ऐसी MSP योजना जो खेती का उद्धार करे


किसानों का संघर्ष जारी है। यह राजनीतिक सत्ता हासिल करने का संघर्ष नहीं है। यह संघर्ष है भारत की खेती और खेतिहर आबादी के बहुत बड़े हिस्से की आजीविका और रहन सहन को बेहतर करने का जो देश के ज्यादातर हिस्सों में बहुत ही बुरी दशा में है। इसलिए यह निहायत जरूरी हो गया है कि इस शांतिमय जनांदोलन को एक नई दिशा दी जाए ताकि छोटी खेती किसानी में जान आए। अगर ऐसा हो सका तो इससे हमारा लोकतंत्र भी सार्थक और जनहितकारी हो सकेगा। किसानों की आमदनी दोगुना करने के सरकारी झांसे और बाजारवादी बदलावों के भुलावों से इतर हम न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) तय करने का एक नया तरीका पेश कर रहे हैं।

लेखक

पृष्ठभूमि

हमारे समाज में मौजूद गहरी विभाजक रेखाओं के बावजूद हाल के किसान आंदोलन के क्रम में बनी जबर्दस्त एकता ने घोर अहंकारी सरकार को भी हिला दिया। इस एकता को बनाए रखना जरूरी है। इसके लिए यह जरूरी है कि एमएसपी तय करने में छोटे किसानों और भूमिहीन मजदूरों की जरूरतों का खास तौर पर खयाल रखा जाए।

सिद्धांततः एमएसपी से तीन मकसद हासिल किए जा सकते हैं। अनाजों के बाजार में कीमतें स्थिर रखी जा सकती हैं, किसानों की आमदनी बढ़ाई जा सकती है और किसानों के कर्जदारी की समस्या भी हल की जा सकती है।

भारत में खाद्यान्‍न की कीमतें स्थिर रखने की नीति समय के साथ अलग-अलग रूप लेती गई है। यह नीति शुरू हुई अनिवार्य वस्तुएं अधिनियम 1955 के साथ। इसका मकसद था कालाबाजारी पर लगाम लगाना। फिर 1960 के दशक में एमएसपी की नीति लागू की गई। समय के साथ अनाजों का सार्वजनिक सुरक्षित भंडार बनाए रखने की नीति अपनाई गई ताकि बाजार में अनाजों की किल्लत हो और दाम बढ़ने लगें तो जरूरतमंदों को सस्ते दाम पर अनाज देकर बाजार में दखल दिया जा सके। इस क्रम में तरह-तरह की व्यवस्थाएं ईजाद की गईं। मसलन, अनाजों की सरकारी खरीद के लिए लागत के आधार पर न्यूनतम मूल्य तय करना; अनाजों की सरकारी खरीद और बाजार मूल्य के बीच के फर्क की राशि का भुगतान करना; सरकार द्वारा खरीदे गए अनाज को तय कीमत पर जनवितरण प्रणाली के जरिये बेचने के लिए सरकारी गोदामों में इकट्ठा रखना और जब भी जरूरी लगे तब कीमतें स्थिर रखने के लिए बाजार में दखल देना।

इन व्यवस्थाओं के जरिये देश के लोगों के लिए खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित हुई, लेकिन इस क्रम में किसान लोग हरित क्रांति के दौरान ऊंची पैदावार वाली किस्मों की खेती करने को भी प्रेरित हुए। इस सबके लिए सरकारी खरीद, भंडारण और वितरण की प्रक्रिया का एक दूसरे से जुड़ना लाजिमी था और इनमें से हर काम के लिए केंद्रीय निवेश और नियंत्रण का सिलसिला बढ़ता गया।

आंशिक दायरा

हरित क्रांति के दौरान शुरु हुई सरकारी खरीद और जनवितरण प्रणाली की व्यवस्था ने तय कीमतों के जरिये चावल, गेहूं और गन्ने की फसल की खेती बढ़ाने को प्रोत्साहन दिया। यही तीन फसलें हरित क्रांति का पर्याय बन गईं, लेकिन वे कोई बीसेक फसलें एमएसपी की व्यवस्था के बाहर रह गईं जिन्हें इनके दायरे में लाने पर अब चर्चा हो रही है, जैसे ज्वार, बाजरा और दूसरे मोटे अनाज, दलहन और ति‍लहन।

एमएसपी के दायरे में कुछ ही फसलों को रखने का नतीजा हुआ कि ज्वार-बाजरा जैसे मोटे अनाजों की खेती कम होने लगी और चावल और गेहूं जैसे अनाजों की खेती बढ़ती गई। ऐसा खास तौर पर हुआ अच्छी बारिश वाले इलाकों में। हरित क्रांति शुरू होने से लेकर हाल फिलहाल तक चावल की खेती 300 लाख हेक्टेयर से बढ़ कर 440 लाख हेक्टेयर तक पहुंच गई थी और गेहूं की 90 लाख  हेक्टेयर से बढ़ कर 310 लाख हेक्टेयर।

एमएसपी के दायरे से बाहर रह गए अनाज देश भर में काफी सारे लोगों के खानपान में शामिल हैं, लेकिन वे राशन की दुकानों से लोगों को मुहैया नहीं कराए गए। ये फसलें ज्यादातर तो बारिश वाले इलाकों में ही उपजाई जाती हैं। भारत में कुल खेती का करीबन 68 फीसद बारिश वाले इलाकों में होता है। इन इलाकों में उपजाई जाने वाली फसलें आम तौर पर सूखे से प्रभावित नहीं होतीं। वे पौष्टिक भी होती हैं और गरीब किसानों के खानपान का मुख्य हिस्सा हैं।

ऐसी फसलों का एमएसपी व्यवस्था से बाहर रखा जाना हमारी खाद्य सुरक्षा व्यवस्था का बड़ा ही कमजोर पक्ष है। एमएसपी के तहत तमाम 23 फसलों को लाया जा सके तो इससे खाद्य सुरक्षा भी बेहतर होगी और बारिश वाले इलाकों के सबसे गरीब किसानों की आमदनी भी बढ़ेगी।

आर्थिक लागत

सरकार द्वारा तय एमएसपी पर चावल और गेहूं की सरकारी खरीद और उसके भंडारण की व्यवस्था बड़ी ही केंद्रीकृत है। खरीदे गए अनाज को भारतीय खाद्य निगम के गोदामों में लाना होता है। वहां उनकी कुटाई होती है और उन्हें लोगों के खानपान के लायक बनाया जाता है। फिर उन्हें हर जिले और राज्य में भेजा जाता है। वहां से फिर उन्हें गांवों, नगर निगम वार्डों और स्लमों में राशन दुकानों के जरिये बिक्री के लिए भेजा जाता है। इसके लिए कीमत भी सरकार ही तय करती है। इसे इशु प्राइस कहा जाता है और इसे बाजार भाव से कम रखा जाता है ताकि गरीब परिवार उसे खरीद सकें।

इस पूरी व्यवस्था पर सालाना लागत तीन लाख करोड़ रुपए के करीब बैठती है। इसमें अनाजों की सरकारी खरीद, उसकी ढुलाई और भंडारण वगैरह पर आने वाला खर्च, प्रशासनिक खर्च और अनाजों को एक जगह से दूसरी जगह पहुंचाने और भंडारण में होने वाली बर्बादी से होने वाला नुकसान भी शामिल है। इसमें गन्ने की फसल पर आने वाली सरकारी लागत शामिल नहीं है क्योंकि उसकी खरीद निजी चीनी मिलों के जरिये होती है और उसमें होने वाली लेटलतीफी जगजाहिर है।

अगर कीमतों की एक अधिकतम और न्यूनतम सीमा तय कर दी जाए और एमएसपी को कीमतों की इस पट्टी के भीतर खेती के हालात के मुताबिक तय किया जाए तो इस पर आने वाली लागत कीमतों की उस पट्टी के भीतर कम या ज्यादा हो सकेगी।

एमएसपी कीमतों की एक पट्टी

एमएसपी की रूपरेखा तेईस फसलों के लिए एक ज्यादा लचीली व्यवस्था के तहत बनाई जानी चाहिए। हर फसल के लिए कीमतों की एक अधिकतम और न्यूनतम सीमा तय कर दी जाए जो खेती किसानी के हालात के मुताबिक तय हो। फसल अच्छी हो तो एमएसपी को कम रखा जाए और खराब हो तो एमएसपी ऊंचा, लेकिन हर हाल में यह यह पहले से तय अधिकतम और न्यूनतम कीमतों की पट्टी के बीच ही तय हो। कुछ मोटे अनाजों की कीमतें पट्टी के ऊपरी स्तर पर तय की जा सकती हैं ताकि बारिश वाले इलाकों में उनकी खेती को बढ़ावा मिले। इस तरह किसानों की आमदनी बढ़ाने, कीमतें स्थिर रखने, खाद्य सुरक्षा,और मौसम के अनुकूल खेती को बढ़ावा देने के लक्ष्यों को कुछ हद तक एक दूसरे से जोड़ा जा सकता है।

किसानों की आमदनी बढ़ा कर एमएसपी का दायरा बढाने का सकारात्मक असर दूसरी आर्थिक गतिविधियों पर भी पड़ेगा। किसानों की आमदनी बढ़ेगी तो औद्योगिक उत्पादनों की उनकी मांग भी बढ़ेगी। खास तौर पर असंगठित क्षेत्र के उत्पादनों की। इससे फिर दूसरे उत्पादनों की मांग बढ़ेगी और इस तरह पूरी अर्थव्यवस्था में मांग में विस्तार का एक पूरा सिलसिला चल निकलेगा।

अब सवाल बनता है कि एमएसपी की ऐसी योजना पर लागत कितनी आएगी? देश में अनाजों के कुल उत्पादन का 45-50 फीसद किसानों के अपने खानपान में खप जाता है और बाकी बाजार में आता है। बाजार में आने वाले इस 50-55 फीसद उत्पादन को एमएसपी मिल सके तो यही सरकारी खरीद पर आने वाली अधिकतम लागत हो सकती है। इसमें से हमें वह राशि घटा देनी चाहिए जो राशन की दुकानों से इन अनाजों की बिक्री से हासिल की जाती है। इस तरह एमएसपी की इस योजना पर हमें लगता है कि करीबन पांच लाख करोड़ रुपए की लागत आएगी। यह 17 लाख करोड़ रुपए से तो काफी कम है जो सरकार कहती है कि स्वामीनाथन आयोग की सिफारिश के मुताबिक किसानों की सारी लागत मिला कर एमएसपी देने पर आएगी। पांच लाख करोड़ रुपए की यह राशि उतनी ही है जो सरकारी कर्मचारियों को महंगाई भत्ता देने पर खर्च होती है जो कुल आबादी का पांच फीसद भी नहीं हैं।

सरकार हर साल बजट में औद्योगिक घरानों को करों में छूट देकर ही करीबन तीन लाख करोड़ रुपए का राजस्व गंवा देती है। कुछ गिने चुने बड़े कर्जदारों ने बैंक कर्जों की दस लाख करोड़ रुपए की राशि डकार रखी है। इन सबकी तुलना में पांच लाख करोड़ रुपए की राशि तो कुछ भी नहीं है जबकि इससे देश की आधी से ज्यादा आबादी को सीधे तौर पर फायदा होगा और 20-25 फीसद आबादी को असंगठित क्षेत्र में परोक्ष रूप से। इस तरह एमएसपी की ऐसी योजना से देश के 70 फीसद से ज्यादा नागरिकों को फायदा होगा।

कर्ज से निजात

एमएसपी की योजना के तहत अनाजों की बिक्री को बैंकों द्वारा कर्ज देने से जोड़ दिया जाए तो किसानों के कर्ज में डूबे रहने की समस्या से भी निजात मिल सकती है। खास तौर पर छोटे किसानों को। एमएसपी के तहत अनाज बेचने वाले किसानों को एक सर्टिफिकेट दिया जा सकता है जो बेचे गए अनाज के अनुपात में क्रेडिट पॉइंट्स होगा और इसके मुताबिक उन्हें बैंकों से कर्ज लेने का अधिकार होगा। ऐसी व्यवस्था की जा सकती है कि किसान कर्ज लेने के लिए इन सर्टिफिकेटों का इस्तेमाल अपनी जरूरत के मुताबिक कर सकें। किसी साल फसल अच्छी हुई और उन्हें कर्ज की जरूरत नहीं पड़ी या कम पड़ी तो वे इनका इस्तेमाल बुरी फसल के वक्त कर्ज लेने के लिए कर सकें। ऐसी व्यवस्था प्रशासनिक तौर पर भी सरल होगी और बैंक आसानी से कर्ज दे सकेंगे और इससे किसान समुदाय की कर्जग्रस्तता की समस्या का भी काफी हद तक निदान हो सकेगा।

एमएसपी की ऐसी योजना का असरकारी ढंग से लागू होना काफी हद तक लागू करने वाली एजेंसियों को संविधान से अधिकार प्राप्त पंचायतों की देखरेख में विकेंद्रित करने पर निर्भर करेगा। हमने देखा है कि जाति, वर्ग और औरत-मर्द भेदभाव के परे जाकर किस तरह पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में पंचायतों और महापंचायतों के जरिये किसान आंदोलन ने एकता कायम की। इससे उम्मीद बनती है कि किसान आंदोलन अब अपना ध्यान एमएसपी लागू करने की प्रक्रिया को विकेंद्रित करने पर लगाएगा। इन विकेंद्रित संस्थाओं के जरिये किसानों की विशाल तादाद को असरदार ढंग से जुटाने में किसान आंदोलन कामयाब रहा। इसलिए वह ऐसा फिर से कर ही सकता है।


अमित भादुडी कई विश्वविद्यालयों में अर्थशास्त्र पढ़ा चुके हैं। कॉस्तव बनर्जी दिल्ली की अंबेडकर यूनिवर्सिटी में पढ़ाते हैं। लेख का अंग्रेजी से हिंदी में अनुवाद प्रीति ने किया है।


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