COVID-19 संकट पर नोबेल विजेता अभिजित बनर्जी से राहुल गांधी की बातचीत यहां पढ़ें


कांग्रेस के अध्यक्ष राहुल गांधी ने इस दौर में कुछ जानकारों के साथ कुछ विशिष्ट विषयों पर वीडियो चर्चा शुरू की है। इस कड़ी में उन्होंने विश्व के जानेमाने अर्थशास्त्री और नोबेल पुरस्कार विजेता अभिजित बनर्जी से आधे घंटे की बातचीत की जिसे विभिन्न सोशल मीडिया मंचों पर लाइव स्ट्रीम किया गया।

यह चर्चा अंग्रेज़ी में थी। इसका हिंदी तर्जुमा अपने पाठकों के लिए हम नवजीवन से साभार प्रकाशित कर रहे हैं। इसका वीडियो भी नीचे देखा जा सकता है।

RG अपना कीमती समय देने के लिए आपका धन्यवाद। जाहिर है आप काफी व्यस्त होंगे?

AB आपसे ज्यादा नहीं।

RG यह हकीकत है कि इस समय सब कुछ बंद है।

AB यह हकीकत है, लेकिन डरावना भी। मेरा मतलब किसी को नहीं पता कि आगे क्या होने जा रहा है।

RG आपके बच्चे इसको किस तरह ले रहे हैं?

AB मेरी बेटी थोड़ी उत्साही है। वह अपने दोस्तों के साथ रहना चाहती है। मेरा बेटा छोटा है और वह हर समय माता-पिता के साथ खुश रहता है। उसके लिए यह कोई बुरी बात नहीं है।

RG लेकिन वहां पूरी तरह लॉकडाउन है। तो वे बाहर नहीं जा सकते?

AB नहीं। हम बाहर जा सकते हैं। घूम सकते हैं। पैदल चलने, साइकिल चलाने या ड्राइविंग पर भी कोई रोक नहीं है। ज्यादा लोग इकट्ठे नहीं हो सकते।

RG एक जिज्ञासा है, क्या आप नोबेल पुरस्कार की उम्मीद कर रहे थे या यह अनपेक्षित था?

AB पूरी तरह अनपेक्षित। मुझे लगता है कि अगर इन सबके बारे में चिंता करने में समय बिताते हैं, तो यह घर कर जाती है। और जो चीजें नहीं है, उनके बारे में नह सोचने में मैं ठीक हूँ, जिनका मेरे जीवन पर तत्काल प्रभाव नहीं है। मुझे पहले से कोई अपेक्षा नहीं थी या … यह पूरी तरह से एक आश्चर्य था।

RG भारत में हमारे लिए ये काफी बड़ी बात थी। आपने हमें गर्व करने का मौका दिया।

AB धन्यवाद। हाँ यह बहुत बड़ी बात है। मैं यह नहीं कह रहा था कि यह कोई बड़ी बात नहीं है। मैं मानता हूँ कि आप इसके बारे में कुछ ज्यादा ही सोच सकते हैं, लेकिन ऐसी कोई प्रक्रिया नहीं है, जिसे कोई भी समझ सकता है। इसलिए कुछ भी हो सकता है।

RG मैं आपके साथ हमारी गरीब जनता पर COVID संकट, लॉकडाउन और आर्थिक तबाही के प्रभाव के बारे में चर्चा करना चाहता था। हमें इसके बारे में कैसे सोचना चाहिए। भारत में कुछ समय के लिए नीतिगत ढांचा था, खासकर UPA शासन में, जब गरीब लोगों के लिए एक प्लेटफार्म था। उदाहरण के लिए, मनरेगा, भोजन का अधिकार आदि और अब उसका बहुत कुछ उल्टा होने वाला है क्योंकि हमारे सामने ये महामारी है और लाखों-करोड़ों लोग वापस गरीबी में जाने वाले हैं। इस बारे में कैसे सोचना चाहिए?

AB मेरे विचार दोनों को अलग कर सकते हैं। वास्तविक समस्या यह है कि वर्तमान समय में यूपीए द्वारा लागू की गई ये अच्छी नीतियां भी अपर्याप्त साबित हो रही हैं और सरकार ने उन्हें वैसा ही लागू किया है। इसमें कोई किन्तु-परन्तु नहीं था। यह बहुत स्पष्ट था कि यूपीए की नीतियों का आगे उपयोग किया जाएगा।

ये सोचना होगा कि जो इनमें शामिल नहीं है, उनके लिए हम क्या कर सकते हैं। ऐसे बहुत लोग हैं- विशेष रूप से प्रवासी श्रमिक। यूपीए के अंतिम वर्षों में विचार था- आधार योजना को राष्ट्रीय स्तर पर लागू करना, जिसे इस सरकार ने भी स्वीकारा, ताकि उसका उपयोग पीडीएस और अन्य चीजों के लिए किया जा सके। आधार कार्ड के जरिए आप जहाँ भी होंगे, पीडीएस के पात्र होंगे। ये बेहतर होता। इससे बहुत सारी मुसीबतों से बचा जा सकता है। आधार दिखाकर लोग स्थानीय राशन की दुकान पर पीडीएस का लाभ उठा पाते। वो मुंबई में इसका लाभ उठा सकते, चाहे उनका परिवार मालदा, दरभंगा या कहीं भी रहता हो। ये मेरा दावा है। ऐसा नहीं हुआ, इसका मतलब है- एक बहुत बड़े वर्ग के लिए ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है। मुंबई में मनरेगा नहीं है, इसलिए वो इसके पात्र नहीं हैं। पीडीएस के पात्र नहीं हैं क्योंकि वो वहां के निवासी नहीं हैं।

समस्या का हिस्सा यह है कि नीतिगत ढाँचे की संरचना इस विचार पर आधारित थी कि कोई भी व्यक्ति जो वास्तव में जहाँ काम कर रहा है, वहां उसकी गिनती नहीं है और इसलिए आमदनी कमाने के कारण आपको उनके बारे में चिंता करने की ज़रूरत नहीं है और ये विचार विफल हो गया है।

जहाँ तक गरीबी का सवाल है, मैं स्पष्ट नहीं हूँ कि अगर अर्थव्यवस्था में सुधार होता है, तो गरीबी पर इसका प्रभाव पड़ेगा। वास्तविक चिंताएँ हैं- क्या अर्थव्यवस्था पुनर्जीवित होगी और विशेष रूप से, कोई इस प्रक्रिया के माध्यम से इस महामारी के संभावित समय के बारे में कैसे सोचता है। मुझे लगता है कि हमें देश की समग्र आर्थिक समृद्धि की रक्षा के बारे में आशावादी होना चाहिए।

RG लेकिन इनमें से बहुत से लोगों को छोटे और मध्यम व्यवसायों से अपनी नौकरी मिलती है, जिनको नकदी की समस्या होने जा रही है। और बहुत से व्यवसाय इस झटके के कारण दिवालिया हो सकते हैं। इसलिए इन व्यवसायों को होने वाले आर्थिक नुकसान और इन लोगों की नौकरी बनाए रखने की क्षमता के बीच सीधा संबंध है।

AB यही कारण है कि हम में से बहुत से लोग कहते रहे हैं कि हमें प्रोत्साहन पैकेज की आवश्यकता है। अमेरिका, जापान, यूरोप यही कर रहे हैं। हमने बड़े प्रोत्साहन पैकेज पर निर्णय नहीं लिया है। हम अभी भी जीडीपी के 1% पर हैं, अमेरिका 10% तक चला गया है। हमें MSME सेक्टर के लिए ज्यादा करने की आवश्यकता है। ऋण भुगतान पर रोक लगाकर बुद्धिमानी का काम किया है, इससे ज्यादा किया जा सकता था। इस तिमाही के लिए ऋण भुगतान रद्द किया जा सकता था और सरकार उसका भुगतान करती ताकि लोगों को एक तिमाही के लिए भुगतान न करना पड़े। वास्तव में इसे स्थगित करने के बजाय स्थायी रूप से रद्द किया जाए। ऐसा किया जा सकता था। लेकिन इससे परे, यह स्पष्ट नहीं है कि MSME पर ध्यान केंद्रित करना सही प्रणाली है। यह मांग को पुनर्जीवित करने का मसला है। हर किसी को पैसा दिया जाए, ताकि वो सामान खरीद सकें तो MSME इनका उत्पादन करेगा। लोग खरीद नहीं रहे हैं। यदि उनके पास पैसा है या सरकार उन्हें पैसे देने का वादा करती है, तो आवश्यक नहीं कि अभी पैसा दिया जाए। रेड जोन में सरकार कह सकती है कि जब भी लॉकडाउन खत्म होने पर लोगों के खाते में ₹10,000 होंगे और वो इसे खर्च कर सकते हैं। अर्थव्यवस्था को पुनर्जीवित करने के लिए खर्च बढ़ाना सबसे आसान तरीका है क्योंकि जब MSME को पैसा मिलता है, वे इसे खर्च करते हैं और फिर इसकी सामान्य Keynesian chain reaction होती है।

RG तो, हम NYAY जैसी योजना या लोगों को सीधे नकद हस्तांतरण के बारे में बात कर रहे हैं?

AB बिलकुल। चाहे वो सबसे गरीब लोगों के लिए हो, वह चर्चा का विषय है। मैं इसे व्यापक स्तर पर देखूंगा … मुझे लगता है कि चिन्हित करना बेहद महंगा पड़ सकता है। इस संकट के समय में सरकार उनको चिन्हित करने की कोशिश करेगी, जो 6 सप्ताह तक अपनी दुकान बंद रखने के बाद गरीब हो गये हैं, मुझे नहीं पता कि वे इसे कैसे समझेंगे। निचले तबके की 60% आबादी को पैसा देने में कोई बुराई नहीं है। अगर सरकार उन्हें पैसा देती है, तो शायद उनमें से कुछ को इसकी जरूरत नहीं होगी। लेकिन वे इसे खर्च करेंगे, यदि वे इसे खर्च करते हैं, तो इसका अच्छा प्रभाव होगा। एकमात्र जगह जहां मैं अधिक आक्रामक हूं- मैं सबसे गरीब लोगों से आगे के लोगों की सोचूंगा।

RG तो, आप बड़े पैमाने की बात कर रहे हैं, ताकि जल्द से जल्द मांग शुरू हो।

AB बिलकुल। मैं ऐसा कह रहा हूं। मैं पहले भी कहता रहा हूं कि हमारे यहाँ मांग की समस्या है। अब यह समस्या बड़ी होने जा रही है क्योंकि साधारण सी बात है, पैसे के अभाव में कुछ न खरीद पाने के कारण दुकानें बंद है क्योंकि लोग भी खरीद नहीं रहे हैं।

RG आपके अनुसार तेजी से काम करने की आवश्यकता है। जितनी तेजी से काम होगा, यह उतना ही प्रभावी होगा। हर पल की देरी वास्तव में नुकसानदायक है।

AB आप सही कह रहे हो, मैं नहीं चाहता कि सरकार हर किसी के हस्तक्षेप या उपयुक्त-अनुपयुक्त की जाँच करें। जिन इलाकों में खुदरा व्यापार को बंद कर दिया है, वहाँ लोगों के खर्च करने की क्षमता बढ़ने से मांग और आपूर्ति असंतुलित हो जाएगी, इससे बचना चाहिए। बेहतर योजना बनाने की आवश्यकता है, ताकि जब लोग बाहर जा सकें, तो उनको पैसे मिलें, ताकि वो खरीद सकें। भले ही अभी नहीं, लेकिन पैसा मिलने का वादा हो, ताकि लोग घबराना और खुद को पूरी तरह भूखा रखना बंद कर दें, ताकि उनके पास थोड़ी बहुत बचत रहे।

यदि लोगों को आश्वस्त किया जाए कि लॉकडाउन खत्म होने पर उनके हाथों में कुछ पैसा होगा। तो वे बहुत कम चिंतित होंगे। वे अपनी बचत में से खर्च करने के लिए तैयार होंगे। जरूरी नहीं कि सरकार गहराई में जाए, क्योंकि शायद ऐसी जगहें हैं, जहां अभी कोई उत्पादन या आपूर्ति नहीं है। सिर्फ पैसा लगाने से बर्बादी होगी, महंगाई बढ़ेगी। सरकार उसका इंतजार करना चाहती है!

RG तो, जितना जल्दी लॉकडाउन से बाहर आ पाएंगे, उतना ही बेहतर होगा। अर्थव्यवस्था के एक हिस्से को शुरू करने के लिए एक रणनीति की आवश्यकता है। अन्यथा ये पैसा बेकार है।

AB जितनी जल्दी लॉकडाउन से बाहर आ सकें, जाहिर है ये महामारी पर निर्भर करता है। महामारी के ज्यादा मामले आने पर सरकार लॉकडाउन नहीं खोलना चाहेगी, तो आप बिलकुल सही हैं। हमें महामारी की वास्तविकता के बारे में पता होना चाहिए।

RG हमारे यहाँ अन्न आपूर्ति का मुद्दा थोड़ा अलग है। बड़ी संख्या में ऐसे लोग हैं, जिनके पास राशन कार्ड नहीं हैं। एक तर्क है कि गोदाम में जो अनाज है, उसे वितरित किया जाए, क्योंकि नई फसल के आते ही भंडारण बढ़ जाएगा, इसलिए उस पर तुरंत कदम उठाएं।

AB रघुराम राजन और अमर्त्य सेन के साथ हमने जरूरतमंदों के लिए अस्थायी राशन कार्ड का विचार रखा था। वास्तव में अन्य राशन कार्ड को रोक कर, अस्थायी राशन कार्ड शुरू किए जाएं। जिसे जरूरत हो, उसे दिया जाए। अभी तीन महीने के लिए और आवश्यकता पड़ने पर इसका तीन महीने के लिए नवीनीकरण किया जा सकता है। सभी को राशन कार्ड दीजिए और आपूर्ति के आधार के रूप में उपयोग करें। मुझे लगता है कि हमारे पास पर्याप्त स्टॉक है। मुझे लगता है हम थोड़े समय तक इसे चला सकते हैं। इस बार रबी की फसल अच्छी रही है, इसलिए हमारे पास कई टन गेहूं और चावल होंगे। इसलिए कम से कम लोगों को ये तो दिए ही जा सकते हैं। मुझे नहीं पता कि हमारे पास पर्याप्त दाल है या नहीं लेकिन शायद सरकार ने दाल का वादा किया था। इसलिए उम्मीद है कि हमारे पास पर्याप्त दाल और खाद्य तेल आदि हैं। लेकिन हाँ, हमें निश्चित रूप से सभी को अस्थायी राशन कार्ड देना चाहिए।

RG आपके अनुसार और क्या उस पैकेज का हिस्सा होना चाहिए, जिसके बारे में सरकार सोच रही है। हमने MSMEs, प्रवासी श्रमिक, अन्न आपूर्ति के बारे में बात की है। कोई अन्य चीज, जो आपको लगता है कि उसमें होनी चाहिए।

AB मुझे लगता है कि इसका अंतिम हिस्सा उन लोगों को नकद दिलाना है और उसके लिए ढाँचे की जरूरत है। हम लोगों को ऐसे ही नकद नहीं दे सकते हैं। जिन लोगों के पास जन धन खाते हैं, वे पैसा प्राप्त कर सकते हैं लेकिन बहुत से लोगों के पास नहीं है और विशेष रूप से, प्रवासी श्रमिकों को लाभ नहीं पहुंच सकता। जनसंख्या का बड़ा हिस्सा, जिनके पास इसकी पहुँच नहीं है, हमें उनके बारे में भी सोचने की जरूरत है। NGOs के माध्यम से वंचित लोगों तक अपनी योजनाओं को पहुंचाने के लिए राज्य सरकारों को पैसा देना चाहिए…कुछ हद तक गलतियों के लिए तैयार रहना होगा। हो सकता है कुछ पैसा ना पहुंचे, लेकिन हाथ पर हाथ रखकर बैठने से कुछ भी हासिल नहीं होगा।

RG केंद्रीकरण और विकेंद्रीकरण के बीच एक संतुलन है। प्रत्येक राज्य की अपनी विशेषताएं हैं। केरल कुछ अलग कर रहा है, यूपी कुछ अलग लेकिन इसमें केंद्र सरकार की भी विशेष भूमिका है। इन दो विचारों के बीच तनाव को देखा जा सकता है।

AB आप सही हैं। प्रवासी श्रमिकों के मुद्दे को राज्य सरकार द्वारा नियंत्रित नहीं किया जा सकता है। इसे द्विपक्षीय रूप से संभालना मुश्किल है। यह एक ऐसी समस्या है, जिसका आप विकेंद्रीकरण नहीं करना चाहेंगे क्योंकि आप वास्तव में जानकारी एकत्र करना चाहते हैं। यदि लोग संक्रमित हैं, तो आप नहीं चाहते कि वे पूरे देश में घूमें। मुझे लगता है कि ट्रेन पकड़ने या यात्रा करने से पहले, सरकार को ऐसे लोगों का टेस्ट करना चाहिए। यह एक मुख्य सवाल है और जिसे केवल केंद्र सरकार सुलझा सकती है।

यूपी सरकार को बताएं कि आप अपने प्रवासियों को घर नहीं ला सकते हैं। दूसरी तरफ, मुंबई शहर में प्रवासियों के लिए प्रबंध करने का प्रश्न महाराष्ट्र सरकार या मुंबई सिटी नगरपालिका की समस्या है। इस समस्या का समाधान केंद्र सरकार द्वारा नहीं हो सकता। मुझे लगता है कि आप उस पर सही हैं लेकिन अभी उस पर सरकार का क्या विचार है। ऐसा लग रहा है कि इसका समाधान नहीं किया जा सकता है लेकिन लंबे समय में, हमें उन संस्थानों के बारे में सोचने की जरूरत है, जो मजबूत हो हालाँकि, मैं नहीं देख पा रहा कि अभी हम इस बारे में कुछ कर सकते हैं।

RG मुझे लगता है कि विकल्प बनाने होंगे। जितना संभव हो सके विकेंद्रीकरण हो, जो स्थानीय स्तर पर संभाल सकते हैं, तो ये अच्छी बात है। वो काम छाँटने होंगे, जिन्हें जिला और राज्य स्तर पर संभाला जा सकता है लेकिन एयरलाइन और रेलवे जैसे मुद्दों पर जिला कलेक्टर फैसला नहीं ले सकते। इसलिए बड़े फैसले राष्ट्रीय स्तर पर होने चाहिए। लेकिन लॉकडाउन के मामले में भी, राज्यों को स्वतंत्रता देनी चाहिए यानी राज्य लॉकडाउन करना चाहते हैं, तो वो अपने यहाँ लॉकडाउन की प्रकृति को समझकर लॉकडाउन करें। राज्यों को विकल्प दें और उन्हें तय करने दें कि उन्हें क्या करना है और क्या नहीं। अगर राज्यों पर जिम्मेदारी आती है, तो वो इससे बेहतर तरीके से निपटेंगे। वर्तमान सरकार का दृष्टिकोण थोड़ा अलग है। वो इसे अपने नियंत्रण में रखना पसंद करती है। ये दो दृष्टिकोण हैं, जरूरी नहीं कि एक गलत और एक सही हो। मैं विकेंद्रीकरण पर जोर देता हूं।

AB सबसे गरीबों तक पहुंचने के लिए अच्छी योजनाओं के प्रस्ताव के लिए पैसों की घोषणा करें और कुछ नया करके देखें। अधिकांश राज्यों में अच्छे एनजीओ हैं, जिन्हें उस प्रक्रिया में शामिल किया जा सकता है और जैसा कि आपने कहा कि जिलाधिकारी अक्सर बेहतर विचार रखते हैं। और हम सब उससे लाभान्वित हो सकते हैं।

RG क्या आपके पास अन्य देशों के दिलचस्प अनुभव हैं?

AB मैं आपको इंडोनेशिया के बारे में बताता हूं। इंडोनेशिया ने कम्युनिटी के माध्यम से नकद हस्तांतरण का फैसला किया। जरूरतमंदों और हस्तांतरण के बारे में समाज तय करेगा। हमने इस पर इंडोनेशियाई सरकार के साथ काम किया है और महसूस किया कि यह केंद्रीय चिन्हित प्रक्रिया से बुरा नहीं है। किसी चीज से आप जकड़े हुए नहीं हो। अच्छी बात यह है कि इस बारे में लोग निर्णय लेते हैं कि स्थानीय स्तर पर क्या उपयुक्त है। यह एक ऐसा अनुभव है, जिससे सीखा जा सकता है। वे समाज को लोगों की पहचान और आवश्यकताओं के बारे में बताने की दिशा में बहुत आगे बढ़ गए हैं। आपात स्थिति में यह अच्छी नीति है, क्योंकि समाज के पास कुछ ऐसी जानकारी होती है, जिसका केंद्रीकरण नहीं किया जा सकता।

RG सामाजिक संरचना में इस तरह के फैसले लेने में जातीय प्रभाव को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है।

AB गाँव में जरूरतमंद लोग ढूंढने के बजाय मैं इसके लिए अतिरिक्त संसाधन की सिफारिश करूंगा, यह बात हमको आप और सरकार, जो पीडीएस की पहुंच बढ़ाने की बात कर रहे हैं, उस तरफ लेकर जा रही है।

इससे आगे बढ़कर अगर आप लोगों को नकद देना चाहते हैं। कुछ लोगों के पास जन धन खाता है और कुछ के पास नहीं। कुछ लोग मनरेगा सूची में हैं, जो नकदी प्राप्त करने का एक और तरीका है। कुछ लोग उज्जवला में हैं और कुछ नहीं हैं। जब आप सूची देखते हैं, तो आप पाते हैं कि लाखों लोग हैं, जो बाहर रह गए हैं और आप उन लोगों की मदद कैसे कर सकते हैं। इसके लिए स्थानीय प्रशासन को कुछ संसाधन देने चाहिए, जो उन लोगों की पहचान करके मदद कर सके। मैं आपसे असहमत नहीं हूं कि किसी न किसी रूप में प्रभावी लोगों का कब्जा हो सकता है। हमें इंडोनेशिया में इस विषय में बहुत चिंता थी, लेकिन हमें इसके ज्यादा सबूत नहीं मिले। मुझे लगता है कि हमें एक जोखिम उठाना होगा, हो सकता है इसमें से कुछ गलत हो जाए लेकिन अगर हम जोखिम नहीं उठाएंगे, तो निश्चित रूप से मुश्किल में पड़ जाएंगे।

RG मतलब कि हम निडर बनें क्योंकि हम एक बुरी स्थिति में हैं?

AB जब आप बुरी स्थिति में होते हैं, तो निडर होना ही एकमात्र विकल्प है।

RG एक बार महामारी खत्म होने के बाद या अब से छह महीने बाद गरीबी के नजरिये से आप इसे कैसे देखते हैं? जिस समय आर्थिक तंगी की संभावना है, वर्तमान समय की तुलना में मध्यम अवधि में आप इसे कैसे देखते हैं?

AB हम जिस चीज के बारे में बात कर रहे थे, वह मांग में कमी का सवाल है। दो चिंताएँ हैं- दिवालिया होने के सिलसिले से कैसे बचें। हो सकता है कि बहुत सारे ऋण माफ करना एक तरीका है, जैसा कि आपने उल्लेख किया था। अन्य है- मांग में कमी और लोगों के हाथों में कुछ नकदी पहुंचाकर अर्थव्यवस्था को पुनर्जीवित करने का सबसे अच्छा तरीका है। यूएस आक्रामक रूप से ऐसा कर रहा है। यह एक रिपब्लिकन प्रशासन है, जो वित्तीय जानकारों द्वारा चलाया जाता है। यदि वे इसे करने को तैयार हैं, तो हमें जरूर करना चाहिए। यह सामाजिक उदारवादियों के समूह द्वारा नहीं चलाया जा रहा है, बल्कि उन लोगों द्वारा चलाया जा रहा है जो वित्तीय क्षेत्र में काम करते थे लेकिन उन्होंने तय किया है कि सिर्फ आर्थिक अस्तित्व के बचाव के लिए लोगों के हाथों में पैसा पहुंचाना होगा। मुझे लगता है हमें इससे प्रेरणा लेनी चाहिए।

RG इससे दुनिया में शक्ति का संतुलन भी कुछ हद तक बदल रहा है। यह भी बहुत स्पष्ट है। उसके बारे में आपका क्या ख्याल है?

AB मैं फ्रांस और इटली जैसे देशों के लिए बहुत चिंतित हूं। विशेष रूप से इटली, जिसने विनाशकारी परिणाम भुगता और आंशिक रूप से इस बात का परिणाम है कि इटली में कई सालों से योग्य शासन नहीं रहा। परिणामस्वरूप, स्वास्थ्य प्रणाली अंतिम चरण पर थी। अमेरिका का नेशनालिस्ट दिशा में बहुत आगे बढ़ना दुनिया के लिए बेहद भयावह है। चीन का उदय एक खतरा है और अगर अमेरिका इस पर प्रतिक्रिया देना शुरू करता है, तो यह एक अत्यंत विनाशकारी खतरा होगा। यह बहुत चिंता की बात है।

RG लोगों के दिमाग में यह बात डाली जा रही है कि मजबूत नेता ही वायरस से लड़ सकता है और जनमानस में ये बात डाली जा रही है कि एक व्यक्ति ही वायरस से लड़ सकता है।

AB यह विनाशकारी है। अमेरिका और ब्राजील दो ऐसे देश हैं, जहाँ बुरी तरह गड़बड़ हो रही है। ये दो तथाकथित मजबूत नेता हैं, जो सब कुछ जानने का दिखावा करते हैं, लेकिन वे जो भी कहते हैं, वो हास्यास्पद होता है। अगर कोई “मजबूत व्यक्ति” के सिद्धांत पर विश्वास करता है, तो यह समय अपने आप को इस गलतफहमी से बचाने का है।

RG आपका बहुत बहुत धन्यवाद। जब भी आप भारत आएँगे, तो हम अवश्य मिलेंगे। घर पर सभी को शुभकामनाएं।

AB आपको भी। अपना ख्याल रखें।


About जनपथ

जनपथ हिंदी जगत के शुरुआती ब्लॉगों में है जिसे 2006 में शुरू किया गया था। शुरुआत में निजी ब्लॉग के रूप में इसकी शक्ल थी, जिसे बाद में चुनिंदा लेखों, ख़बरों, संस्मरणों और साक्षात्कारों तक विस्तृत किया गया। अपने दस साल इस ब्लॉग ने 2016 में पूरे किए, लेकिन संयोग से कुछ तकनीकी दिक्कत के चलते इसके डोमेन का नवीनीकरण नहीं हो सका। जनपथ को मौजूदा पता दोबारा 2019 में मिला, जिसके बाद कुछ समानधर्मा लेखकों और पत्रकारों के सुझाव से इसे एक वेबसाइट में तब्दील करने की दिशा में प्रयास किया गया। इसके पीछे सोच वही रही जो बरसों पहले ब्लॉग शुरू करते वक्त थी, कि स्वतंत्र रूप से लिखने वालों के लिए अखबारों में स्पेस कम हो रही है। ऐसी सूरत में जनपथ की कोशिश है कि वैचारिक टिप्पणियों, संस्मरणों, विश्लेषणों, अनूदित लेखों और साक्षात्कारों के माध्यम से एक दबावमुक्त सामुदायिक मंच का निर्माण किया जाए जहां किसी के छपने पर, कुछ भी छपने पर, पाबंदी न हो। शर्त बस एक हैः जो भी छपे, वह जन-हित में हो। व्यापक जन-सरोकारों से प्रेरित हो। व्यावसायिक लालसा से मुक्त हो क्योंकि जनपथ विशुद्ध अव्यावसायिक मंच है और कहीं किसी भी रूप में किसी संस्थान के तौर पर पंजीकृत नहीं है।

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