हर्फ़-ओ-हिकायत: सात बनाम सत्तर बनाम सात सौ साल के बीच फंसे युवाओं का इतिहास-रोग


तेरी मिट्टी में मिल जावां / गुल बनके मैं खिल जावां / इतनी सी है दिल की आरजू…

फिल्म ‘केसरी’ का यह गीत मनोज मुंतशिर ने लिखा है। इस गीत के फिल्‍मांकन से लगता है कि सिख सैनिक अपनी मिट्टी में मिल जाना चाहते हैं और फूल बनकर खिल जाना चाहते हैं। इस गीत पर और बात करने से पहले सारागढी के बारे में जानना जरूरी है। 12 सितंबऱ 1897 को तत्कालीन ब्रिटिश भारत (वर्तमान में पाकिस्तान का खैबर पख्तूनख्वा प्रांत) के कोहाट इलाके में एक लड़ाई हुई जिसको हम सारागढ़ी के युद्ध के नाम से जानते हैं।

सारागढ़ी सामना रेंज पर स्थित कोहाट जिले का एक सीमावर्ती छोटा सा कस्बा है। सारागढ़ी चौकी के साथ गुलिस्तां और लॉकहार्ट किला महाराजा रणजीत सिंह के समय बनाया गया था। बाद में अफगानों पर नियंत्रण रखने के लिए अंग्रेजों ने इस किले को पोस्ट बनाकर 36वीं सिख रेजि‍मेंट की एक टुकड़ी यहां तैनात कर दी, जिसकी कमान कर्नल जे. कुक के पास थी। इस इलाके में हमेशा से पश्तो और पठान अंग्रेजों का विरोध करते रहे थे। यही वजह थी कि अगस्त 1897 में कर्नल जॉन हैटन को पांच कंपनियों के साथ वहां तैनात करना पड़ा। इसके बावजूद 10000 पठानों और अफगानों ने सारागढी किले पर हमला कर दिया जहां महज 21 सैनिक तैनात थे। इस टुकड़ी के सूबेदार ईशर सिंह ने पोस्ट छोड़ने से इंकार कर दिया और 10000 पठानों को तब तक रोके रखा जब तक की आखिरी सिख सैनिक भी ढेर न हो गया।

जब इन सिखों के बलिदान की ख़बर लंदन पहुंची तो उस समय ब्रिटिश संसद का सत्र चल रहा था। इस युद्ध की कहानी सुनकर संसद ने दो मिनट का मौन रखकर सिख बहादुरों को श्रद्धांजलि दी। इस लड़ाई को दुनिया का सबसे बड़े ‘लास्ट स्टैंड्स’ कहा जाता है यानी आखिरी दम तक मोर्चा न छोडना। इस युद्ध के बारे में लिखी गयी किताबें में लिखा है कि कर्नल हैटन ने सारागढ़ी पोस्ट पर तैनात सिख सैनिकों को पोस्ट छोड़ देने को कहा था, लेकिन ईशर सिंह ने पठानों को कहा कि वो ये जगह इसलिए नहीं छोड़ेंगे क्योंकि यह महाराजा रणजीत सिंह का बनाया हुआ है।

अब मनोज मुंतशिर के सवाल पर वापस आते हैं। पिछले सात साल में मनोज जैसे करोड़ों युवाओं ने इतिहास को पाले में बांट दिया है। पिछले सत्तर साल में जिस भारत का निर्माण हुआ है वहां कई जातिगत और क्षेत्रीय पाले बरकरार हैं, लेकिन सात सौ वर्षों को पाले में बांट के मनोज मुंतशिर अपनी ही कमियों को चौराहे पर ला दिये हैं। संदर्भ मुंतशिर के एक चर्चित वीडियो का है जिसमें वे मुगलों को लुटेरा बता रहे हैं। इसकी प्रतिक्रिया में एक पक्ष उनका विरोधी हो गया है और इतिहास की उनकी समझ पर हमला कर रहा है। मनोज उनके सवालों के जवाब देने से बच रहे है या हो सकता है कि सब कुछ जुटाकर कुछ दिनों बाद जवाब दें, लेकिन उन्हें यह बताना पड़ेगा कि अकबर की सेना में जय सिंह और मान सिंह, बीरबल और टोडरमल कौन थे। उन्हें यह भी बताना पडेगा कि 1196 में मोहम्मद गोरी के हमले के समय पृथ्वीराज चौहान का साथ जयचंद्र, कालिंजर के चंदेल राजा और गुजरात के सोलंकी राजाओं ने क्यों नहीं दिया।

असल में, हमारे देश का इतिहास 700 साल और उसके बाद आजादी के 70 साल, फिर नरेन्द्र मोदी सरकार के सात साल के बीच उलझ चुका है। इसमें फंसकर हर कोई अपना-अपना इतिहास बता रहा है। मनोज मुंतशिर भी कुछ ऐसा ही कह गए हैं। वे भी यह तय नहीं कर पा रहे हैं कि इतिहास को कहां से देखें या इतिहास की बात कहां से शुरू करें।

मैं एक राष्ट्रवादी लेखक पत्रकार हूं और इतिहास को लेकर मेरी समझ नौवीं सदी में आये अल-बरूनी की किताब से लेकर ईसा पूर्व 700 वर्ष पहले मैगस्थनीज की किताब इंडिया के हवाले से तैयार होती है, सिर्फ मुगलों के दम पर नहीं। 327 ईसा पूर्व एक छोटे से राज्य यूनान का राजा सिकंदर दुनिया को जीतता हुआ उसी पंजाब के इलाके में पहुंचता है जहां सारागढ़ी की जंग हुई थी। तब पंजाब का राजा पोरस था। कहानियां बताती हैं कि पोरस ने सिकंदर को जबरदस्त जवाब दिया। उसकी वीरता से सिकंदर प्रभावित हो गया और पंजाब के आगे भारत के अंदरूनी हिस्से में हमला करने से पीछे हट गया। असल में तब मगध पर नंद वंश का शासन था और मगध की सेना बहुत बड़ी थी। इतिहासकार कहते हैं कि पोरस के प्रतिरोध से सिकंदर समझ गया था कि मगध की सेना उसका क्या हाल करेगी, इसलिए समझदार सिकंदर ने वापस जाना उचित समझा। फिर सिकंदर हमारे इतिहास में महान कैसे बन गया?

मनोज मुंतशिर को ये समझना पड़ेगा और बताना पड़ेगा कि सेल्युकस कौन था जिसने सिकंदर के बाद भारत पर हमला किया और क्यों मगध के सबसे महान मौर्य वंश के संस्थापक चंद्रगुप्त मौर्य ने सेल्युकस की बेटी हेलेना से विवाह किया। एनसीईआरटी की किताबों में पढ़ाया जाता है कि चंद्रगुप्त मौर्य ने सिकंदर के सेनापति सेल्युकस को 80 हाथी तोहफे में दिये थे। चूंकि मनोज मुंतशिर अकबर-बाबर को लुटेरा बता रहे हैं तो यह पूछना बेहद जरूरी है कि भारत के पश्चिमी इलाके में सिकंदर के छोड़े गए बहादुर सैनिकों और गवर्नर से तत्कालीन भारतीय समाज का क्या संबंध रहा है। अगर यह सच है कि सिकंदर ने ईसा पूर्व 320 में वर्तमान पंजाब के इलाके जीत लिया था, तब उस वक्त भारत में कौन से मुसलमान रहते थे? मगध की जिस विशाल सेना से डरकर वह वापस लौट गया था, उस महापद्मनंद के शासन को उखाड़ फेंकने वाले चंद्रगुप्त और चाणक्य का इतिहास कैसे पढ़ा जाय?

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मनोज भाई! ये तत्कालीन इतिहास है जो तब के हालात के हिसाब से लिए गए फैसलों से बना है। इन्हीं फैसलों से धीरे-धीरे मौर्य, चोल, चालुक्य, कलचुरि, गहरवाल, चौहान वंश के राज्य रहे हैं और सबने एक दूसरे को लूटा ही है। चौहान ने गहरवालों को, तुर्कों को अफगानियों ने और अफगानियों को मुगलों ने पराजित किया। औरंगजेब के बाद मुगलों को मराठों और रुहेलों ने तबाह कर दिया। बाद में ईस्ट इंडिया कंपनी ने भारतीय उपमहाद्वीप को यूनियन जैक के झंडे तले ला दिया। अब आप किसी को दोष देने से पहले ये सोचें कि 1947 में कौन किससे भारत को जीता।

लेख की शुरुआत में ‘केसरी’ फिल्म के जिस गीत का जिक्र है, उसे मनोज ने सैनिकों को समर्पित करके लिखा है। ईसा से 800 वर्ष पहले से सैनिक अपनी मिट्टी के लिए लड़ रहे हैं। न जाने कितने सैनिकों के लहू से मिट्टी लाल है। प्राचीन भारत का इतिहास वैशाली के लिच्छवी वंश, राजगीर के हर्यक वंश और कौशल के प्रसेनजीत, अवंतिका (वर्तमान की उज्जयिनी) के उदयिन के आसपास से यदि मानें, तो भी सैनिक तो लड़ते ही रहे हैं। इन्हीं सैनिकों के बलिदान का 2000 वर्ष का इतिहास है, जिसके बाद 1947 में वर्तमान भारत की चौहद्दी बनी है।

इस्लाम के आने से पहले और इस्लाम के जाने के बाद भी सैनिकों ने अपनी मिट्टी के लिए शहादत दी है। तब जाकर 1947 में एक रिपब्लिक ऑफ इंडिया यानी भारत का गणतंत्र बना है। वही गणतंत्र जिसे  ईसा के आठ सौ साल पहले वैशाली राज्य ने पहली बार लागू करके दिखाया था। विडम्‍बना यह है कि वर्तमान भारत में सत्तर साल बनाम सात साल की बेतुकी बहस चल रही है जिसमें पिछले सात सौ साल के इतिहास को अपराधी बताया जा रहा है।

मनोज जैसे युवाओं के इस भ्रम का जवाब मनोज के ही लिखे एक गीत में हमें मिलता है, बशर्ते मनोज केवल लिखते न हों बल्कि अपना लिखा पढ़ते भी हों।  

तलवारों पे सर वार दिए
अंगारों में जिस्म जलाया है
तब जाके कहीं हमने सर पे
ये केसरी रंग सजाया है…

मनोज मुंतशिर शानदार लिखते हैं और बहुत शानदार तरीके से वे राष्ट्रीय बहस के केन्द्र में आ गए हैं, लेकिन इस्लाम के भारत अभियान के जिस हिस्से को वो रक्तरंजित बताकर अपनी मार्केटिंग कर रहे हैं उसके आगे-पीछे के इतिहास में उसी मिट्टी में मिल जाने की इतनी कहानियां हैं कि मनोज को सोचना पड़ जाएगा कि उन्हें किस कहानी पर यकीन है।



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