23 मई 2022 को राहुल गांधी कैंब्रिज विश्वविद्यालय के कारपस क्रिस्टी कॉलेज में “इंडिया एट 75” नामक कार्यक्रम के दौरान भारतीय मूल के छात्रों के साथ हिंदू राष्ट्रवाद, कांग्रेस पार्टी के भीतर गांधी परिवार की भूमिका और देश को संगठित करने के प्रयासों आदि पर चर्चा कर रहे थे, इस दौरान ‘कैंब्रिज विश्वविद्यालय में पब्लिक पुलिस’ विषय पर कामनवेल्थ के शोधार्थी और भारतीय सिविल सेवा अधिकारी सिद्धार्थ वर्मा से बातचीत में उन्होंने कहा कि भारत राज्यों का एक संघ है। जवाब में सिद्धार्थ वर्मा ने चाणक्य का हवाला देते हुए कहा कि चाणक्य अपने छात्रों से कहते है कि आप विभिन्न जनपदों से संबंधित हो सकते है, लेकिन अंततः संबंधित है राष्ट्र से, वह भारत है, जो एक विवाद का विषय बना हुआ है। फरवरी 2022 में संसद में भी राहुल गांधी ने कहा था कि भारत सिर्फ राज्यों का संघ है न कि एक राष्ट्र।
भारत राष्ट्र है इसे प्रमाणित करने के लिए वेद, पुराण और अन्य धार्मिक ग्रंथों का सहारा लिया जाता है जबकि आजादी मिलने से पहले जुलाई 1946 में संविधान निर्माण सभा का चुनाव हुआ, 1 दिसंबर 1946 से सभा ने अपना कार्य शुरू किया और आजादी मिलने के बाद 26 जनवरी 1950 को देश में संविधान लागू हुआ। उस संविधान के अनुच्छेद 1 में कहा गया है कि भारत अर्थात इंडिया राज्यों का संघ होगा, जबकि संविधान की उद्देशिका ….व्यक्ति की गरिमा (राष्ट्र की एकता और अखंडता) सुनिश्चित करने वाली बंधुता बढ़ाने के लिए…..में राष्ट्र शब्द का प्रयोग किया गया है। पौराणिक ग्रंथ जो राष्ट्र की बात करते हैं और हमारे संविधान की उद्देशिका में जिस राष्ट्र की बात कही गई है, और संविधान में भारत अर्थात इंडिया राज्यों का संघ होगा कहा गया है, उसे जानने और समझने का प्रयास होना चाहिए कि भारत राज्यों का संघ है या राष्ट्र।
प्राचीन ग्रन्थों में राष्ट्र शब्द का प्रयोग किन संदर्भों में किया गया यह सबसे महत्वपूर्ण है। आधुनिक युग में राष्ट्र या राज्य कहने का अपना एक मायने है। उदाहरण के लिए, संयुक्त राष्ट्र संघ कहने का यह कतई मतलब नहीं है कि यह राष्ट्रों का संघ है, जबकि यह राज्यों का संघ है।
‘राष्ट्र’ शब्द की उत्पत्ति चमकना अर्थ वाली राज धातु से हुई है। संस्कृत में इसका अर्थ है राजते दिप्यते प्रकाशते शोभते इति राष्ट्रम अर्थात जो स्वयं देदीप्यमान होने वाला है, वह राष्ट्र कहलाता है। संस्कृत के वृहत् कोष में राष्ट्र शब्द का अर्थ ‘जनपद’ है, तो दूसरे कोष में इसका अर्थ विषय बतलाया गया है।
मोनियर विलियम्स ने ‘ए संस्कृत इंग्लिश डिक्शनरी’ में राष्ट्र के कई अर्थ दिए हैं- किंगडम, एंपायर, डिस्ट्रिक, कंट्री, पीपुल, सब्जेक्ट और नेशन। वामन शिवराम आप्टे की ‘संस्कृत इंग्लिश डिक्शनरी’ में राष्ट्र के लिए किंग्डम, एंपायर, कंट्री, रीजन, पीपुल और नेशन अर्थ दिया गया है।
प्राचीन साहित्य में राष्ट्र शब्द का प्रयोग प्राचीनतम ग्रंथ वेद में देखने को मिलता है। ऋग्वेद संहिता में ‘राष्ट्रम’ ‘क्षत्रियस्य’ ऋग 4-22-1, ‘राजा राष्ट्रानाम’ ऋग 7-34-11, ‘राष्ट्रम गुपितं क्षत्रियस्य’ ऋग 10-109-3 के रूप में राष्ट्र का प्रयोग किया गया है, जिसके संदर्भों से पता चलता है कि क्षेत्रीय के द्वारा शासित भू-भाग को राष्ट्र कहते है। यजुर्वेद के दसवें अध्याय में राष्ट्र शब्द का अनेक बार प्रयोग हुआ है। ‘राष्ट्रदा राष्ट्रममुश्मैदेहि, राष्ट्रदा में देहि’। यजुर्वेद 10-2-3 अर्थात तू राष्ट्र देने वाला है उसे राष्ट्र दो एवं तू राष्ट्र देने वाला है मुझे राष्ट्र दो। डॉ सूर्यकांत ने ‘वैदिक कोष’ में राष्ट्र का अर्थ बताते हुए कहा है कि ऋग्वेद और उसके बाद के ग्रंथों में राज्य या राजकीय क्षेत्र को राष्ट्र कहा गया है। मैकडोनल ने अपने वैदिक इंडेक्स में कहा है कि राष्ट्र शब्द ऋग्वेद और उसके बाद के ग्रंथों में राज्य अथवा साम्राज्य का द्योतक है।
आधुनिक युग में सामान्य रूप से राष्ट्र शब्द इंग्लिश शब्द नेशन का हिंदी रूपांतर माना जाता है। राष्ट्र, राज्य, राष्ट्रीयता, संघ सब अलग-अलग शब्द हैं, उनके अलग-अलग अर्थ हैं और उनकी अलग-अलग व्याख्याएं हैं, यह सभी समानार्थी नहीं हैं। सामान्यतया राष्ट्र और राज्य को एक मान लिया जाता है, जबकि दोनों अलग-अलग हैं।
राष्ट्र समान धर्म, भाषा, जातियता, नस्ल, क्षेत्र, संस्कृत, परंपरा, इतिहास के साझे विचारों से निर्मित समुदाय है। समुदाय अपने सदस्यों के सामूहिक विश्वास, आकांक्षाओं और कल्पनाओं के माध्यम से एक सूत्र में बंधा होता है। किसी भी समाज की परंपराएं, सभ्यता, संस्कृति और उनकी जीवनशैली राष्ट्र का आधार होती है।
राष्ट्र की मार्क्सवादी व्याख्या स्टालिन द्वारा की गई। वह कहते हैं कि “राष्ट्र एक ऐतिहासिक रूप से गठित लोगों का स्थिर समुदाय है, जो एक आम संस्कृति में प्रकट, एक आम भाषा, क्षेत्र, आर्थिक जीवन और मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण के आधार पर बनता है।” राष्ट्र को एकजुट रखने के लिए जरूरी है कि भौगोलिक, सांस्कृतिक, परंपरा, धर्म, भाषा, इतिहास आदि के हित एक दूसरे के साथ जुड़े हो और उनकी अपनी राजनीतिक और शासन की प्रणाली हो, इसे राष्ट्रीयता भी कहते हैं। इसका मतलब राष्ट्र निर्माण में राष्ट्रीयता एक महत्वपूर्ण विचार है, इसके बगैर राष्ट्र निर्माण संभव नहीं है। राज्य की एक निश्चित सीमा होती है, इसके लिए जनसंख्या, भौगोलिक सीमा, संप्रभुता और सरकार जरूरी होती है, जबकि राष्ट्र की कोई सीमा नहीं होती है।
राष्ट्र के निर्माण में सांस्कृतिक एकता महती भूमिका अदा करता है। राष्ट्र के निर्माण करने वाले तत्वों धर्म, जाति, संस्कृति, भाषा, इतिहास, परंपरा में एक दो तत्व न हो तो भी राष्ट्र का निर्माण हो सकता है। लेकिन राज्य के निर्माण के लिए आवश्यक चार तत्व जनसंख्या, निश्चित भू-भाग, सरकार और संप्रभुता के बगैर राज्य की कल्पना भी नहीं की जा सकती है। भारत के संदर्भ में जहां विभिन्न धर्म, जातियां, उपजातियां, संस्कृति, भाषा और इतिहास विराजमान है, एक राष्ट्र की कल्पना संभव नहीं है।
ऐतिहासिक रूप से भारत में 122 भाषा, 1600 बोलियाँ, 7 धर्म (हिंदू, मुस्लिम, सिख, इसाई, बोद्ध, जैन और पारसी), 3 नस्ल- आर्य, मंगोल और द्रविड़ है। संविधान की आठवीं अनुसूची में 18 भाषाओं को मान्यता प्राप्त है। इन सात धर्मों के अलावा एक बहुत बड़ा समुदाय आदिवासियों का है, जो प्रकृति पूजक है। भौगोलिक विभिन्नताओं में बर्फीले, पहाड़ी, रेगिस्तान, समतल मैदान, समुद्री तटीय क्षेत्र आदि के रहवासी, जिनका इतिहास, आर्थिक जीवन, धर्म, जातियां, भाषा, संस्कृति, परंपरा एक दूसरे से इतनी अलग अलग है कि उनको राष्ट्र के खांचे में फिट बैठना तराजू में मेंढक तौलने के समान है।
अंग्रेजों का शासन कायम होने से पहले भारत का संपूर्ण भू-भाग विभिन्न छोटी-बड़ी रियासतों, राजा, रजवाड़ों और राजवंशों में विभक्त था। इतिहास, धर्म, भाषा, संस्कृति, परम्परों की विभिन्नता थी, इसी विभिन्नता के कारण भारत का एक सामान्य इतिहास, भाषा, संस्कृति और धर्म नहीं था, इसलिए यहाँ राष्ट्र की अवधारणा की कोई जगह नहीं थी। भारत का इतिहास राजवंशों द्वारा अपने राज्यों के विस्तार और पराजय का इतिहास रहा है। 1757 में प्लासी युद्ध और 1764 में बक्सर के युद्ध में अंग्रेजों के विजय ने भारत में अंग्रेजी शासन की नींव डाल दी। 1820 तक भारत का एक बड़ा भू-भाग अंग्रेजों के नियंत्रण आ गया और अंग्रेजों ने धीरे-धीरे भारत का सामाजिक और आर्थिक ढांचा ध्वस्त करके केंद्रीय शासन प्रणाली की शुरुआत की। आवागमन के आधुनिक संसाधनों के विकास ने इस केंद्रीय शासन व्यवस्था को और अधिक मजबूत किया।
1861 में अंग्रेजी हुकूमत ने केंद्रीय शासन व्यवस्था में बदलाव शुरू किया और 1870 में लॉर्ड लिटन ने भूमि-राजस्व, कानून और न्याय संबंधित विषयों को प्रांतों को सौंप दिया। यहीं से भारत में विकेंद्रीय व्यवस्था की शुरुआत हुई। भारतीय शासन अधिनियम 1919 के माध्यम से 50 विषयों पर कानून बनाने का अधिकार प्रांतों को दिया गया। भारत सरकार अधिनियम 1935 में पहली बार संघवाद शब्द का प्रयोग किया गया।
1885 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के गठन के बाद ब्रिटिश शासन के खिलाफ देशव्यापी आंदोलन खड़ा करने का प्रयास शुरू किया गया। भारत में मौजूद विभिन्नताओं और विविधताओं के लोगों को एक साथ लाने के लिए कुछ प्रतीकों का निर्माण किया गया जैसे- आम भाषा हिंदी, राष्ट्रध्वज, राष्ट्रगान इत्यादि। आजादी आंदोलन की गहन छानबीन करने पर भारत को एक राष्ट्र बनाने की परिकल्पना की कलई खुल जाती है। वास्तव में अंग्रेजों के खिलाफ किया जा रहा आजादी आंदोलन राष्ट्रीय आंदोलन की जगह उपनिवेश विरोधी आंदोलन का रुझान ज्यादा था। भारत के सभी भाषा भाषी, धर्म, संप्रदाय, संस्कृति के लोग अंग्रेजों के उत्पीड़न और शोषण से पीड़ित और प्रताड़ित थे। यह उत्पीड़न और उससे मुक्ति पाने की प्रबल इच्छा और अंग्रेजी हुकूमत में एक तरह की राजनीतिक अधीनता ने ही भारत के सभी वर्गों को एकजुट किया और एक मंच पर ला खड़ा किया। भारत का आर्थिक आधार, भौगोलिक स्थिति, भाषा, धर्म, संस्कृति के इतने अंतर भारत को एक राष्ट्र के रूप में बहुत जटिल बनाते हैं। शिक्षा के प्रसार ने एक आधुनिक बुद्धिजीवी वर्ग को खड़ा किया, नई आर्थिक व्यवस्था ने भारत के बाहर व्यापार के साथ एक नया व्यापारियों का वर्ग पैदा हुआ, आधुनिक संचार, आवागमन के साधन आदि ने एक नई साधन संपन्न कुलीन सामाजिक शक्ति का निर्माण किया। यही सामाजिक शक्ति अंग्रेजी शासन के खिलाफ खड़ी हो गई।
आजादी आंदोलन में औपनिवेशिक शासन के खिलाफ एकजुट संघर्ष में भी अपनी-अपनी पहचान को लेकर भी आंदोलन शुरू हो गये थे- 1915 में मदन मोहन मालवीय के नेतृत्व में हिंदू महासभा गठन किया गया; मुस्लिम लीग की स्थापना 1906 में सलीम उल्ला खान ने की जिसने आगे चलकर पाकिस्तान के निर्माण में अपनी भूमिका अदा की; दलित अस्मिता को बचाने के लिए अंबेडकर ने 1927 में सत्याग्रह शुरू किया और 1929 में समता समाज संघ स्थापित किया; द्रविड़ अस्मिता के लिए पेरियार ने 1927 में आत्मसम्मान आंदोलन शुरू किया; आदिवासियों ने भी अपनी पहचान और अस्मिता बचाने के लिए जयपाल सिंह मुंडा के नेतृत्व में आदिवासी महासभा 1939 में शुरू की; 1937 में तमिलनाडु जो कि तत्कालीन मद्रास प्रेसिडेंसी का हिस्सा था वहा भाषा आंदोलन शुरू हो गया था जिसका नेतृत्व पेरियार ने किया और आजादी के एक दिन पहले 14 अगस्त 1947 को आदिवासी नेता जापू फिजो के नेतृत्व में नागा आदिवासियों ने कोहिमा में नगा झंडा फहरा कर नगा क्षेत्रों- नगालैंड और मणिपुर की आजादी की घोषणा कर दी। नगा आदिवासियों के आंदोलन के खिलाफ भारत सरकार ने सेना उतार दी जो 80 के दशक तक नगा आंदोलनकारियों का कत्लेआम करती रही और जापू फिजो को निर्वासित होना पड़ा।
आजादी के बाद गोरखालैंड, बोडोलैंड, खालिस्तान, भील प्रदेश, झारखंड, उत्तराखंड, तेलंगाना के आंदोलन क्षेत्रीयता पर आधारित रहे और हैं। तमिलनाडु, बंगाल और असम में भाषा आंदोलन एक राष्ट्र के मानक के विरोधी हैं।
उपरोक्त सभी घटनाएं भारत को एक राष्ट्र के रूप में स्वीकार्यता के विरोध में हैं। प्राचीन ग्रंथों के अनुसार आधुनिक राष्ट्र को परिभाषित करना राष्ट्र की अवधारणा को समाप्त कर देना है।
संविधान की नजरों में भारत: संविधान के अनुच्छेद 1 में कहा गया है कि “भारत राज्यों का एक संघ होगा” जबकि संविधान की उद्देशिका में राष्ट्र कहा गया है। भारत संविधान की व्याख्या के अनुसार राष्ट्र है या संघ यह संविधान सभा द्वारा गठित दो समितियों- संघीय संविधान समिति और संघीय संविधान के वित्तीय प्रावधानों की समिति की रिपोर्ट और विभिन्न विद्वानों द्वारा संघ की जो व्याख्या की गई उसके अनुसार समझा जा सकता है।
संघ की विशेषताएं : संघ के कुछ महत्वपूर्ण तत्व है। संविधान की सर्वोच्चता, संविधान के द्वारा केंद्रीय सरकार और राज्य सरकारों में शक्ति विभाजन, लिखित और कठोर संविधान, स्वतंत्र उच्चतम न्यायालय, द्विसदनीय विधायिका, केंद्र और राज्य में अलग-अलग सरकारें आदि। इसको और विस्तार से समझते है-
- लिखित संविधान : लिखित संविधान होने से संघ बनाने वाली इकाइयों की केंद्र अपनी सुविधानुसार या मनमाने तरीके से उनकी विषय सूची को आसानी से बदल नहीं सकता। इसमें आसानी से संशोधन भी नहीं किया जा सकता। केंद्र राज्य संबंधों से जुड़े सभी संवैधानिक प्रावधानों को केवल राज्य विधानसभाओं और केंद्रीय संसद की संयुक्त कार्यवाही से ही बदला जा सकता है, जिसे कम से कम आधे राज्यों का समर्थन प्राप्त हो।
- संविधान की सर्वोच्चता : केंद्र और राज्यों द्वारा पारित कानून संविधान सम्मत होना चाहिए। राज्य का कोई अंग संविधान के किसी प्रावधान का उल्लंघन करता है तो न्यायालय उसकी गरिमा को बनाए रखना सुनिश्चित करता है।
- शक्तियों का विभाजन : किसी भी संघ में शक्तियों का स्पष्ट विभाजन होना चाहिए ताकि राज्य और केंद्र अपने-अपने क्षेत्र में रहकर कानून बना सकें और लागू कर सकें। कोई भी किसी की सीमा या कार्य का अतिक्रमण न कर सके। संविधान की सातवीं अनुसूची में तीन प्रकार की अनुसूचियां है। संघीय सूची, राज्य सूची और समवर्ती सूची। संघीय सूची में 97 विषय शामिल हैं, जिसमें मुख्य रूप से मुद्रा, विदेश नीति, युद्ध और संधि, डाक-तार, रक्षा से जुड़े विषय हैं। राज्य सूची में 66 विषय शामिल किए गए हैं जिसमें कृषि, पुलिस, प्रशासन, सिंचाई, स्वस्थ्य, न्याय इत्यादि प्रमुख विषय है। सीमावर्ती सूची में 47 विषय है, जिसमें विवाह, तलाक, शिक्षा, व्यापार, बिजली, अर्थव्यवस्था शामिल किए गए हैं। संघीय सरकार को संघीय सूची के विषयों पर और राज्य सरकारों को राज्य सूची के विषयों पर कानून बनाने की विधायी शक्ति है। समवर्ती सूची पर केंद्र और राज्य दोनों कानून बना सकते हैं। टकराव या विवाद की स्थिति में केंद्र का कानून मान्य होगा। अगर कोई ऐसा मुद्दा खड़ा होता है जिसका तीनों सूचियों में सटीक व्याख्या न मिलती हो उस पर कानून बनाने का अधिकार संघीय सरकार को है।
- स्वतंत्र सर्वोच्च न्यायालय: यदि संघ या राज्य द्वारा कोई कानून पास किया जाता है, जो संविधान के अनुरूप नहीं है उसे सर्वोच्च न्यायालय असंवैधानिक करार करके रद्द कर सकता है।
- द्विसदनीय विधायिका : संघीय व्यवस्था में द्विसदनीय विधायिका- राज्यसभा (जिसके सदस्यों का निर्वाचन राज्यों की विधानसभाएं करती हैं) और लोकसभा (जिसे देश के वयस्क नागरिकों द्वारा चुना जाता है।) यह सभी विशेषताएं एक संघीय व्यवस्था (संघीय सरकार, राज्यों का संघ) की है जो भारत में मौजूद है।
संघ के बारे में विभिन्न विद्वानों के विचार
प्रोफेसर व्हेयर के अनुसार “संघीय शासन में राज्य की समस्त शक्तियां दो सरकारों- केंद्र और राज्य के बीच बंटी होती हैं। दोनों में से कोई सर्वोच्च शक्ति से युक्त नहीं होती हैं और दोनों अपने-अपने क्षेत्र में स्वतंत्र हैं। केंद्रीय और राज्य सरकारों को संविधान से शक्तियां मिली होती हैं। संविधान में संशोधन के बिना उनकी शक्तियों को घटाया-बढ़ाया नहीं जा सकता है। केंद्र और राज्यों के बीच शक्तियों के विभाजन का स्वरूप प्रत्येक देश की अपनी स्थिति पर निर्भर करता है। फिर भी वैदेशिक मामले, युद्ध तथा संधि, सिक्के, मुद्रा, डाक-तार और रक्षा आदि ऐसे विषय हैं जिन्हें सदैव केंद्रीय सरकार के अधीन रखा जाता है। पुलिस, जेल, न्याय, प्रबंध, शिक्षा, कृषि, स्वास्थ्य और इसी तरह की अन्य शक्तियां प्राय: राज्यों के अधीन रखी जाती हैं।”
हैमिल्टन के अनुसार – “संघात्मक राज्य ऐसे राज्यों का समुदाय है जो एक नए राज्य का निर्माण करते हैं।”
गार्नर के अनुसार – “संघात्मक शासन वह प्रणाली है जिसमें केंद्रीय तथा स्थानीय सरकार एक ही प्रभुसत्ता के अधीन होती हैं यह सरकारें अपने-अपने क्षेत्रों में सर्वोच्च होती हैं।”
फाइनर के अनुसार – संघात्मक राज्य उसे कहते हैं जिसमें अधिकार व शक्ति का एक भाग क्षेत्रों के पास हो और दूसरा भाग एक केंद्रीय संस्था के पास जिसका निर्माण स्थानीय क्षेत्रों ने अपनी इच्छा से मिलकर किया हो।
संविधान निर्माण सभा ने अन्य समितियों के साथ संघीय संविधान समिति और संघीय संविधान की वित्तीय प्रावधानों की समिति का गठन किया था, जिसने समय-समय पर अपनी रिपोर्ट संविधान सभा में प्रस्तुत किया।
6 जून 1947 को नेहरू की अध्यक्षता में संघीय संविधान समिति की बैठक की गई जिसमें राजेन्द्र प्रसाद, आजाद, पन्त, जगजीवन राम, अंबेडकर, अय्यर, मुंशी, शाह, एस.पी मुखर्जी, वी.टी कृष्णामाचारी, पणिक्कर, एन.जी अयंगर तथा पी. गोविंद मेनन ने भाग लिया। इन सदस्यों ने निम्नलिखित निर्णय लिया-
- एक सशक्त केंद्र सहित संविधान का स्वरूप संघीय होगा।
- संविधान में तीन विस्तृत विधायी सूचियां होंगी और अवशिष्ट (जो विषय तीनों सूची में शामिल नहीं है) शक्तियां केंद्र सरकार में निहित होंगी। संघीय सूची की दृष्टि से रियासतों का दर्जा विशेष मामलों में अन्य प्रांतों के समक्ष होना चाहिए।
- सामान्य रूप से कहा जाए तो संघ का कार्यकारी प्राधिकार उसके विधायी प्राधिकार के समव्यापी होना चाहिए।
7 जून 1947 को दोनों संघीय समितियों की सयुक्त बैठक में निर्णय लिया गया कि भारत को स्वायत्त इकाइयों के एक ऐसे संघ का रूप दिया जाये, जिसमे इकाइयाँ केंद्र को कुछ विशिष्ट शक्तियां प्रदान करती हों। अंततः सदस्यों ने संघीय संविधान समिति की अनुशंसाओं के पक्ष में वोट दिया।
5 जुलाई 1947 को संघीय शक्तियों की समिति ने अपनी दूसरी रिपोर्ट में कहा कि हमारे संविधान का सबसे सुघड़ ढांचा एक सशक्त केंद्र वाली संघीय व्यवस्था में फलीभूत होती है।
डॉ. अंबेडकर कहते हैं कि यह संविधान उस सीमा तक एक संघीय संविधान है जिस सीमा तक वह एक दोहरे राजनीतिक तंत्र को प्रश्रय देता है …जिसमें संविधान केंद्र के स्तर पर संघ तथा परिधि पर राज्यों को उनके निर्धारित क्षेत्रों में संप्रभु शक्तियां प्रदान करता है।
संविधान के अनुच्छेद 19 में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार देश के सभी नागरिकों को मिला हुआ है। इस अधिकार के अंतर्गत हम अपने विचारों को व्यक्त करने के लिए स्वतंत्र हैं। हम भारत को राष्ट्र, राज्य, राज्यों का संघ, विश्व गुरु, जो चाहे कहें इस पर कोई रोक नहीं है। यह कहने का अधिकार हमारा है। हम कह सकते हैं कि सबसे पहला क्लोन भारत में बना जिसकी खोज वाल्मीकि ने की और लव का प्रतिरूप (कार्बन प्रति) कुश को पैदा किया, इसके लिए क्लोन के जनक इयान बिल्मुट कोल और कीथ कैम्पबल हमारे ऊपर कोई मानहानि का दावा नहीं करने वाले हैं। कोई अगर यह दावा करता है कि विमान की खोज सबसे पहले भारत में हुई (पुष्पक विमान) तो राइट बंधु, परमाणु हथियार का प्रयोग महाभारत में हुआ तो नाभिकीय हथियार के जनक रॉबर्ट ओपेनहाइमर कोई मुकदमा नहीं करेंगे।
भारत के संविधान का निर्माण प्राचीन ग्रंथों (वेद, पुराण, उपनिषद, रामायण, महाभारत, मनुस्मृति, या चाणक्य के अर्थशास्त्र) के अनुसार अथवा उनके अध्ययनों के निचोड़ से नहीं हुआ है। इसके लिए दुनिया के विभिन्न देशों के संविधान का गहन अध्ययन किया गया और उसके बाद 10 देशों के संविधान की मदद ली गई-
- संयुक्त राज्य अमेरिका – अमेरिका से मौलिक अधिकार, निर्वाचित राष्ट्रपति और उस पर महाभियोग, उच्चतम एवं उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों को हटाने की विधि एवं वित्तीय आपात, न्यायपालिका की स्वतंत्रता को संयुक्त राज्य अमेरिका से लिया गया है।
- ब्रिटेन – ब्रिटेन से संसद की शासन प्रणाली, नागरिकता, कानून निर्माण प्रक्रिया, मंत्रिमंडलीय प्रणाली को लिया गया।
- आयरलैंड – आयरलैंड से नीति-निर्देशक सिद्धांत राष्ट्रपति द्वारा राज्यसभा में कला, खेल, विज्ञान, साहित्य के क्षेत्रों से सदस्यों का चुनाव।
- ऑस्ट्रेलिया – ऑस्ट्रेलिया से संविधान की प्रस्तावना की भाषा, केंद्र और राज्य के बीच शक्तियों का बंटवारा, दोनों सदनों की संयुक्त बैठक को लिया गया है।
- जर्मनी – आपातकाल के समय राष्ट्रपति के मौलिक अधिकार और उस समय किन-किन मूल अधिकारों का परिवर्तन होगा, इसे जर्मनी के संविधान से लिया गया है।
- साउथ अफ्रीका – संविधान संशोधन की प्रक्रिया, राज्यसभा सदस्यों का निर्वाचन दक्षिण अफ्रीका से लिया गया है।
- सोवियत संघ – मौलिक कर्तव्य सोवियत संघ के संविधान से लिया गया।
- जापान – जापान के संविधान से विधि द्वारा संविधान को स्थापित करने की प्रक्रिया ली गई।
- कनाडा – कनाडा से केंद्र द्वारा राज्यपाल की नियुक्ति, महत्वपूर्ण शक्तियां केंद्र के पास होने का प्रावधान लिया गया।
- फ्रांस – फ्रांस के संविधान से स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व लिया गया है।
दुनिया के 60 देशों के संविधानों का अध्ययन करने के उपरांत उपरोक्त 10 आधुनिक देशों के संविधानों की मदद से दुनिया के सबसे बड़े लिखित भारतीय संविधान का निर्माण किया गया। स्वाभाविक है इन दसों देशों की शासन प्रणाली का भारत पर पूरा-पूरा प्रभाव तो है ही, उन देशों का भी प्रभाव है जिनके संविधान का अध्ययन किया गया। कोई भी व्यक्ति अगर भारत के संदर्भ में संवैधानिक रूप से बात करेगा तो उसे उन दसों देशों की शासन प्रणाली, उसके आर्थिक, राजनीतिक सामाजिक और सांस्कृतिक ढांचे का अध्ययन करना पड़ेगा और उसे जानना समझना पड़ेगा। तब हम आधुनिक भारत की बात कर सकेंगे।
भारत मनुस्मृति, चाणक्य के अर्थशास्त्र, वेद या पुराण से संचालित नहीं है। मौर्य साम्राज्य, मुगल साम्राज्य या ब्रिटिश साम्राज्य के नियम कानून से भी संचालित नहीं है। फिर उस समय की अवधारणा आज के संदर्भ में कैसे सही हो सकती है?
लेखक वरिष्ठ सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ता हैं
Cover Illustration: Lake Gadisar designed by ranganath krishnamani, Pinterest