मिथिला क्षेत्र के बारे में उसकी संस्कृति से जुड़ी एक कहावत बड़ी मशहूर है- पग-पग पोखरि माछ मखान, मधुर बोल, मुस्की मुख पान. यह वहां बहुत सारे पोखरों, नाना नस्ल की मछलियों, धान, मखान, मान (एक तरह का पौधा, जो दलदल में उगता है) को समेटता है. जाहिर है, यह सब मिथिला क्षेत्र के अनगिनत पोखरों से जुड़ा है. इन पोखरों के साथ मिथिला के इलाके में बहुत सारी नदियां, गोखुर और छाड़नें हैं जिससे पूरे इलाके में वेटलैंड जैसी पारिस्थितिकी नजर आती थी.
पिछले साल जब मैं गरमियों में अपने मिथिला इलाके में गया था, मैंने देखा कि ढेर सारे तालाबों का पानी सूख गया था और हैंडपंप बेकार हो गए थे. मिथिला जैसे मछली उत्पादक इलाके में आंध्र प्रदेश से आई संकर मछलियां बिक रही थीं. दरभंगा जैसे शहर में भी, जिसे पहले भी मिथिला की राजधानी होने का गौरव मिला था, पोखरे लोगों की चिंताओं से दूर हो गए हैं. भूमि माफिया ने इमारतें खड़ी करने के लिए पोखरों और डबरों (छोटे पोखरे) को पाट दिया है.
असल में मिथिला के पोखरे उसकी जिंदगी की रेखा हैं. मछलियां ही नहीं, धान, मखाना, पानीफल सिंघाड़ा जैसी फसलें उन्हीं पोखरों के सहारे पैदा की जाती रही हैं.
शहरीकरण के आम दुष्प्रभावों की तरह दरभंगा, मधुबनी, मुजफ्फरपुर से लेकर समस्तीपुर, सीतामढ़ी और पूर्णिया तक, पोखरे तालाबों में पॉलीथीन से लेकर घरेलू सीवेज तक गिर रहा है. तालाबों का अस्तित्व इसलिए भी खत्म हो रहा है क्योंकि नल के जल के लिए लालायित नवतुरिया धनाढ्यों के लिए पोखरों की अहमियत सिफर ही है. मिथिला के इलाके में वेटलैंड के लिए स्थानीय शब्द चौर इस्तेमाल किया जाता है.
नेशनल वेटलैंड एटलस, जिसे भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संस्थान (इसरो) और इंस्टीट्यूट ऑफ एनवॉयर्नमेंट स्टडीज ऐंड वेटलैंड मैनेजमेट (आइईएसड्ब्ल्यूएम) ने 2010 में तैयार किया है, के मुताबिक बिहार में करीबन 4.4 फीसद भौगोलिक क्षेत्र वेटलैंड है. इनमें 4,416 बड़े और 17,582 छोटे (सवा दो हेक्टेयर के कम से कम) वैटलैंड हैं. इन वेटलैंड में कुदरती जलाशयों (92 फीसद) की अधिकता है जबकि मानवजनित वेटलैंड महज 3.5 फीसद हैं.
असल में पिछले डेढ़ दशक से मिथिला के शहरी इलाकों में जल संकट गहराने लगा है. उसके पहले ऐसा होना अभूतपूर्व ही थी. मिथिला के पोखरे भूमिगत जल स्तर को रिचार्ज करते रहते थे और सदियों से यह कुदरती तौर पर वॉटर हार्वेस्टिंग का तरीका था.
2005 के बाद बढ़ते जलसंकट ने इन शहरों में लोगों को सबमर्सिबल पंप लगाने को बाध्य किया और इस चलन ने जलसंकट को और अधिक गहरा ही किया है. इससे भूमिगत जल का स्तर तेजी से नीचे की तरफ जा रहा है. 2013-14 से दरभंगा और मधुबनी जैसे शहरों में स्थानीय निकायों ने रिहायशी इलाकों में टैंकर से जलापूर्ति शुरू कर दी.
पर्यावरण पर काम करने वाली वेबसाइट मोंगाबे में छपी एक रिपोर्ट में दरभंगा के एक प्राध्यापक एस.एच. बज्मी को उद्धृत किया गया है जिसमें वह बताते हैं कि 1964 के जिला गजेटियर के लिहाज से दरभंगा शहर में ही 300 से अधिक पोखरे थे, लेकिन 1990 के दशक के पूर्वार्ध में यह घटकर 213 हो गया. वैसे, स्थानीय निकायों के मुताबिक, इस वक्त शहर में 84 पोखरे मौजूद हैं पर इनकी दुर्दशा आप अपनी आंखों से देखें तभी समझ पाएंगे.
बिहार सरकार के आंकड़ों के मुताबिक पूरे राज्य में लगभग 67 हजार से अधिक निजी तालाब महज बीस साल के समय में विलुप्त हो गए. सरकारी तालाबों की स्थिति भी बहुत अच्छी नहीं है. उनके चारों तरफ घर बन गए हैं और अक्सर नगरपालिका या नगर निगम के लोग उसमें कचरा डम्प करते रहते हैं. दरभंगा का दिग्घी तालाब, गंगा सागर, हराही और मिर्जा खां तालाब जैसे झीलनुमा बड़े तालाबों की कभी मिसालें दी जाती थीं पर अब ठेकेदार उनको पाटने की साजिश करते रहते हैं.
तो ऐसे जमाने में, जहां ट्रेनों में शौचालय का मग्गा भी जंजीर से बांधकर रखा जाता हो, तालाबों की जमीन माफिया और यहां तक कि सरकार को भी विरासत के मुकाबले अधिक फायदे का सौदा लगता है. मिथिला के पोखरे यहां की परंपरा का हिस्सा हैं. मॉडर्न होने के लिए जरूरी नहीं कि हर परंपरा को धूल-धूसरित कर दिया जाए.