटर महेंद्र सिंह धोनी के खिलाफ आपराधिक संहिताओं में कायम मुकदमे को सिरे से खारिज किया था। मालूम हो कि किसी पत्रिका के कवर पर भगवान विष्णु के रूप में धोनी की तस्वीर छपी थी, जिसे देख कर किसी शख्स ने धार्मिक भावनाएं आहत होने के नाम पर धोनी तथा पत्रिका के संपादक के खिलाफ आंध्र प्रदेश की किसी अदालत में भारतीय दंड संहिता की धारा 295 (किसी पूजा स्थान को नुकसान पहुंचाना ताकि धर्मविशेष को अपमानित किया जा सके) और धारा 34 के तहत केस दायर किया था।

न्यायमूर्ति दीपक मिश्रा, न्यायमूर्ति ए एम खानविलकर और न्यायमूर्ति एम एम शांतनागौडार की अदालत ने न केवल इस केस पर गौर करने के लिए नि‍चली अदालतों को लताड़ लगायी बल्कि एक स्‍वर में कहा कि धोनी तथा पत्रिका के संपादक के खिलाफ ऐसा कोई भी कदम ‘न्याय के साथ खिलवाड़ होगा’। 

यह पूरा प्रसंग सांप्रदायिक सद्भाव के लिए सक्रिय कार्यकर्ताओं के अपराधीकरण की परिघटना को उजागर करता है। दरअसल, यह सिलसिला समन्वय पर आधारित हमारी संस्‍कृति के अहम हिस्से को जान-बूझ कर मिटा देने जैसा है। यही वह मुल्क है जहां सूफी मज़ारों पर दर्शन के लिए हिन्दू एवं मुसलमान कंधे से कंधा मिला कर पहुंचते रहे हैं; यह वही मुल्क है जहां काबुल में जन्मा कोई पश्तून सैयद इब्राहिम हिंदी पट्टी में ‘रसखान’ जैसे कवि के तौर पर मशहूर होता है जिसने कृष्ण की भक्ति में तमाम गीत लिखे, जिसने अपने निजी धर्म से ताउम्र कभी तौबा नहीं की।

आज के समय में समूचे वातावरण में जिस कदर विषाक्तता फैली है, उसका अंदाजा डाक्टर अनिल सिंह के एक वक्तव्य में मिलता है, जो चर्चित कवि हैं और फैजाबाद विश्वविद्यालय में अध्यापक हैं। एक पत्रकार से बात करते हुए उन्होंने बताया कि आज के ‘‘दिमागी तौर पर दिवालिया राजनेताओं की निगाह में’’ रामचरितमानस के रचयिता खुद ‘‘दोषी’’ ठहराये जाते क्योंकि वह धार्मिक एकता की बात करते थे। अवधी में लिखी उनकी इस रचना की चर्चा करते हुए उन्होंने यह बात कही थी।

धूत कहौ, अवधूत कहौ, रजपूतु कहौ, जोलहा कहौ कोऊ।
काहू की बेटीसों बेटा न ब्याहब, काहूकी जाति बिगार न सोऊ।।
तुलसी सरनाम गुलामु है राम को, जाको रुचौ सो कहै कछु ओऊ।
माँगि कै खैबो, मसीत को सोइबो, लैबोको एकु न दैबको दोऊ।।

(चाहे कोई हमें धूर्त कहे या संन्यासी, राजपूत कहे या जुलाहा, हमें इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। हमें किसी की बेटी से अपना बेटा नहीं ब्याहना है कि वह अपनी जाति बिगड़ जाने से डरे। तुलसीदास जी कहते हैं कि हम तो श्रीराम के गुलाम हैं। अब जिसको जो भला लगता हो, वह वही कहने के लिये स्वतंत्र है। हमारी तो जीवनशैली ही यह है कि हम भिक्षा मांगकर खाते हैं और मस्जिद में जाकर सो लेते हैं। हमें किसी से कोई लेना-देना नहीं है।)

प्रश्न उठता है कि फैसल खान जैसे लोगों की कोशिशें- जो आपसी मेलमिलाप की बात करती हैं- वह आखिर हुक्मरानों को क्यों नागवार गुजरती हैं? दरअसल, अगर धर्मविशेष को अपनी सियासत का आधार बनायी ताकतों के लिए, जो उसी बुनियाद पर समाज के ही अन्य लोगों को- जो अलग आस्थाओं के हों- जब सारतः दोयम दर्जे पर धकेलना चाहती हैं, उनके लिए विभिन्न धर्मों में एकता के सूत्र ढूंढने वाले लोग ही दुश्मन न घोषित किए जाएं तो क्या आश्चर्य?

इस मामले में 70 साल से अधिक वक्त पहले अलग-अलग हुए दोनों मुल्कों- भारत और पाकिस्तान- की आज की यात्रा हमकदम होते चलती दिख रही है। खुद पाकिस्तान, जहां सदियों से सूफीवाद का बोलबाला रहा है, सूफी संतों की मज़ारों पर हजारों-लाखों की तादाद में लोग पहुंचते रहे हैं, वे सूफी मजारें विगत एक दशक से अधिक वक्त़ से इस्लामिस्टों के निशानें पर आयी हैं तथा उनके अतिवादियों द्वारा किए जा रहे हमलों में सैकड़ों निरपराध लोग मारे जा चुके हैं।

वैसे, भारत के अन्दर तेजी से बदलता यह घटनाक्रम दरअसल सदिच्छा रखने वाले तमाम लोगों- जो तहेदिल से सांप्रदायिक सद्भाव कायम करना चाहते हैं, जहां सभी धर्मों के तथा नास्तिकजन भी मेलजोल के भाव से रह सकें- के विश्वदृष्टिकोण की सीमाओं को भी उजागर करता है। ऐसे लोग, जो मानते हैं कि धार्मिक पहचानों के हथियारीकरण के मौजूदा समय में साझी विरासत की बात करना एक तरह से इसकी काट हो सकता है।

यह मालूम है कि साझी विरासत की समूची संकल्पना का अलग संदर्भ एवं इतिहास रहा है। यह संकल्पना दरअसल उपनिवेशवाद विरोधी संघर्ष के दौरान आगे बढ़ी थी। आज़ादी के आन्दोलन की अगुवाई करने वाले नेताओं के सामने यह चुनौती थी कि इतने विशाल भूखंड में फैली इतनी बड़ा आबादी को- जिसने इसके पहले किसी आन्दोलन में हिस्सा नहीं लिया था- एक ऐसे दुश्मन के खिलाफ कैसे एकत्रित किया जाए तो उन्नत स्तर पर हो। पचास के दशक में प्रकाशित राष्‍ट्रकवि दिनकर की किताब ‘संस्‍कृति के चार अध्याय’ की प्रस्तावना में तत्कालीन प्रधानमंत्राी नेहरू ने इस तथ्य को रेखांकित भी किया था कि किस तरह ‘भारतीयों की संस्‍कृति साझा है और वह रफ्ता-रफ्ता विकसित हुई है।’

आज की तारीख़ में समूचे मुल्क में जिस तरह का वातावरण बना है, उसमें इस बीते दौर की संकल्पना का आदर्शीकरण करना भी उचित नहीं है, इसे रामबाण मानना एक तरह से इस दौर की नयी खासियतों की अनदेखी करना है। हाल के दिनों में इसी विरासत पर एक दूसरे कोण से सवाल उठ रहे हैं।

अपनी किताब ‘‘मेलीवोलन्ट रिपब्लिक’ में पत्रकार के एस कोमीरेड्डी ‘‘पूर्व-औपनिवेशिक अतीत के साफसुथराकरण” पर सवाल उठाते हैं और पूछते हैं कि अपने अतीत को लेकर असहज प्रश्नों को पूछने से हम क्यों बचते हैं? प्रो. उपिंदर सिंह रिसर्च पर आधारित अपनी किताब ‘पॉलिटिकल वायलेन्स इन एंशंट इंडिया’ में बताती हैं कि ‘‘सामाजिक एवं राजनीतिक हिंसा झेलने वाले समाज के बीच चुनिंदा निर्मित तथ्यों के आधार पर एक शांतिप्रेमी, अहिंसक भारत की तस्वीर/आत्मछवि का निर्माण किया गया है।’’ उनके मुताबिक आज़ादी के आन्दोलन के अग्रणियों ने ‘‘अहिंसक प्राचीन भारत की छवि का निर्माण किया जो उसकी संश्लिष्ट एवं पीड़ादायी विरासत’’ को धुंधला कर देती है।

फिलवक्त जब हम ‘प्यार एवं भाईचारे एवं अमन’’ के हिमायती खुदाई खिदमतगार को झेलनी पड़ रही प्रताड़नाओं पर विचार कर रहे हैं और यह कामना कर रहे हैं कि उन्हें जल्द से जल्द इससे मुक्ति मिले, इसी बहाने उस बहस को भी आगे ले जाना जरूरी है कि आज के समय में धर्म और राजनीति के खतरनाक संश्रय के खिलाफ हम किस तरह आगे बढ़ाना चाहते हैं। सांप्रदायिकता के खिलाफ तथा समाज एवं राज्य के धर्मनिरपेक्षीकरण के इस संघर्ष के नये नारे क्या होंगे?


लेखक वरिष्‍ठ पत्रकार और अनुवादक हैं

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