भारत सरकार की अफगान नीति पर हमारे सभी राजनीतिक दल और विदेश नीति के विशेषज्ञ काफी चिंतित हैं। उन्हें प्रसन्नता है कि तालिबान भारतीयों को बिल्कुल भी तंग नहीं कर रहे हैं और भारत सरकार उनकी वापसी में काफी मुस्तैदी दिखा रही है। वह जो भी कर रही है, वह तो किसी भी देश की सरकार का अनिवार्य कर्तव्य है लेकिन उसके कर्तव्य की इतिश्री यहीं नहीं हो जाती है।
अफगानिस्तान में भारतीय राष्ट्रहितों की रक्षा करना उसका पहला धर्म है। इस मामले में भारत सरकार लगातार चूकती हुई दिखाई पड़ रही है। विदेश मंत्री जयशंकर ने ताजा बैठक में आज जो सफाई पेश की है, वह बिल्कुल भी संतोषजनक नहीं है।
उनका कहना था कि तालिबान ने दोहा में जो समझौता किया था, उसका पालन नहीं हुआ है और भारत सरकार ने अभी तक ‘बैठे रहो और देखते रहो’’ (वेट एंड वाच) की नीति अपना रखी है। पता नहीं उस बैठक में आए नेताओं ने जयशंकर की इस मुद्दे पर खिंचाई की या नहीं? उन्हें जयशंकर से पूछना चाहिए था कि तालिबान और अफगान सरकार के बीच समझौता किसने करवाया था? क्या भारत सरकार ने करवाया था?
वह समझौता अमेरिका ने करवाया था। समझौता लागू न होने पर अमेरिका को नाराज़ होना था लेकिन उसकी जगह आप नाराज़ हो रहे हैं? यह नाराजी फर्जी है या नहीं? अमेरिका का सर्वोच्च जासूसी अफसर विलियम बर्न्स काबुल जाकर तालिबान नेताओं से बात कर रहा है और आप यहाँ दुम दबाए बैठे हैं। आप तो भागे हुए राष्ट्रपति अशरफ गनी से भी ज्यादा डरपोक निकले। उसे तो अपनी जान की पड़ी हुई थी। आपको तालिबान से क्या खतरा था?
क्या दोहा समझौते के बाद तालिबान ने एक भी भारत-विरोधी बयान दिया है? काबुल की आम जनता तालिबान से जितनी डरी हुई है, उससे ज्यादा आप डरे हुए हैं। आप हामिद करजई और डॉ. अब्दुल्ला जैसे भारत के परम मित्रों की मदद करने से भी डर रहे हैं। यदि आपकी यह दब्बू नीति कुछ हफ्ते और बनी रही तो निश्चय ही तालिबान को चीन और पाकिस्तान की गोद में बैठने के लिए आप मजबूर कर देंगे।
जरा ध्यान दें कि कल लंदन में हुई जी-7 की बैठक में अध्यक्ष ब्रिटिश सांसद टोम टगनधाट ने क्या कहा है। उन्होंने कहा है कि इस समूह में भारत को भी जोड़ा जाना चाहिए क्योंकि अफगान उथल-पुथल का सबसे ज्यादा दुष्प्रभाव भारत जैसे देश पर ही पड़ेगा।
यह कितनी बड़ी विडंबना है कि विदेश सेवा का एक अनुभवी अफसर हमारा विदेश मंत्री है और हमारे पड़ोस में हो रहे इतने गंभीर उथल-पुथल के हम मूक दर्शक बने हुए हैं। अफसोस तो हमारे राजनीतिक दलों के नेताओं पर ज्यादा है, जो अपने विवेक का इस्तेमाल नहीं कर रहे हैं।
नौकरशाहों की नीति है- बैठे रहो और देखते रहो, लेकिन नेताओं की नीति है कि बैठे रहो और सोते रहो।
(लेखक, अफगान मामलों के विशेषज्ञ हैं। वे अफगान नेताओं के साथ सतत संपर्क में हैं।)