फर्जी मुठभेड़ों को सभी सियासी दलों की स्वीकृति का दो दशक पुराना इतिहास


देखा गया है कि न्यायालय तक पहुँचने से पहले ही अपराधियों को मुठभेड़ दिखा कर खत्म कर देने के तरकीब को आम तौर पर लोगों की स्वीकृति मिल रही है। पिछले वर्ष हैदराबाद में हुई ‘मुठभेड़’ पर सवाल उठाने वालों के खिलाफ तो कुछ लोगों ने बाकायदा अपने नाम से यह टिप्पणी की कि इन मानव अधिकारवादियों का भी एनकाउंटर कर देना चाहिए। ‘अपराधों  से निबटने के लिए अदालत की मदद लेना बेकार है क्योंकि कानूनी प्रक्रिया बेहद लम्बी है, इसमें अनेक ऐसे सुराख हैं जिनसे होकर अपराधी निकल जाते हैं’- यह अवधारणा किस तरह राजनेताओं से होते हुए बुद्धिजीवियों और मीडिया तक पहुंची तथा अब यह धीरे-धीरे आम आदमी के मन मस्तिष्क में घर करती जा रही है, यह एक समाजशास्त्रीय अध्ययन का विषय है। अदालतों और पुलिस व्यवस्था में व्याप्त भ्रष्टाचार का निवारण कैसे किया जाय अथवा अदालती प्रक्रिया को कैसे आसान बनाया जाय ताकि फैसले जल्द से जल्द हों, इस पर विचार न करके इस समूची प्रक्रिया को नकारने की ही अवधारणा स्थापित होने लगी है। लंबे समय से हम देख रहे हैं कि सभी पार्टियों की सरकारें किसी न किसी रूप में फर्जी मुठभेड़ों को स्वीकृति देती रही हैं… प्रस्तुत है इस विषय पर आनंद स्वरूप वर्मा की एक टिप्पणी का अंश जो उनकी पुस्तक ‘पत्रकारिता का अंधा युग’ से लिया गया है।   

…अब से तकरीबन सोलह साल पूर्व मार्च 2004 में एक निजी चैनल पर चल रही चर्चा के दौरान महाराष्ट्र के पूर्व गृहराज्य मंत्री कृपा शंकर सिंह (जो उस समय कांग्रेस पार्टी में थे) ने दलील दी कि कुख्यात अपराधियों का सफाया करने के लिए अगर पुलिस ‘एनकाउंटर’ का सहारा लेती है तो इसमें कुछ भी गलत नहीं है। यहां एनकाउंटर से उनका तात्पर्य फर्जी मुठभेड़ से था क्योंकि उन्होंने यह भी कहा कि अपराधियों को पकड़ कर अगर कानूनी कार्रवाई की जाती है तो लंबी और जटिल प्रक्रिया तथा पर्याप्त सबूत न मिलने का लाभ उठा कर वे छूट जाते हैं और फिर अपराधों में लिप्त हो जाते हैं। कृपा शंकर सिंह के बगल में बैठे अभिनेता नाना पाटेकर ने भी जोरदार ढंग से इस दलील का समर्थन किया। फर्जी मुठभेड़ों पर आधारित उनकी फिल्म ‘अब तक छप्पन’ अभी रिलीज नहीं हुई थी लेकिन यह चर्चा जोरों पर थी कि इस तरह की मुठभेड़ों के लिए चर्चित महाराष्ट्र पुलिस के इंस्पेक्टर दया नाइक से प्रेरणा लेकर यह फिल्म बनायी गयी है। चर्चा में गौर करने वाली बात यह थी कि कृपाशंकर शुक्ल और नाना पाटेकर की दलीलों से उस कार्यक्रम में उपस्थित काफी लोग सहमत नजर आ रहे थे। पत्रकार निखिल वागले और एक–दो मानव अधिकार कार्यकर्ताओं के अलावा कोई भी इस दलील का विरोध नहीं कर रहा था।

पिछले कुछ वर्षों से बहुत सुनियोजित ढंग से यह प्रचार चलाया जा रहा है कि कानूनी प्रक्रिया इतनी दोषपूर्ण है कि अब इसका सहारा लेकर अपराधियों से नहीं निपटा जा सकता। मजे की बात यह है कि यह प्रचार उन्हीं पार्टियों द्वारा किया जा रहा है जिनके नेता खुद इस प्रक्रिया का लाभ उठाकर सीना ताने घूम रहे हैं।

इस सिलसिले में कुछ अति महत्वपूर्ण और जिम्मेदार पदों पर बैठे नेताओं के बयान चौंकाने वाले हैं। 20 अप्रैल 1998 को उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री कल्याण सिंह (भाजपा) ने राज्य में कानून एवं व्यवस्था की स्थिति की समीक्षा के लिए एक उच्चस्तरीय बैठक बुलायी थी। उस बैठक में दिए गए उनके वक्तव्य का यह अंश गौर करने लायक है–‘’दो तीन बातों की ओर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है। नंबर एक–गिरोहों और गैंग का चिन्हीकरण और कुल लक्ष्य निर्धारित करके उनका लिक्वीडेशन…हमारा अभियोजन पक्ष भी मजबूत होना चाहिए…आपको हमारी ओर से लिबर्टी चाहिए, हम देने को तैयार हैं। हमें परफारमेंस चाहिए, परिणाम चाहिए, दुनिया मेरी और आपकी परिस्थितियों को बाद में देखेगी, पहले परिणाम देखना चाहेगी। आज की बैठक में यहां से संकल्प लेकर जा रहे हैं कि 15 मई तक हम धमक पैदा कर देंगे। कुछ इस किस्म के नामी गिरामी अपराधियों के साथ मुठभेड़ में, अगर इनकाउंटर में वे लिक्वीडेट हो जाते हैं दैन डू इट…’’। इसके दो महीने बाद 29 जून 1998 को उत्तर प्रदेश विधान सभा में कल्याण सिंह ने अपने एक वक्तव्य में कहा- ‘‘श्रीमन, आपको पता है, मैं बता चुका हूं कि 10 बड़े-बड़े माफियाओं का चिन्हीकरण कर लिया गया है, टास्क फोर्स बन गई है, उसमें जांबाज नौजवान और अधिकारी हैं, उनके लिक्वीडेशन के लिए कसम खाकर हमारे जवान लगे हुए हैं…’’।

1 नवंबर 2000 को उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री राजनाथ सिंह ने पुलिस को निर्देश दिया कि ‘अगर वे एक मारें तो आप चार मारें’। राजनाथ सिंह की इस घोषणा से उत्साहित होकर 9 मार्च 2001 को मिर्जापुर के भवानीपुर गांव में 16 दलितों, खेत मजदूरों और छात्रों को पुलिस ने नक्सलवादी बताकर मार डाला। इस तथाकथित मुठभेड़ में कक्षा सात और कक्षा नौ के दो विद्यार्थियों क्रमशः हरिनारायण और सुरेश को भी पुलिस ने मार गिराया। इसके बाद पुलिस ने यह प्रचारित किया कि सुरेश नामक जो व्यक्ति मारा गया है वह कुख्यात अपराधी सुरेश बियार है। 14 मार्च को इस फर्जी मुठभेड़ के विरोध में मिर्जापुर कचहरी में एक सभा हुई जिसमें सुरेश बियार को लोगों ने मंच पर बुला कर जनता को दिखाया और पुलिस की इस तथाकथित मुठभेड़ का पर्दाफाश हो गया। इस जघन्य हत्याकांड को जायज ठहराने के लिए राजनाथ सिंह ने हत्यारे पुलिसकर्मियों को लाखों रुपए के पुरस्कार दिए और उन्हें पदोन्नतियां दीं।

उपरोक्त बयान भाजपा नेताओं के थे। लेकिन अगर कोई मार्क्सवादी भी इसी तरह की भाषा का इस्तेमाल करे तो आप क्या कहेंगे? पश्चिम बंगाल के तत्कालीन मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य ने कोलकाता में दो नये पुलिस थानों का उद्घाटन करते हुए 25 दिसम्बर 2000 को अपने भाषण में पुलिस को सलाह दी कि वह ‘सरकार द्वारा दी गयी बंदूकों का खुलकर इस्तेमाल करे’। उन्होंने आगे कहा-‘‘जरूरत पडे़ तो गोली मार दो–मानव अधिकारों की चिंता मत करो। मैं आगे देख लूंगा।’’ उनके इस बयान के बाद अखबारों में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार पश्चिम बंगाल के एक पुलिस अधिकारी ने कहा कि राज्य का मानव अधिकार संगठन अपराधियों के अधिकारों को हिफाजत देने वाला संगठन है।

2 सितंबर 2001 को तत्कालीन गृहमंत्री लालकृष्ण आडवाणी ने घोषणा की कि ‘आतंकवाद के खिलाफ संघर्ष करने वाले सुरक्षाकर्मियों को संविधान के दायरे में रखकर राहत प्रदान करने पर गंभीरता से विचार किया जा रहा है।’ उनकी इस घोषणा से पंजाब पुलिस के उन लगभग 700 जवानों को राहत मिलने की उम्मीद हुई जिनके खिलाफ मानवाधिकार उल्लंघन के मामले दर्ज थे। इस संदर्भ में पंजाब में अकाली दल की मानव अधिकार शाखा के अध्यक्ष जसवंत सिंह कालड़ा के मामले को याद किया जा सकता है जिन्होंने 1995 में काफी दौड़-धूप करने के बाद ऐसे हजारों लोगों के सामूहिक तौर पर किये गये दाह संस्कार का मामला उजागर किया था जिन्हें पुलिस ने अपने रजिस्टर में ‘अज्ञात’ घोषित कर रखा था। पुलिस ने अपनी डायरी में यह दिखाया कि इन लाशों को क्लेम करने वाला कोई नहीं था। पंजाब उच्च न्यायालय ने इस संदर्भ में दायर की गयी एक याचिका को ‘बेहद अस्पष्ट’ कहते हुए खारिज कर दिया था लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इसे स्वीकार कर लिया। इसके बाद कालड़ा के खिलाफ पंजाब पुलिस हाथ धोकर पड़ गयी। 6 सितंबर 1995 को पंजाब पुलिस के कुछ कमांडो सादी वर्दी में कालड़ा के घर पहुंचे और उन्हें वहां से उठा लिया। उस समय से आज तक कालड़ा का कोई पता नहीं है। कालड़ा के साथियों और सहकर्मियों द्वारा दिए गए हलफनामे के अनुसार तरन तारण जिले के वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक अजीत सिंह संधू की ओर से कालड़ा को लगातार धमकियां मिल रही थीं। हलफनामा देने वालों में सिख गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी के तत्कालीन अध्यक्ष गुरचरण सिंह तोहड़ा, पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश अजीत सिंह बेंस, मानव अधिकारवादी जसपाल सिंह ढिल्लों आदि थे। सीबीआई ने अपनी जांच के बाद तरन तारण के एसएसपी अजित सिंह संधू के अधीनस्थ अफसरों को कालड़ा के अपहरण के लिए जिम्मेदार ठहराया। समूचे कांड के मुख्य अभियुक्त और के.पी.एस.गिल के ‘आतंकवाद विरोधी मुहिम के घनिष्ठ योद्धा’ तरन तारण के एसएसपी अजित सिंह संधू को जब लगा कि अब वह भी चपेट में आने वाले हैं तो उन्होंने चलती ट्रेन के सामने कूदकर आत्महत्या कर ली।

इसके बाद तो के.पी.एस.गिल मानव अधिकार संगठनों के पीछे हाथ धोकर पड़ गए। गिल ही नहीं, अनेक बुद्धिजीवियों ने भी अखबारों के जरिए अपने इन विचारों को व्यक्त किया जिससे यही निष्कर्ष निकलता था कि मानव अधिकार संगठनों की वजह से आतंकवाद पर अंकुश नहीं लग पा रहा है। इस तर्क को आगे बढ़ाते हुए कुछ ने तो यहां तक राय व्यक्त कर दी कि ‘अपराधों’ से निबटने के लिए अदालत की मदद लेना बेकार है क्योंकि कानूनी प्रक्रिया बेहद लम्बी है, इसमें अनेक ऐसे सुराख हैं जिनसे होकर अपराधी निकल जाते हैं। लिहाजा इन्हें देखते ही गोली मार देनी चाहिए। के.पी.एस.गिल और अजित सिंह संधू की यह अवधारणा किस तरह राजनेताओं से होते हुए बुद्धिजीवियों और मीडिया तक पहुंची तथा अब यह धीरे-धीरे आम आदमी के मन मस्तिष्क में घर करती जा रही है–यह एक समाजशास्त्रीय अध्ययन का विषय है। अदालतों में किस कदर भ्रष्टाचार व्याप्त है और उसका निवारण कैसे किया जाय अथवा अदालती प्रक्रिया को कैसे आसान बनाया जाय ताकि फैसले जल्द से जल्द हों, इस पर विचार न करके इस समूची प्रक्रिया को नकारने की ही अवधारणा स्थापित होने लगी। इस आलेख के प्रारंभ में कल्याण सिंह के विधानसभा वाले बयान का विरोध करते हुए जब उत्तर प्रदेश पीयूसीएल ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय में एक जनहित याचिका दायर की तो अदालत ने उसे अनेक तकनीकी कारणों के आधार पर खारिज कर दिया। अदालत ने एक दिलचस्प बात यह कही कि ‘हो सकता है कि कल्याण सिंह को अंग्रेजी के लिक्वीडेशन शब्द का अर्थ न मालूम हो।’ जहां न्यायपालिका ऐसी हास्यास्पद स्थिति में उपस्थित हो रही हो वहां न्याय की उम्मीद कैसे की जा सकती है।

उन दिनों समय समय पर दिये गये अपने वक्तव्यों में गृहमंत्री आडवाणी ने जम्मू कश्मीर और पूर्वोत्तर के राज्यों में काम कर रहे सुरक्षाकर्मियों की दिक्कतों को विशेष रूप से रेखांकित किया। आतंकवाद से निबटने के लिए जायज-नाजायज हर तरीके का इस्तेमाल करने की दलील देने वाले गिल को आडवाणी की इस घोषणा से काफी राहत मिली। लेकिन जम्मू कश्मीर जैसे ‘अशांत’ क्षेत्रों की जनता ने क्या महसूस किया होगा जिसे हर रोज पुलिस और सेना की ज्यादतियों का सामना करना पड़ता है। गिल और उनके समर्थक छत्तीसिंह पीरा जैसी घटनाओं को कभी-कभार होने वाली भूल कह कर पल्ला झाड़ सकते हैं लेकिन जनता इसे भूल नहीं मानती। जरा हम एक बार छत्तीसिंह पीरा की घटना को याद कर लें। अब से कुछ वर्ष पूर्व अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति बिल क्लिंटन भारत पहुंचने ही वाले थे कि 20 मार्च 2000 को कश्मीर में छत्तीसिंह पीरा में सिखों के नरसंहार की दर्दनाक घटना हुई। सरकार की ओर से तुरत बयान जारी हुआ और कहा गया कि पाकिस्तान समर्थित आतंकवादियों ने यह हत्याकांड किया है। फिर 25 मार्च को अचानक पुलिस और सेना के कुछ जवानों ने अनंतनाग जिले में एक मुठभेड़ के दौरान पांच लोगों को मार गिराया और कहा कि ये वही विदेशी आतंकवादी थे जिन्होंने 20 मार्च को छत्तीसिंह पीरा में सिखों की हत्या की थी। इनकी अधजली लाशों को सैनिकों ने दफना दिया। अखबारों ने सुरक्षा बलों की कामयाबी की प्रशंसा की।

लेकिन मामला कुछ और था। गांव वालों का कहना था कि सुरक्षा बलों ने जिन्हें विदेशी और आतंकवादी बताकर मारा है वे तो उनके गांव के सीधे-साधे लोग थे जिनका आतंकवाद से दूर-दूर तक कोई रिश्ता नहीं था। गांव वालों का कहना था कि मारे गए लोगों के शवों को कब्र से निकाला जाय और उनकी डीएनए जांच करायी जाय ताकि पता चल सके कि वे विदेशी थे या कश्मीरी। 26 मार्च से ही इस मांग को लेकर गांव वाले धरने पर बैठे रहे और जब प्रशासन ने कोई सुनवायी नहीं की तो उन्होंने प्रदर्शन शुरू किया। प्रदर्शनकारियों पर पुलिस ने गोली चलायी जिसमें सात लोग मारे गए।

5 अप्रैल को सरकारी तौर पर आदेश जारी हुआ कि लाशों को कब्रों से निकाला जाय और उनके डीएनए की जांच की जाय। 6 अप्रैल को परिवारजनों ने उन लाशों की शिनाख्त की और साबित हुआ कि सुरक्षा बलों ने आतंकवादियों की नहीं बल्कि निर्दोष नागरिकों की हत्या की थी। किसी लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए यह बहुत बड़ी घटना है हालांकि आतंकवाद से निबटने के नाम पर 1970 के दशक के पश्चिम बंगाल से लेकर कल तक के पंजाब और आज के उत्तर पूर्व राज्यों में यह सिलसिला वर्षों से चल रहा है। अनंतनाग में पहली बार जनमत के दबाव के कारण घटनाओं ने ऐसा मोड़ लिया कि सरकारी एजेंसियां कटघरे में खड़ी दिखायी दीं।


इसे भी पढ़ें


About आनंद स्वरूप वर्मा

समकालीन तीसरी दुनिया के संस्थापक, संपादक और वरिष्ठ पत्रकार

View all posts by आनंद स्वरूप वर्मा →

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *