अगर आप कभी पुणे जाएं तो वहां मूला और मुथा नदियों का संगम देखने जाइएगा. काका साहेब कालेलकर ने मूला-मुथा के इसी संगम का वर्णन करते हुए लिखा है:
इतना शांत संगम शायद ही और कहीं होगा. इसी संगम पर कैप्टन मॉलेट पेशवाई की अंतघड़ी की राह देखता हुआ पड़ाव डालकर बैठा था. आज तो संस्कृत भाषा का संशोधन यूरोपियन पंडितों के हाथ से वापिस छीन लेने के लिए मंथनवाले आर्य पंडित भांडारकर जी का संगमाश्रय ही यहां विराजमान हैं. संस्कृत विद्या के पुनरुद्धार के लिए संस्थापित पाठशाला का रूपान्तर करके पुराने और नये का संगम करने वाला डेक्कन कॉलेज भी इस संगम के पास ही विराजमान है. यहां गोरे लोगों ने नौका-विहार के लिए नदी पर बांध-बाधकर पानी रोका है और मच्छरों के विशाल कुल को भी यहां आश्रय दिया है. नजदीक की टेकरी पर गुजरात के एक लक्ष्मीपुत्र की अत्तुंग-शिरस्क किन्तु नम्र-नामधेय ‘पर्णकुटी’ है. मानव की स्वतंत्रता का हरण करने वाला यरवडा का कैदखाना और प्राणहरपटु लश्करी बारूदखाना भी इस संगम से अधिक दूरी पर नहीं है. न मालूम कितनी विचित्र वस्तुओं का संगम मुलामुठा के किनारे पर होता होगा और होने वाला होगा! बांध के पास बंड-गार्डन में लक्षाधीश और भिक्षाधीशों का संगम हर शाम को होता है, यह इसी की एक मिसाल है.
काका साहेब ने जब यह लिखा था तब साल था 1956 का. अब संगम का वह सौंदर्य जाता रहा है. महाराष्ट्र के पुणे जिले से निकलने वाली पांच अहम नदियों में से एक, मुथा के पानी में अब वह सलीका भी नहीं बचा, जो 2007 में था. तब मैं एफटीआइआइ में फिल्म का प्रशिक्षण लेने पुणे गया था, हालांकि उस वक्त भी प्रदूषण था लेकिन इन 13 वर्षों में मुथा की जिंदगी खतरे में आ गई है.
मुथा की कहानी भी बड़े शहरों और औद्योगिक इलाकों से बहने वाली दूसरी नदियों से अलहदा नहीं है और जल प्रदूषण ने इस नदी का गला घोंट दिया है. हिंदुस्तान टाइम्स में छपी एक रिपोर्ट में पुणे म्युनिसिपल कॉर्पोरेशन के आंकड़े का हवाला दिया गया है और इसमें कहा गया है कि 2012 के बाद से लगातार बढ़ते प्रदूषण ने इस नदी को मृत नदी में तब्दील कर दिया है.
मुथा नदी पश्चिमी घाट में टेमघर बांध से ऊपर वेगरे गांव से निकलती है. वहां से यह टेमघर तक आती है और उसके बाद अंबी और मूसी इसमें आकर मिलती है और यह खड़कवासला तक पहुंचती है. वहां से यह नदी शिवाने से नांदेड़ जिले में आती है, फिर विट्ठलवाड़ी होती हुई म्हात्रे पुल होती हुई सीओईपी कॉलेज के पास मूला नदी में संगम घाट पर मिल जाती है. उसके बाद इसका नाम मूला-मुथा हो जाता है, जो आगे चलकर भीमा नदी में मिल जाती है.
पुणे शहर के पास कई हिस्सों में मुथा नदी की धारा थम गई है और उसमें जलीय जीवन लगभग खत्म ही है. इस नदी में केमिकल ऑक्सीजन डिमांड, बायोलॉजिकल ऑक्सीजन डिमांड (बीओडी) और डिजॉल्व्ड ऑक्सीजन (डीओ) के स्तर में लगातार कमी आती गई है. बता दें कि अगर बीओडी कम हो तो पानी अच्छा माना जाता है और यह जितना अधिक होता जाएगा, पानी उतना अधिक प्रदूषित माना जाता है.
आंकड़ों के मुताबिक, 2017 में पुणे के विट्ठलवाड़ी में मुथा नदी में बीओडी 52.85 मिग्रा/लीटर था जबकि मानकों के लिहाज से इसे 30 मिग्रा/लीटर होना चाहिए. उस समय नगर निगम के अधिकारियों ने कहा था कि शहर का 75 फीसद सीवेज ट्रीट किया जाता है जबकि पर्यावरणविदों की चिंता कुछ और थी. उनके मुताबिक, नदी के पानी का बहते रहना जरूरी है और उसका थमे रहना अधिक खतरनाक है.
असल में, पुणे में नदी के किनारे सीमेंट के तटबंध बना दिए गए हैं और इसने नदी की धारा को रोक दिया है. नदी की धारा सिंचाई विभाग के रहमोकरम पर टिकी है. एक बड़ी वजह नदी की धारा में बिना ट्रीट किए हुए घरेलू सीवेज का मिलना भी है जिसमें डिटरजेंट और साबुन का झाग बड़ी मात्रा में होता है और हर शहर की तरह पुणे भी घरेलू सीवेज का सौ फीसद उपचार करने में नाकाम है.
पुणे में कई एनजीओ हैं जो मुथा को साफ करने के अभियान में लगे हैं. हाल ही में, पुणे में एक अभियान मीटू भी शुरू किया गया था, जो नदी को साफ करने में दिलचस्पी लेने वालों को लेकर था, लेकिन औद्योगिक अपशिष्ट को स्वयंसेवा मोड में आकर नहीं रोका जा सकता. स्वयंसेवा मोड में नदियों से प्लास्टिक की थैलियां तो चुनी जा सकती हैं लेकिन उसके पानी को साफ और प्रदूषण मुक्त करना मुश्किल है.