तिर्यक आसन: हिन्दी के युवा, अर्ध-वरिष्ठ, वरिष्ठ और ठूँठ!


साहित्यिक वर्ष का लेखा-जोखा प्रस्तुत करने वाले साहित्य के प्रतिष्ठित साक्षात्कार व्यंग्य को हाशिये पर रखते हैं। कविता, कहानी, उपन्यास की तरह व्यंग्य की चर्चा नहीं करते। इसी तरह चर्चा कर दें- “इस वर्ष ऐसी कोई व्यंग्य रचना नहीं आई, जो उल्लेख करने योग्य हो।” खैर, किसी समकालीन को क्या दोष दूँ, व्यंग्य सदा से ही प्रतिष्ठित आलोचकों के लिए अबूझ पहेली के जैसा रहा है या उपेक्षा का शिकार रहा है। इसलिए व्यंग्य विसंगतियों पर प्रहार की जिम्मेदारी निभाने के साथ अपनी आलोचना भी कर लेता है। व्यंग्यकार इस जिम्मेदारी को बखूबी निभा भी रहे हैं। ‘स्वयं से साक्षात्कार’ कराने वाले व्यंग्यकार मेरे आदर्श हैं। उनसे प्रेरणा लेते हुए मैं ‘जो मन खोजा आपनो’ करूँगा। आलोचक बनने के लिए ईमानदार होने का अड़ंगा। इसलिए दूसरों की आलोचना की जगह अपनी आलोचना करूँगा।

शपथ पत्र

‘‘अपनी आलोचना करने के लिए मुझे अभिधा में व्यक्तिकेंद्रित होना पड़ेगा। आलोचना का विषयांतर व्यक्ति से प्रवृत्ति, व्यक्तिकेंद्रित से विसंगतिकेंद्रित और अभिधा से व्यंजना और लक्षणा होने की दशा में आलोचना को खारिज कर दिया जाए। कूड़ा घोषित कर दिया जाए।’’

उम्र के अनुसार मैं ‘युवा’ की श्रेणी में आता हूँ। इसी युवा पुरस्कार की घोषणा के साथ ही युवा की उम्र सीमा पर विवाद भी छिड़ता है। मैं वरिष्ठों के बारे में सोचने लगता हूँ- अकादमी और पीठ पाने के लिए क्या काँपती कलम के साथ लिखना अनिवार्य है? खैर, अपनी बात करता हूँ। युवा की बात। वरिष्ठ अपनी सोचें।


‘युवा’- वर्ष का विवादास्पद शब्द। विवादों में पिछले कई वर्षों से रहा है, पर स्मार्टफोन का घनत्व और सोशल मीडिया का प्रभाव बढ़ने से युवा के नाम पर होने वाले विवाद, उन घरों में भी पहुँच गए, जिन घरों में सिर्फ समाचारपत्र के पाठक रहते हैं।

वर्ष की चौथी तिमाही में दिल्ली में एक युवा कवि कुतुबमीनार के ऊपर चढ़ गया। कविता के सुधि पाठक और श्रोता बड़े खुश हुए- कवि कुतुबमीनार के मंच से कविता सुनाएगा। पर कवि तो नाराज था- मुझे युवा पुरस्कार क्यों नहीं मिला? रहस्य छंद के कवि को क्यों दिया गया? गुस्से में वीभत्स रस के कवि ने कविता की जगह रौद्र रस का भाषण देना शुरू किया। पुरस्कार न मिलने के गुस्से से उत्पन्न हुआ रौद्र रस करुणा उत्पन्न कर रहा था। कविता के सुधि पाठक और श्रोता, ये सोचकर कवि के भाषण पर वाह-वाह करते रहे कि थोड़ी देर में कवि के ऊपर शहर की हवा असर करेगी; कवि कविता सुनाना शुरू करेगा। हुआ भी यही। कवि के ऊपर शहर की हवा ने असर किया। कवि कुतुबमीनार से नीचे उतर आया और पुरस्कार देने वालों के दरवाजे की और बढ़ गया। समझौता हो गया- “भई, तुम तो वरिष्ठ हो। युवा पुरस्कार लेकर क्या करोगे? हम तुम्हें वरिष्ठ कवि की उपाधि दे देते हैं।”

वरिष्ठता भी एक उपलब्धि है। जिनको ये उपलब्धि मिलती है, वे इसका महत्व जानते हैं। इस उपलब्धि को प्राप्त करने के बाद उनकी मन:स्थिति पर कवि कैलाश गौतम का प्रकाश डालता हूँ- “मनै मन छोहारा मनै मन मुनक्का”।

हरिशंकर परसाई के अनुसार- “साहित्यिक पत्रिकाएँ ब्राहमण हैं, व्यंग्य शूद्र।” हालाँकि उनके समय में ही  व्यंग्य को शूद्र समझे जाने की धारणा में बदलाव हो चुका था। आज लगभग सभी पत्र-पत्रिकाएँ व्यंग्य को स्थान दे रही हैं। व्यंग्य के पराक्रम से सहमकर कई पत्र-पत्रिकाएँ व्यंग्य को ‘फिलर’ के रूप में भी प्रकाशित कर रही हैं। विसंगति प्रहारक व्यंग्य की बढ़ती प्रासंगिकता के बाद भी युवा शब्द पर होने वाला विवाद समाप्त नहीं हो रहा है!! युवा शब्द पर होने वाला विवाद समाप्त हो जाता, गर बढ़ती प्रासंगिकता के साथ साहित्य का वार्षिक लेखा-जोखा प्रस्तुत करने वाले व्यंग्य की दुनिया में हो रहे नए प्रयोगों और ईजाद की जा रहीं नई उपाधियों पर ध्यान देते। सोशल मीडिया के बढ़ते प्रभाव से साहित्यिक गोष्ठियाँ अब आनलाइन भी होने लगी हैं। साहित्य का वार्षिक लेखा-जोखा प्रस्तुत करने वालों को व्यंग्य की आनलाइन गोष्ठियों पर नजर रखनी चाहिए। युवा सहित कई विवादों का समाधान चुटकी बजाने जितनी मेहनत में ही मिल जाएगा। इसीलिए सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ ने कहा है- “गद्य अगर जीवन संग्राम की भाषा है, तो व्यंग्य इस संग्राम का सबसे शक्तिशाली शस्त्र”।

व्यंग्य ने युवा शब्द पर होने वाले विवाद का निपटारा वर्ष की दूसरी तिमाही में ही कर लिया था। अधेड़ावस्था में उदीयमान एक व्यंग्यकार के पहले व्यंग्य संग्रह के प्रकाशन के बाद एक समारोह के दौरान उन्हें ‘अर्ध-वरिष्ठ’ की उपलब्धि प्रदान की गई (अर्ध-वरिष्ठ जी क्षमा करें, उनकी उपलब्धि पर सवालिया निशान लगा रहा हूँ पर जैसा कि पहले ही बता चुका हूँ कि उपलब्धिविहीन होने का अपना दु:ख कम करने के लिए उपलब्धियों में वर्तनी दोष खोज सकता हूँ, हालाँकि इस उपलब्धि में भाव खोजना चाहिए- ये उपलब्धि है या किसी व्यंग्य रचना का शीर्षक)। उपलब्धि पाकर वे ‘मनै मन छोहारा मनै मन मुनक्का’ हुए।  

उदीयमान उम्र के बंधन से परे होता है। पचास पार की उम्र में भी उदित हो सकता है। ‘साहित्येतर गतिविधियाँ’ मजबूत हों, तब पचास पार की उम्र में उदित होने के बाद भी अगले दस-पंद्रह वर्ष तक युवा होने की उपलब्धि बरकरार रखी जा सकती है। भारत युवाओं का देश है, जनगणना के अनुसार ऐसा माना जाता है। देश का भविष्य युवाओं के कंधों पर है, ऐसा मतगणना के अनुसार माना जाता है। पार्टियाँ देश के भविष्य को ध्यान में रख, युवाओं को आकर्षित करने के लिए तमाम योजनाओं की घोषणा करती हैं। पर ये नहीं बतातीं कि योजना का लाभ जनगणना वाले युवाओं को मिलेगा या पार्टी वाले युवाओं को। 

61 वर्ष औसत आयु वाले देश का युवा मतदाता उम्र के एक पड़ाव के बाद युवा होने का मोह त्याग देता है, पर वरिष्ठ कहे जाने से बचने के लिए सौंदर्य प्रसाधनों के माध्यम से जवान नजर आने की कोशिश करता है। कृत्रिम सौंदर्य को ना-पसंद करने वाले साफगोई पसंद युवा सौंदर्य प्रसाधनों का उपयोग नहीं करते। या न्यूनतम करते हैं।  

पार्टी वाला युवा, तब तक खुद को युवा रखने की जिद ठाने रखता है, जब तक उसे पार्टी में कोई ऊँचा पद न मिल जाए। जिस दिन पद मिलता है, उस दिन वरिष्ठ कहे जाने के लिए राजी होता है। पद मिलने की कीमत के रूप में वो पार्टी कोष में अपनी युवावस्था जमा करता है- पार्टी आलाकमान से मेरी गुजारिश है कि मेरे बाद जो इसके साथ न्याय करने योग्य हो, उसे दी जाए। पद न मिलने से नाराज कई साठ-पैंसठ की उम्र में भी युवा बने रहते हैं। वे ता-उम्र युवा नेता रह जाने की कसक लिए काल के क्रूर पंजों का शिकार हो जाते हैं।


इधर एक साहित्यकार हैं। वे ता-उम्र युवा बने रहना चाहते हैं। खुद को दी जाने वाली सुपरिचित, ख्यातिलब्ध, प्रतिष्ठित साहित्यकार की उपलब्धियों को खारिज कर देते हैं। क्योंकि युवावस्था पार कर चुके साहित्यकारों को मिलने वाली उपलब्धियों में उनकी नहीं ‘चलती’। युवा पुरस्कारों, विशेषांकों में उनकी ही चलती है। 

भारतीय औसत आयु को पार करने के दशकों बाद उनकी मृत्यु होगी, तब मुझे दु:ख होगा। मृत्यु का दु:ख सबको होता है, मुझे विशेष दु:ख होगा; साहित्यिक दु:ख- 90 वर्ष की अल्पायु में ही काल के क्रूर पंजों ने एक ता-उम्र युवा को हमसे छीन लिया। भविष्य में काल किसी ता-उम्र युवा के साथ ऐसा क्रूर मजाक न कर पाए, इसके लिए मैं साहित्य के पंच परमेश्वरों से आग्रह करूँगा कि वे युवावस्था की उम्र और बढ़ा दें। ताकि काल 120 वर्ष के पहले ता-उम्र युवाओं की तरफ देखने का दु:साहस न कर सके।

पचास पार के साफगोई पसंद युवा भी होते हैं। युवा बनकर अर्जित की गई उपलब्धियों की गठरी ढोते-ढोते जब पैर काँपने लगते हैं, तब घोषणा करते हैं- 

“मैं युवाओं के अधिकार पर चेष्टा जताने की कुचेष्टा नहीं कर सकता। अतएव, मैं बिना किसी दबाव के अपने पूरे होशो-हवास में घोषणा करता हूँ- मैं अब युवा नहीं रहा।”

– “आपके ‘रिकॉर्ड’ को देखते हुए कैसे भरोसा कर लें? शपथ पत्र दीजिए”! 

– “ठीक है, आज के बाद मैं अपने बालों में खिजाब नहीं लगाऊँगा।”

– “साहित्य में बूढ़े तो आप उसी दिन हो गए थे, जब अपने साहित्य का युवापन, नयापन बचाए रखने के लिए नए विचारों पर सोच-विचार किए बिना ही उन्हें खारिज करना शुरू कर दिया था। नए विचारों पर प्रतिबंध लगा दिया था- उन पर विचार करने वालों को साहित्यद्रोही घोषित कर दिया जाएगा। बिना विचारे खारिज कर आपने अपनी गम्भीरता की जड़ता का परिचय दे दिया था।”

बालों में खिजाब न लगाने का शपथ पत्र देने के बाद भी युवा से उनका मोह नहीं छूटा। युवा पुरस्कारों या विशेषांकों की घोषणा सुनकर शपथ पत्र का उल्लंघन करते हैं। एक-एक सफेद बाल गिनते हैं- अभी आधे ही तो सफेद हुए हैं!  

बालों में खिजाब मुझे बारह-पंद्रह वर्ष की उम्र से ही लगाना पड़ रहा है। तीन-चौथाई बाल उस उम्र में ही सफेद हो गए थे। मैं बारह-पंद्रह वर्ष की उम्र से ही बुजुर्ग चला आ रहा हूँ। मेरी युवावस्था आई ही नहीं। बचपन के बाद सीधे बुढ़ापा। युवावस्था पर बालों की सफेदी ‘जम्प’ मार गई। 

बचपन का एक मित्र मुझे बारह-पंद्रह वर्ष की उम्र से ही ‘का बुढ़े’ कहकर बुलाता है। मामा मुझे ‘ठूँठे’ कहते हैं। मैं बुरा नहीं मानता। मैं प्रयोगधर्मी बूढ़ा हूँ। बालों में एक ही रंग का प्रयोग हमेशा नहीं करता। रंगों के साथ प्रयोग करता रहता हूँ। प्रयोगधर्मिता मेरे बालों की सफेदी को युवावस्था के रंग में रँग देती है। देखने वाले कहते हैं- युवा है! 


एक युवा साहित्यकार हैं, उम्र के अनुसार भी। बेहद गम्भीर। साफगोई पसंद। दिखावा पसंद नहीं करते। युवावस्था में कदम रखते ही, उनके बालों ने सफेदी में कदम रख दिया था। वे अपने बालों की सफेदी नहीं ढँकते। कहते हैं- “मैं अंदर (बाल अंदर से बाहर आते हैं) से जैसा हूँ, वैसा बाहर भी दिखना चाहता हूँ।”

साफगोई की छाप उनके साहित्य में भी झलकती है। अपने साहित्य में भी वे अपनी गम्भीरता की जड़ता को नहीं ढँकते। उनके मित्र-यार और घरेलू समझाते हैं- तुम पर हमेशा एक रंग अच्छा नहीं लगता। ठूँठ की निर्जनता पर रंग चढ़ाया करो। सुझाव की लाज रखने के लिए वे प्रयोग करते हैं। ठूँठ के शीर्ष पर बैंगनी-पीला-गुलाबी लगा लेते हैं। उनका नया रंग-ढंग देख चितकबरे भौंकने लगते हैं। घबराकर वे एकरंगीय गम्भीरता में वापस लौट जाते हैं।

बहुत से लोग प्रयोग करने से डरते हैं। उन्हें फेल होने, असफल होने, खारिज किए जाने या आलोचना से डर लगता है। ऐसे लोग हमेशा सफल होना चाहते हैं। हमेशा सही करना चाहते हैं। ऐसा सही, जो पहले से ही किसी और द्वारा प्रमाणित है। इसमें दोष हमारी परम्पराओं का है। ऐसी धारणा बना दी गई है कि लीक छोड़कर चलने वाला झंडू समझा जाता है। इसी चक्कर में एक लीक पर अंतहीन लाइन लगी हुई है। लाइन में लगे पैर लीक को घिसते जा रहे हैं। घिसते-घिसते लीक खोखली हो चुकी है। इसी बीच जब कोई झंडू नई लीक बना देता है, तब-मैं तो शुरू से ही कहता था कि ये कुछ नया करेगा।

असफलता या गलती के डर से प्रयोग करने से नहीं डरना चाहिए। कितने आविष्कार या खोजें प्रयोग के दौरान हुई गलतियों या दुर्घटनाओं का ही परिणाम हैं। गलती के डर से ही अभी ना जाने कितने आविष्कार पाइप लाइन में हैं। वे इंतजार में हैं कि कोई प्रयोग तो शुरू करे। पाइप लाइन में पड़े आविष्कारों को बाहर लाने के लिए बिना डरे प्रयोग करना होगा। मुझे घरेलू आलोचकों पर पूरा भरोसा है। इन्हीं आलोचक के दम पर मैं प्रयोग करने से नहीं डरता हूँ। घरेलू आलोचक मेरे प्रयोग की स्थापना कर देंगे। हाँ, ये है कि अभी तक किसी आलोचक को घरेलू नहीं बना सका हूँ। ना ही किसी आलोचक का घरेलू बन सका हूँ। आधुनिक युग की इस कमी या माँग को दूर करने के लिए प्रयासरत हूँ।



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