दक्षिणावर्त: आए थे हरि भजन को ओटन लगे कपास…


सप्ताह की शुरुआत में ही सुप्रीम कोर्ट का एक फैसला आया। उसमें सरकार को लगभग डांटते हुए यह बताया गया कि किसानों के मुद्दे पर सरकार का रवैया ठीक नहीं है, कानून भी ठीक है या नहीं इसका पता करना होगा और यह काम कोर्ट द्वारा नियुक्त चार सदस्यीय समिति करेगी। तब तक, यानी लगभग दो महीने तक कानून को स्थगित रखा जाएगा। यह दीगर बात है कि सप्ताह के बीच तक उस चार सदस्यीय समिति से एक सदस्य ने खुद को अलग कर लिया औऱ किसान-संगठनों व नेताओं ने भी कह दिया कि सुप्रीम कोर्ट के नाम में भले सुप्रीम हो, वे ऐसा कुछ नहीं मानते और उनका आंदोलन बदस्तूर जारी रहेगा।

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सप्ताहांत आते-आते एक विचित्र और बड़ी ख़बर बाज़ार में आयी। खबर यह थी कि एनडीटीवी नामक चैनल में पूर्व समाचार-वाचिका सह संवाददात्री निधि राजदान को हार्वर्ड यूनिवर्सिटी ने जो असोसिएट प्रोफेसर का पद जर्नलिज्म पढ़ाने को दिया था, वह हवाबाज़ी थी। निधि का कहना है कि वह ऑनलाइन फ्रॉड यानी ठगी उर्फ फिशिंग का शिकार हुई हैं, लेकिन उनके आलोचकों (अधिकांश दक्षिणी टोले वाले) का कहना है कि उन्होंने दरअसल अपना भाव बढ़ाने के लिए खुद ही यह जाल रचा, बुना औऱ खुद ही उसमें गिर गयीं। उन्हें दिन भर ट्रोलिंग और छीछालेदर का शिकार होना पड़ा, उनसे उनकी अपनी ही तरफ के लोगों ने भी दूरी बरत ली औऱ कोई सहानुभूति जताने वाला नहीं आया। यहां तक कि हार्वर्ड में पत्रकारिता का कोई पाठ्यक्रम और स्कूल नहीं है, इस तथ्य को गूगल से निकाल कर लोगों ने जहां-तहां निधि की कक्षा लेनी भी शुरू कर दी।

ये दो घटनाएं दो सिरों पर भले दिखें, लेकिन ये हैं एक-दूसरे से जुड़ी हुईं। यह मूलतः और मुख्यतः हमारे देश के चरित्र का परिचायक हैं। ऐसी घटनाओं की एक लंबी फेहरिस्‍त है। हमने ऐसा महान देश बनाया है, जहां हरेक वह आदमी वह काम जरूर ‘नहीं’ कर रहा है, जिसके लिए उसे तनख्वाह दी जाती है, जिसकी उससे अपेक्षा है। हां, वह हरेक वह काम जरूर कर रहा है, जो किसी दूसरे के क्षेत्र का है औऱ जिसमें उसकी कोई विशेषज्ञता नहीं है।

गौर से देखिए। हमारी अदालतों में करोड़ों मुकदमे लंबित पड़े हैं, लाखों मुलजिम जेलों में सड़ रहे हैं, न्याय की आस में, रिहाई की उम्मीद में। कुछ मुकदमे तो नेहरू जी के समय शुरू हुए थे, राहुल जी के समय तक चले आ रहे हैं। माइ लॉर्डशिप इस तथ्य को जानते हैं, फिर भी वह गर्मी की और सर्दी की छुट्टी समय से लेते हैं, अपने सारे भत्ते-सुविधाएं समय से लेते हैं, उनके इंतज़ामिया में तनिक भी खलल हो यह उन्हें बर्दाश्त नहीं, भले ही तारीख-पर-तारीख पड़ती जाए, लेकिन वह इस ‘कठिन समय’ में भी स्वतः संज्ञान लेना नहीं भूलते।

हमारे संविधान-निर्माताओं ने कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका के अलग-अलग बंटवारे किए, सबका काम बताया, उसके लिए विशेषज्ञ कैसे चुने जाएंगे, यह बताया। वे हालांकि यह बताना भूल गए कि कोई एक खंभा जब दूसरे से भिड़ेगा तो क्या करना होगा। यह तो उनकी कल्पना में ही नहीं आया। देश में कानून बनाने के लिए संसद है, लोगों के विरोध-प्रदर्शन की सुनवाई के लिए भी एक प्रक्रिया है, एक निश्चित नियमावली है, लेकिन माननीय कोर्ट खुद ही अपनी फजीहत कराने पर आमादा है। संसद में बाकायदा पूरी बहस के बाद पारित कानून की व्याख्या का उसे हक है, कानून को निरस्त या लागू करने का नहीं। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने चार सदस्यीय समिति बना दी। किसानों ने उसे मानने से इंकार कर दिया। वह अवमानना हुई कि नहीं? कोर्ट ने यह पहली बार नहीं किया है। जलीकट्टू से लेकर दही-हांडी औऱ दीवाली के पटाखों से लेकर न जाने कितने फैसलों को जनता ने नकार दिया है। वह फैसला है तो, लेकिन उस पर अमल नहीं होता।

जलीकट्टू से एक नेता की याद आना स्वाभाविक है। राहुल गांधी, जो अपनी ‘चिसेल्ड बॉडी’ में हरी टी-शर्ट पहन ‘टैमिल’ लोगों को नैतिक समर्थन देने जलीकट्टू देखने चले गए। कहा कि यह किसानों को समर्थन है। भले आदमी का पेशा नेतागिरी है, लेकिन वह नेतागिरी छोड़कर सब  कुछ करते हैं। कभी वह समाज-सुधारक बन जाते हैं, कभी विदेशी पर्यटक, कभी कुछ औऱ। जलीकट्टू पर भी कोर्ट ने रोक लगायी है। राहुल सीधे कोर्ट से भिड़ गए हैं। इसके पहले वह संसद द्वारा पारित अध्यादेश (वह भी जब उनकी माताजी सुपर पीएम थीं) को भी फाड़ चुके हैं।

सत्ताधारी पार्टी के सांसद पता नहीं क्या कर रहे हैं। जनता इसके पहले सीएए के मुद्दे पर दो महीने से ज्यादा शाहीन बाग को घेरे रही, भाजपा वाले दिल्ली चुनाव कराते रहे। अभी गृहमंत्री बंगाल में रवींद्र संगीत का मज़ा ले रहे हैं। प्रधानसेवक तो फकीर आदमी हैं। इन सब से ऊपर उठ चुके हैं। भारत को विश्वगुरु बनाने के काम में लगे हैं, अब माइ डियर फ्रेंड ट्रंप के बिना वह भी काम अकेले ही करना है। बाकी सत्ताधारी दलों के नेता किसानों के साथ संवाद की जगह पता नहीं क्या कर रहे हैं। उधर किसान हैं कि छह महीने का राशन-पानी लेकर, खेती छोड़कर बाकी सब कुछ कर रहे हैं, डीजे पर नाच रहे हैं, 12 किलोमीटर लंबी लाइन में खड़े हैं, ट्रैक्टर दौड़ा रहे हैं।

विद्यार्थी इस देश में पढ़ नहीं रहे, प्रोफेसर पढा नहीं रहे (जहां ये दोनों काम होने के मौके हों, बाकी तो पूरे देश में बस इमारतें और रजिस्टर हैं, जिन पर लक्ष्मी का आना-जाना हो रहा है)। इंजीनियर कभी पटकथा लेखक बन जा रहे हैं, तो कभी बिहार में चपरासी का इंटरव्यू दे रहे हैं।

निधि राजदान भी कथित तौर पर पत्रकारा थीं। वह अपने साथ हुई कथित फिशिंग को नहीं संभाल सकीं, नहीं पहचान सकीं, जबकि उनका पूर्व संस्थान सभी मसलों पर फैक्ट-चेक करता हुआ ही नज़र आता है। जाहिर है, निधि ने हरेक काम किया, सिवा पत्रकारिता के, वरना यह चूक नही घटती।

अब, जैसा कि ट्विटर पर किसी ने लिखा भी है- जब निधि राजदान एक ई-मेल पाकर खुद को हार्वर्ड का प्रोफेसर घोषित कर सकती हैं, तो फिर उस 20-22 साल के भटके हुए नौजवान को क्या कहें, जो फेसबुक पर इनबॉक्स में एक हाय का मैसेज पाकर अपनी शादी का कार्ड छपवाने लगता है।

हरि भजन की जगह कपास ओटने वालों की सूची में फिलहाल हम “इच्छाधारी” योगेंद्र यादव का जिक्र अलग से नहीं कर रहे, जो एक साथ कई भूमिकाओं में दिखते हैं लेकिन कहीं भी खप नहीं पाते। इस मामले में वे अपवाद और आदर्श हैं। अपवाद ही नियम को सिद्ध करते हैं।



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