तन मन जन: कोरोना ने प्राइवेट बनाम सरकारी व्यवस्था का अंतर तो समझा दिया है, पर आगे?


कोरोना वायरस संक्रमण (कोविड-2019) की महामारी ने देश की स्वास्थ्य व्यवस्था की कमजोरियों को उजागर करके रख दिया है। इस संक्रमण के दौर में सरकारी और निजी स्वास्थ्य व्यवस्था की असलियत जनता के सामने आ गयी, साथ ही दोनों के बीच विरोधाभास की कलई भी खुल गयी है। कोरोना महामारी से जूझते हुए देश की सरकारी और निजी स्वास्थ्य व्यवस्था ने अपनी रंगत दिखा दी और अब यह साफ तौर पर कहा जा सकता है कि सार्वजनिक या सरकारी स्वास्थ्य व्यवस्था को चुस्त-दुरुस्त किये बगैर जनस्वास्थ्य की चुनौतियों का मुकाबला नहीं किया जा सकता। कोरोना वायरस संक्रमण के दौर में मची अफरातफरी ने मध्य वर्ग के लोगों के निजीकरण के प्रति मोह को भी भंग किया है और यह स्पष्ट कर दिया कि बेहतर सुविधा और सेवा के नाम पर खड़े निजी क्षेत्र के अस्पताल महज आर्थिक लूट के केन्द्र हैं।

जब से योजना आयोग को ‘‘नीति आयोग’’ में परिवर्तित किया गया, तब से वह स्वास्थ्य सेवाओं से जुड़ी सुविधाओं यानी इन्फ्रास्ट्रक्चर के निजीकरण की जोरदार वकालत कर रहा है। जून 2017 में नीति आयोग ने देश के जिला अस्पतालों में असंक्रामक बीमारियों के इलाज में सुधार के लिए जरूरी बुनियादी संरचना सुविधाओं की स्थिति सुधारने के नाम पर निजी सरकारी साझेदारी (पीपीपी मॉडल) का प्रस्ताव दिया था, हालांकि देश के जनस्वास्थ्य कार्यकर्त्ताओं के विरोध और दबाव के कारण यह प्रस्ताव खटाई में पड़ गया। उसी साल अक्टूबर में आयोग ने जिला अस्पतालों में प्राइवेट कम्पनियों के प्रवेश का एक और तरीका अपनाया। सन् 2020 के जनवरी में आयोग फिर एक प्रस्ताव लेकर आया। कोई 250 पृष्ठों के इस दस्तावेज में भी पीपीपी मॉडल का ही सुझाव था। इसमें बताया गया है कि किस तरह से निजी मेडिकल कॉलेज देश के जिला अस्पतालों को नियंत्रित कर सकते हैं। स्पष्ट है कि नीति आयोग और सरकार पिछले कई वर्षों से सरकारी स्वास्थ्य व्यवस्था में निजी क्षेत्र को घुसाने की हर सम्भव कोशिश कर रहे हैं।

तन मन जन: नीति आयोग का ‘विज़न 2035’ और जनस्वास्थ्य निगरानी के व्यापक मायने

देश के पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को 1990 के दशक के शुरू में अर्थव्यवस्था के उदारीकरण का जिम्मेदार माना जाता है। क्या मनमोहन सिंह जी बताएंगे कि भारतीय स्वास्थ्य व्यवस्था की मौजूदा स्थिति के लिए स्वास्थ्य सेवाओं का निजीकरण जिम्मेवार नहीं है? क्या देश के सरकारी स्वास्थ्य व्यवस्था को कमजोर करने के लिए वे अपनी जिम्मेदारी स्वीकार करेंगे? क्या स्वास्थ्य के निजी क्षेत्र के 70 फीसद आर्थिक कमजोर लोगों को स्वास्थ्य सेवा प्रदान कर पाएंगे? राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण (एनएनएसओ) के आंकड़ों के अनुसार सन् 1991 के बाद जब भारतीय अर्थव्यवस्था का उदारीकरण शुरू हुआ, तब से निजी स्वास्थ्य सेवा प्रदान करने वाली कम्पनियों की संख्या में तेजी से इजाफा हुआ।

यहां यह स्पष्ट कर देना जरूरी है कि सरकार ने स्वास्थ्य सेवाओं के निजीकरण को तो पूरे जोर शोर से लागू कर दिया लेकिन इसे रेगुलेट या नियमानुसार चलाने की कोई व्यवस्था नहीं की। उल्लेखनीय है कि अन्य देश जो स्वास्थ्य सेवाओं का निजीकरण कर रहे हैं उन्‍होंने इसके नियमन और नियंत्रण के लिए ठोस गाइडलाइन भी बनायी हैं। भारत में यहां की सरकार ने मजबूत रेगुलेटर के बदले सहायक की भूमिका निभायी, मसलन गरीबी के दलदल में फंसे बड़ी संख्या में भारतीय अच्छी चिकित्सा के अभाव में दम तोड़ते गए। राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के आंकड़ों के अनुसार सन् 2001 से 2015 तक भारत में 3.8 लाख लोगों ने चिकित्सा सुविधा के अभाव में आत्महत्या की। यह संख्या उस दौरान आत्महत्या करने वालों की कुल संख्या का लगभग 21 फीसद थी।

तन मन जन: पब्लिक हेल्थ और जनसंख्या नियंत्रण की विभाजक राजनीति

सन् 1991 में जब देश उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण के लिए सौंपा जा रहा था तब सरकार और सरकार समर्थित विशेषज्ञ और मीडिया एक स्वर से इस बदलाव की खुशियां गिना रहे थे। मुझे याद है कि तब मैं चिकित्सा स्नातक की डिग्री के बाद स्वास्थ्य के क्षेत्र में निजीकरण के खतरों को पढ़-समझ रहा था। कभी जाने-माने अर्थशास्त्री अलफ्रेड मार्शल (26 जुलाई 1842-13 जुलाई 1924) ने कहा था:

संक्षिप्त शब्द आमतौर पर घटिया अर्थशास्त्र को जन्म देते हैं।

यह बात नवउदारवादी ‘‘वाशिंगटन कन्‍सेन्‍सस’’ के लिए बिल्कुल सही बैठती है। 1990 में भारत ने ‘‘वाशिंगटन कन्‍सेन्‍सस’’ को स्वीकार कर जब उसका क्रियान्वयन शुरू किया तब से बेरोजगारी बढ़ी, रोजगार घटे। तमाम दावों के बावजूद आर्थिक संवृद्धि की दर घटी। माफिया पूंजीवाद का दबदबा बढ़ा। क्षेत्रीय विषमता और सामाजिक असमानता में बढ़ोतरी हुई। मंडल आयोग की सिफारिशें निरर्थक हो गयीं। गरीबी निवारण कार्यक्रम ठंडे बस्ते में डाल दिये गए। छोटे और घरेलू उद्योग बन्द होने लगे। शिक्षा और स्वास्थ्य आम आदमी की पहुंच के बाहर चले गए। नये कौशल देने वाली शिक्षा मध्यवर्गीय परिवार के बच्चों के बूते से बाहर हो गयी।

नवउदारवाद के स्वास्थ्य पर खतरों को समझने के लिए केविन फिलिप्स की किताब ‘‘द पॉलिटिक्स ऑफ रिच एण्ड पुअर’’ पढ़ी जानी चाहिए। केविन फिलिप्स कभी अमरीकी राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन के सलाहकार रह चुके हैं।

केविन फिलिप्स कभी अमरीकी राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन के सलाहकार रह चुके हैं

भारत में स्वास्थ्य सेवाओं के निजीकरण के बीच जब जनवरी 2020 में कोरोना संक्रमण की आमद हुई उसके बाद यहां के निजी अस्पतालों का हाल जानें तो हकीकत पता लग जाएगी। 12 जून 2020 को दिल्ली के पांच सितारा अस्पताल ‘‘मैक्स हेल्थ केयर’’ में कोविड-2019 के इलाज का भारी-भरकम फीस वाला रेट चार्ट टंग गया था। इस चार्ट में जनरल वार्ड का रेट 25,090 रु. था जिसमें कोविड-19 की जांच, महंगी दवा, कोमॉर्बिडिटी आदि के इलाज की फीस शामिल नहीं थी। अस्पताल ने एक और रेट चार्ट घोषित किया था जिसमें एक रूम वाला कमरा रोजाना 30,400 रु. का था, आईसीयू का रेट 72,500 रु. था। जाहिर है इस दर से कोरोना रोगी इस अस्पताल को रोजाना एक से तीन लाख रुपये तक दे रहे थे।

इस दौरान इन निजी अस्पतालों ने अकूत धन कमाया। यहां तक कि लाशों की भी कीमत वसूली। सन् 2000 में न्यायाधीश ए. एस. कुरैशी की अध्यक्षता में एक कमेटी बनी थी जिसका उद्देश्य निजी अस्पतालों में गरीबों के लिए निःशुल्क उपचार से सम्बन्धित दिशानिर्देश तय करना था। इस कमेटी की सिफारिश पर ही निजी अस्पलों के आइपीडी में 10 फीसद तथा ओपीडी में 25 फीसद सीट गरीबों के लिए आरक्षित किये गए थे लेकिन कोरोनाकाल में यह सब नदारद था।

तन मन जन: जन-स्वास्थ्य की कब्र पर खड़ी कॉरपोरेट स्वास्थ्य व्यवस्था और कोविड

इसमें सन्देह नहीं कि भारत अब विश्व बाजार व्यवस्था का एक जरूरी क्षेत्र बन गया है। वैश्वीकरण के साथ साथ यहां कई नये और घातक रोगों की चुनौतियां भी हैं। अध्ययन बता रहे हैं कि कई पुराने रोगों ने अपनी जड़ें और मजबूत कर ली हैं। तथाकथित विकास, कृषि और उद्योगों के नये तौर-तरीके रोगों को और गम्भीर तथा घातक बना चुके हैं। देश में पसरे रोग कालाजार, मलेरिया, टी.बी., मस्तिष्क का ज्वर, एड्स, सार्स फ्लू, डेंगू, चिकुनगुनिया आदि पर विश्व स्वास्थ्य संगठन की लगभग प्रत्येक सालाना रिपोर्ट यही बताती है कि दुनिया की स्वास्थ्य की रक्षा के लिए बना यह संगठन अब रोग की आवश्यकता को ही मजबूत और समृद्ध बना रहा है।

भारत में आम आदमी की चिंताओं में उसके स्वास्थ्य और भविष्य के प्रति उसकी आशंका आज बेहद महत्वपूर्ण है। इसके अलावे बढ़ते रोगों की चुनौतियां दवाओं का बेअसर होना, रोगाणु-विषाणुओं का और घातक होना, बढ़ती आबादी, गरीबी और विषमता देश के लिए बेहद चिन्ताजनक पहलू हैं। इन समस्याओं के समाधान के लिए विश्व स्वास्थ्य संगठन ‘‘स्वास्थ्य के लिए और ज्यादा निवेश’’ की बात कर रहा है। यह तो सच है कि दुनिया के कई देशों में स्वास्थ्य पर सरकारी बजट बेहद कम है। भारत भी इन्हीं देशों में शामिल हैं। दुनिया के स्तर पर बढ़ी विषमता ने स्थिति को और ज्यादा जटिल बना दिया है। विश्व स्वास्थ्य संगठन की अधिकांश रिपोर्टों पर गौर करें तो पाएंगे कि अमीर देशों में जो स्वास्थ्य समस्याएं हैं वे अधिकतर अमीरी से उत्पन्न हुई हैं। इसके उलट तीसरी दुनिया के देशों की स्वास्थ्य समस्याएं आमतौर पर संसाधनों की कमी, गन्दगी और कुपोषण की वजह से है।

1995 में जारी एक रिपोर्ट में विश्व स्वास्थ्य संगठन ने ‘‘अत्यधिक गरीबी’’ को अन्तर्राष्ट्रीय वर्गीकरण में एक रोग माना है। इसे ‘‘जेड 59.5’’ नाम दिया गया है। रिपोर्ट में कहा गया है कि विकासशील देशों और यहां तक कि विकसित देशों में भी गरीबी तेजी से बढ़ रही है और इसके कारण विभिन्न देशों में लोगों के बीच आर्थिक असमानता की वजह से स्वास्थ्य समस्याएं काफी गम्भीर हुई हैं। निजीकरण की प्रक्रिया के तुरन्त बाद का यह अध्ययन आंखें खोल देने के लिए काफी है।

कोरोनाकाल में जहां लोग अपनी जिन्दगी बचाने की जद्दोजहद में थे वहीं दुनिया के धन्धेबाज व्यापारी मुनाफा लूट रहे थे। यूएनडीपी तथा डेनवर विश्वविद्यालय के एक अध्ययन के अनुसार कोविड-2019 महामारी के अनुसार गम्भीर दीर्घकालिक परिणामों के चलते कोई 20 करोड़ 70 लाख लोग घोर गरीबी की ओर जा चुके हैं। इस प्रकार दुनिया में बेहद गरीब लोगों की संख्या अब एक अरब को भी पार कर जाएगी, लेकिन दूसरी तरफ दुनिया के दस शीर्ष के अमीरों ने कोरोनाकाल में 540 बिलियन डालर (चालीस अरब सत्रह अरब करोड़) ज्यादा कमाया। ऐसे ही आक्सफैम की रिपोर्ट के अनुसार भारत के शीर्ष के 100 अरबपतियों ने 12,97,822 करोड़ रुपये अतिरिक्त कमाये। इस राशि से देश के 13.8 करोड़ गरीबों को प्रत्येक को 94,095 रुपये मिल सकते हैं।

‘‘द इनइक्वलिटी वायरस’’ नाम की रिपोर्ट में कहा गया है कि दुनिया भर में 18 मार्च से 31 दिसम्बर 2020 तक अरबपतियों ने अपनी दौलत में 3.9 ट्रिलियन डॉलर का इजाफा किया है। आक्सफैम ने तो यहां तक कहा है कि कोरोनाकाल में जब दुनिया भर की उड़ानें बंद थी तब अरबपति अपने लिए प्राइवेट जेट जहाज खरीद रहे थे। निजीकरण की वकालत करने वाले अपनी खुली आंखों से हकीकत देख लें। अमीरों की तिजोरी में यह दौलत गरीब लोगों की जिन्दगी काट कर गयी है।

तन मन जन: महामारी का राजनीतिक अर्थशास्त्र और असमानता का वायरस

स्वास्थ्य सेवाओं के निजीकरण ने देश के लोगों की सेहत की क्या गत बना दी उसे समझने में अब किसी भी व्यक्ति को कोई दिक्कत नहीं है। निजीकरण के बाद के स्वास्थ्य व्यवस्था का नंगा चित्र अब सबके सामने हैं- कोरोनाकाल में लगभग पूरे देश ने अनुभव किया कि सरकारी स्वास्थ्य व्यवस्था और निजी अस्पतालों ने लोगों को क्या-क्या नहीं दिखाया। स्वास्थ्य सेवाओं के निजीकरण ने आम आदमी के जीवन की सम्भावनाओं पर गहरा प्रहार किया है। स्वास्थ्य बीमा एवं सरकारी योजनाओं के बावजूद आम लोगों के लिए सरकारी अस्पतालों में इलाज हासिल करना आसान नहीं है। कहने को सरकार ने जो ‘‘राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति 2017’’ बनायी है वह सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणालियों को मजबूत करने की बात करती है लेकिन व्यवहार में सामान्य रोगों के उपचार के लिए भी लोग निजी अस्पतालों में भारी रकम चुकाकर इलाज कराने के लिए मजबूर हैं। सरकारी उच्च विशेषज्ञता वाले अस्पताल जैसे एम्स व अन्य बड़े अस्पतालों में महीनों पहले नम्बर लगाना पड़ता है और उपचार तक पहुंचते-पहुंचते मरीज की हालत खराब हो जाती है मजबूरन व्यक्ति निजी अस्पतालों में जाकर इलाज कराता है।

भारतीय संविधान अपने नागरिकों को ‘‘जीवन रक्षा का अधिकार’’ देता है। राज्य के नीति निर्देशक तत्वों में भी पोषाहार स्तर, जीवन स्तर को ऊंचा करने तथा लोक स्वास्थ्य में सुधार करना राज्यों का दायित्व माना गया है, लेकिन संविधान की परवाह अब है किसे? नये रोगों की चुनौतियों और घातक महामारियों तथा राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय साजिशों के बीच जी रहे आम लोगों के लिए सेहत और रोगों के इलाज का सवाल आज एक बड़ा सवाल है। निजीकरण के नाम पर सरकारों ने लोगों को सार्वजनिक स्वास्थ्य व उपचार उपलब्ध कराने के अपनी जिम्मेदारी से लगभग दूरी बना ली है। मसलन बीमारी के बाद मरने की मजबूरी ने आम आदमी को तोड़ दिया है। रोजगार, शिक्षा और स्वास्थ्य के जो बुनियादी सवाल आजादी के समय थे आज स्थिति उससे भी ज्यादा बदतर है। लोग विभिन्न कारणों से जाति, धर्म, वर्ग में बंट कर अपने पैर पर खुद ही कुल्हाड़ी मार रहे हैं, लेकिन विडम्बना देखिए कि इस असह्य दर्द में भी आम आदमी चुपचाप सहने को मजबूर है। यही उसकी नियति है।

तन मन जन: स्वास्थ्य मौलिक अधिकार है, सरकार को बार-बार यह याद क्यों दिलाना पड़ता है?

स्वास्थ्य और उपचार का सवाल जीवन से जुड़ा है और यह हर नागरिक का मौलिक अधिकार है। स्वास्थ्य सेवाओं को निजीकरण के जाल से बाहर निकाले बगैर आप स्वस्थ मानवीय जीवन की कल्पना भी नहीं कर सकते। अभी भी वक्त है। जागिए और सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं की गारन्टी के लिए आवाज बुलंद कीजिए।


लेखक जन स्वास्थ्य वैज्ञानिक एवं राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त होमियोपैथिक चिकित्सक हैं


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