हम सभै भारत देस औ हियाँ के सब मानुस के सेवा की ताईं जुहाइ कै किरिया उठावा जाय…
अब हम अपने भारतमाता का हिरदय से नमन करत हई, जेका अपने सब सबसे ज्यादा पियार कीन जात है, जउन बहुत पुरान अहै, जउन जनम-जनम से जगमगात अहै, औ जउन सबसे नई अहै
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अब हम अपने भारतमाता का हिरदय से नमन करत हई, जेका अपने सब सबसे ज्यादा पियार कीन जात है, जउन बहुत पुरान अहै, जउन जनम-जनम से जगमगात अहै, औ जउन सबसे नई अहै
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अपने आसपास की दुनिया को ध्यान से पढ़ने वाले सभी लोगों को पहले से लग रहा था कि इस महामारी को डिजिटल तकनीकी के प्रसार के लिए बहाने के तौर पर प्रयोग किया जायेगा. यह आशंका सही सिद्ध हो गयी है।
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आज भारत के प्रधानमंत्री ने इस पर पहले जैसी रस्म-अदायगी के तौर पर भी कुछ नहीं कहा है जबकि उनके ट्विटर पर मंदिर की भव्यता और ऐतिहासिकता पर एक दर्जन से अधिक टीपें शाया हुई हैं.
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कश्मीर से अनुच्छेद 370 को हटे 5 अगस्त 2020 को एक साल पूरा हुआ। इस मौके पर वरिष्ठ पत्रकार जितेंद्र कुमार ने मशहूर डाक्यूमेंट्री निर्माता फिल्मकार संजय काक से कश्मीर पर बात की।
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उनकी मृत्यु एक लंबी बीमारी के बाद 28 अप्रैल 2010 को लखनऊ के मेयो अस्पताल में हो गई। उनकी मृत्यु का दुख उनके कुछ थोड़े-से मित्रों और लंबे समय तक सहयोगी मीरा बहन ने ही महसूस किया। लखनऊ से बाहर चिनहट में अक्षय ब्रह्मचारी आश्रम है जो आज भी इस अयोध्या के गांधी का कार्य आगे बढ़ाने में लगा हुआ है।
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यह स्पष्ट है कि अयोध्या रणनीति का विचार यहीं पैदा हुआ। साथ ही इसमें एक उपहास का भाव भी मिला हुआ था कि योजना व्यावहारिक हो भी सकती है या नहीं?
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पूर्ण रोजगार की एक नीति के सभी विचारों को नीतिगत चर्चा से दूर रखा जाता है और बेरोजगारी एवं विनाश को बढ़ने दिया जाता है. यह कदम मजदूरी को लेकर मोलभाव करने की मजदूरों की शक्ति को कमजोर करने की नीयत से सिर्फ मजदूरों की एक आरक्षित सेना नहीं बनाये रख रहा है, बल्कि मज़दूरों की उनकी औकात भी दिखाता है.
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आपराधिक अवमानना पर एक कानून की आवश्यकता की समीक्षा करने से आगे बढ़कर अवमानना के पैमाने का भी मूल्यांकन किये जाने की ज़रूरत है। यदि ऐसा कोई पैमाना वास्तव में होना ही चाहिए, तो वो यह हो कि क्या सवालिया टिप्पणी कोर्ट को उसका काम करने से रोके दे रही है। इसके अतिरिक्त, संस्थान की कैसी भी आलोचना को रोकने का साधन इसे नहीं बनने देना चाहिए।
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ये कहानी है इस चमचमाते हुए देश में गांव के एक गरीब की। मरते हुए किसान की। सताए गए दलित की। बिलखते हुए बच्चों की।
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आनंद स्वरूप वर्मा की एक टिप्पणी का अंश जो उनकी पुस्तक ‘पत्रकारिता का अंधा युग’ से लिया गया है।
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